दक्षिणावर्त: आस्थाएं नहीं, समूचा विमर्श ही चयनित है!


बीते एक सप्ताह में देश में जो कुछ भी हुआ, उसमें कई तस्वीरें ऐसी हैं जो Deja-Vu महसूस कराती हैं। कई वाक्यांश, बहुतेरे ट्वीट, अनेकानेक प्रतिक्रियाएं और बहुत सारी तस्वीरें-वीडियो ऐसा दृश्य पेश करते हैं, जैसे हम टाइम-ट्रैवल कर एक साल पहले के भारत में पहुंच गए हैं।

एक साल पहले सीएए नाम का कानून था, शाहीन बाग था और दिल्ली जल रही थी। आज किसान बिल है, सिंघु बॉर्डर है और दिल्ली के जलने के आसार हैं। सीएए और अब तक अदृश्य एनआरसी को काले कानून बताकर हजारों लोग उसे वापस लेने की मांग के साथ सड़कों पर थे। आज कृषि कानूनों की वापसी की मांग के साथ एक भीड़ फिर सड़कों पर है।

लेखक दुहराव का खतरा उठाकर भी यह सब इसलिए लिख रहा है क्योंकि यह हमारे वक्त का सच है। दोहराव और बासीपन, सत्य और असत्य के बीच का धुंधलापन, ख़बर और राय के मिटते हुए फर्क का यह काल ही हमारे जीवन का एकमात्र सच है।

जब 26 जनवरी को दिल्ली में हिंसा हुई, तो एक सुर से ‘किसान आंदोलन’ की समवेत निंदा करने वाले तमाम लोग, संगठन, टीवी चैनल, मीडिया के धुरंधर अचानक से राकेश टिकैत के आंसूपछाड़ ‘परफॉरमेंस’ के बाद उनके मुरीद बन गए। अब दिल्ली की हिंसा और टिकैत के आंसू में कौन सा सच है, कौन सा झूठ, यह तय करने का संकट ही हमारे समाज का सबसे सामयिक और मौजूं संकट है।

बांटने वाली शब्‍दावली में बात करना एक चिंतनशील समाज और मनुष्य के लिए कभी प्रशंसनीय नहीं कहा जाएगा, लेकिन भारत में आजादी के बाद से प्रबोधन और वैज्ञानिकता का ठेका लिए हुए कथित बुद्धिजीवियों ने जिस तरह से बीते छह वर्षों से देश की चयनित सरकार के खिलाफ खुला हल्ला बोल कर रखा है, उसमें हमें बारहां इस सवाल से दो-चार होना ही पड़ेगा जिसे कुछ वामपंथी मित्र अक्सर पूछते हैं, ‘आस्थाएं इतनी चयनित क्यों हैं?’

आस्थाएं इतनी चयनित इसलिए हैं क्‍योंकि जिन पर सवाल पूछने की जिम्मेदारी थी, यानी पत्रकार, उन्होंने अपने खाते और पाले चुन लिए हैं। वे चयनित इसलिए हैं क्‍योंकि जिन्हें हमारा मार्गदर्शक बनना था, यानी प्राध्यापक-अध्यापक, वे पार्टी के कार्डहोल्डर बन गए। आस्थाएं चयनित इसलिए हैं कि आपने सवाल पूछने की बातें तो बहुत कीं, लेकिन सवाल पूछने पर अपमानजनक टिप्पणियों से गहन मौन तक आपकी प्रतिक्रिया असहिष्‍णु और खारिज करने वाली रही। आस्थाएं इसलिए भी चयनित हो गयीं क्योंकि आपने आजादी के बाद से इस देश की मनीषा और चिंतनधारा को एकरेखीय बना कर रखा है- जो आपके पाले में है वह ठीक, जो नहीं है वह गलत। अपना गुंडा इंसान, दूसरे का आदमी गुंडा।  

लाल किले पर धार्मिक झंडा लगाने वाले दीप सिंधू को जब भाजपा एजेंट बताया जाता है, तो आप चांदनी चौक में घोड़ा लेकर घुसे दंगाइयों और आइटीओ पर ट्रैक्टर चलाकर पुलिस पर चढ़ने की कोशिश करने वाले लोगों को किसान बताते हैं, तो आप आस्थाओं को चयनित होने के लिए मजबूर करते हैं। पिछले साल जब शरजील इमाम ने ‘चिकेन नेक’ को काटकर भारत से अलग करने की बात की, तो एक बुद्धिजीवी मुस्लिम पत्रकार ने ‘मुसलमानों को संयम रखने’ और ‘समय का इंतजार करने’ की सीख दी। उस पत्रकार की मजम्मत जब आप नहीं करते, तो आप आस्थाओं के चयनित होने की सीख देते हैं।

उदाहरण बहुतेरे हैं और वीडियो-ऑडियो असंख्य। पोस्ट-ट्रुथ के इस ज़माने में महज तीन घंटे बाद ही ‘हिंसा’ को जायज ठहराने और उसमें ‘सरकारी हाथ’ होने वाले तर्क सामने आ गए। यही क्‍यों, इज़रायली एम्‍बैसी के पास कल हुए एक धमाके के तो तुरंत बाद ही देसी मोसादों ने अपने-अपने नतीजे निकाल लिए थे। अपने-अपने सत्‍य अपनी जगह, लेकिन इस देश के दामन पर लगा दाग तो हमेशा के लिए रह जाएगा न!

शीत से ठिठुरता हुआ देश जब 72वां गणतंत्र दिवस मना रहा था, तो कुछ सौ लोगों ने इसके प्रतीकों पर हमला किया। यह उतनी खेद और चिंता की बात नहीं है, जितनी यह कि घटना के 24 घंटे के अंदर इस देश के वामपंथी बुद्धिजीवी उस घटना की न केवल लीपापोती कर रहे थे, बल्कि यह कांस्पिरैसी-थियरी भी गढ़ रहे थे कि ‘आरएसएस से जुड़े हिंदूवादी संगठनों’ ने ही दिल्ली में यह हिंसा की है। देश को दिग्भ्रमित करने की कोशिश की जा रही थी कि स्टेट ही दरअसल नॉन-स्टेट एक्टर्स के जरिये यह सब कुछ कर रहा है, ताकि दंगे कराये जा सकें। और यह सारा निष्‍कर्ष एक व्‍यक्ति के आधार पर निकाला गया था जिसकी फोटो प्रधानमंत्री के साथ पहले से उपलब्‍ध थी।  

ग्‍यारह दौर की वार्ता के बाद भी जब आप 26 जनवरी की रैली पर आमादा रहें, पुलिस रूट को तोड़ दें और उसे जायज ठहराने वाले लोग कुतर्क गढ़ रहे हों, तो वे यह भूल जाते हैं कि इतिहास कहीं न कहीं चुपचाप उनके सभी झूठों का हिसाब रख रहा है। सरकारें और राजनीति स्थिर होती हैं, कुछ ऐतिहासिक पल ही होते हैं जब उनकी दिशा बदलती है वरना बहुत अंतर भी नहीं होता है सरकारों में। इसीलिए, इस सरकार के विरोधी इसे ‘कांग्रेस प्लस गाय की सरकार’ बताते हैं, तो दक्षिणपंथी आलोचक इसे ‘कांग्रेस माइनस धूर्तता और चालाकी की सरकार’ बताते हैं।

जनता लेकिन सब देख रही है। वह देख रही है कि सरकार डेढ़ साल तक के लिए कानूनों के स्थगन पर तैयार है, सुप्रीम कोर्ट ने भी रोक लगा दी है, लेकिन तीनों कृषि-कानूनों को सिवाय ‘काला कानून’ बताने के विपक्ष यह एक बार भी नहीं बता रहा कि कानूनों से समस्या क्या है और उनमें कौन से बदलाव चाहिए। जनता यह भी देख रही है कि एक ही समय, एक ही जगह, एक ही घटना को आप हिंदूवादी संगठनों की साज़िश बता रहे हैं, लेकिन वही उन्मादी भीड़ जब पुलिस पर हमला करती है, 300 पुलिसवाले जख्मी होते हैं तो आप उसे बड़ी आसानी से छिपा ले जाते हैं। जनता यह भी देखती है कि ट्रैक्टर से मरे हुए व्यक्ति को आप शहीद बताते हैं, दो घोड़ों को आप शहीद बताते हैं और फिर फेक-न्यूज़ फैलाने के चक्कर में आप पर मुकदमा भी होता है।

जनता को तो ये भी पता है कि मुकदमे से पहले अपनी गलती आप मान चुके हैं, ट्वीट डिलीट कर चुके हैं, इसलिए कायदे से इस मुकदमे को तो मेरिट के आधार पर ही खारिज कर दिया जाएगा। फिर भी आप मुकदमा लड़ने पर आमादा हैं? जबरन एक ऐसे मुकदमे का ताड़ बना रहे हैं जिसका न्‍यायाधिकार क्षेत्र तक दिल्‍ली में नहीं?

याद कीजिए, 27 जनवरी को अपनी प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में किसानों ने साफ़ कहा था कि एक आंसू गैस का गोला ट्रैक्‍टर पर आकर लगा जिससे ट्रैक्‍टर पलट गया और लड़का मारा गया। इसके बावजूद कारवां पत्रिका ने एक ‘’अज्ञात प्रत्‍यक्षदर्शी’’ का दावा कर दिया है। क्‍या पता कल को मृत लड़के के परिवार से यह बयान खोज लाया जाए कि उसे गोली ही लगी थी। अब तक दो सौ के करीब लोग दिल्‍ली की सड़कों पर ठंड में मर चुके हैं लेकिन बेशर्मी देखिए कि 26 जनवरी की घटना के बहाने आधा दर्जन प्रबुद्ध लोग नाखून कटवा कर शहीद बनने की फिराक़ में हैं!

ये वे लोग हैं जो जनता की राय को गढ़ते हैं। ऐसे में आस्‍थाएं चयनित नहीं होंगी तो और क्‍या होंगी?



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