दक्षिणावर्त: प्रधान सेवक के हाथ से क्या चीज़ें फिसल रही हैं?


आखिरकार, प्रधानसेवक श्री नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी ने मध्य-प्रदेश की किसान सभा के बहाने ही सही, देश के किसानों से सीधे, वर्चुअल माध्यम के जरिये बात की। उन्होंने ट्विटर पर भी अपने संबोधन के वीडियो डाले। इससे पहले वह गुजरात में भी किसानों के समूह से बात कर चुके थे और इस बार उनका मंत्रियों का नेटवर्क भी लगातार संवाद कर रहा है, कृषि मंत्री तोमर तो कई बार मीडिया की मार्फत अपनी बात कह चुके हैं।

अच्छी बात यह है कि इस बार सीएए-एनआरसी विरोधी हुड़दंगों के मुकाबले किसान बहुत शांत हैं और सरकार भी बहुत सजग है, साथ ही अपनी तरफ से वार्ता को उद्यत भी। एक गौर करने वाली बात यह भी है कि जिस तरह एनआरसी का दूर-दूर तक अब तक कहीं पता नहीं है और उसके नाम पर तमाम तरह के फसाद हुए, उसी तरह इस बार कृषि मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक के बार-बार आश्‍वासन देने और हाथ जोड़ने के बावजूद आंदोलन जारी है, जिसमें इधर बीच राहुल गांधी अपनी तरफ से लगातार ट्विटर पर घी डाल रहे हैं।

मजे की बात यह है कि तीन कृषि कानूनों में से एक, जिस एपीएमसी (कृषि उपज मंडी समिति) की बात हो रही है, लोकसभा चुनाव के लिए अपने घोषणापत्र में कांग्रेस उसे हटाने की बात कर चुकी है। उसी के सुर में शरद पवार से लेकर अमरिंदर सिंह और अरविंद केजरीवाल तक ने राग अलापा था, लेकिन अब अचानक ही किसानों के नाम पर यह पूरी जमात इकट्ठा होकर दिल्ली को घेर रही है। राजनीति जो न करवा दे।

क्या मान लिया जाए कि प्रधानसेवक के हाथ से चीजें फिसल रही हैं? क्या यह भी कहा जाए कि भाजपा को सत्ता में रहना नहीं आता? क्या यह भी कल्पना की जाए कि जो नरेंद्र मोदी अपने संचार के दम पर ही भाजपा को सत्ता में ले आए, जो कम्युनिकेशन के मास्टर माने जाते हैं, वही अब उस कला में छीज रहे हैं? क्या यह भी स्वीकार कर लिया जाए कि प्रधानमंत्री अब थक गए हैं, चुक गए हैं? या फिर, यह एक तथ्य है कि मोदीजी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार विरोधियों के सामने घुटने टेक चुकी है और हरेक समस्या को वक्त पर छोड़ कर उसका हल निकलने का इंतजार करती है, अपने कार्यकर्ताओं की लाश को सीढ़ी बनाकर सत्ता की कुर्सी पाने का मौका तलाशती है?


उपर्युक्त बातों के समर्थन में पिछले हफ्ते की दो-तीन बड़ी घटनाओं को लीजिए। दिल्ली में अभूतपूर्व बहुमत से जीती अरविंद केजरीवाल की सरकार बैठी है। याद रहे कि आम आदमी की पार्टी ने भी एपीएमसी को भंग कर किसानों के हित में ‘तीव्र सुधारों’ की वकालत की थी। उसी पार्टी के मुखिया और दिल्ली के सीएम जब विधानसभा में देश की सर्वोच्च सांस्थानिक इकाई संसद से पारित एक कानून की प्रतियां फाड़ते हैं, तो यह देश किस टकराव की ओर बढ़ रहा है, इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं रह जाता।

पश्चिम बंगाल में भाजपा कार्यकर्ताओं की लगातार हत्या हो रही है। केंद्र सरकार और ममता बनर्जी की सरकार के बीच भीषण टकराव की सी स्थिति है। केंद्र सरकार ने जब वहां के तीन आइपीएस अधिकारियों को हिंसा के संदर्भ में नोटिस भेजा तो ममता बनर्जी ने कड़ा प्रतिवाद किया। इसके बाद जब केंद्र सरकार ने प्रतिनियुक्ति पर उन तीनों अधिकारियों को बुलवा भेजा तो भी बंगाल की मुख्यमंत्री कड़े शब्दों और लहजों में उसका प्रतिकार कर रही हैं। इसके पहले पाठकों को याद ही होगा कि शारदा चिटफंड घोटाले में जब राज्य के एक उच्चपदस्थ अधिकारी से सीबीआइ वाले पूछताछ करने पहुंचे थे, तो ममता बनर्जी धरने पर बैठ गयी थीं।

ताज़ा ख़बर ये है कि गृहमंत्री अमित शाह आधी रात में पश्चिम बंगाल पहुंचे हैं, जहां तृणमूल कांग्रेस के कद्दावर विधायक एक के बाद एक इस्तीफा दे रहे हैं और उनके भाजपा में शामिल होने की संभावना बढ़ रही है। यह बात भाजपा के लिए भले ही बेहद मुफीद साबित हो, लेकिन देश के मुस्तकबिल और मेयार के लिए यह ठीक बात नहीं है।

कांग्रेस शासित पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह हों या आम आदमी पार्टी के केजरीवाल या तृणमूल की ममता बनर्जी, ऐसा लगता है मानो भाजपा से इतर जो भी सरकार जहां भी है वहां हरेक मर्यादा और शुचिता को तार-तार कर किया जा रहा है। मतभेद पहले भी होते थे, पहले भी केंद्र औऱ राज्य की सरकारों में टकराव होता था, लेकिन इस स्तर पर गिर कर तलवारें नहीं खींची जाती थीं।  


एक तीसरी बात सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसलों से झलकती है, हालांकि वह थोड़ा सा विषयेतर होगा, किंतु असंगत नहीं। सर्वोच्च न्यायालय जिस तरह स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार बताने से लेकर किसानों के आंदोलन तक पर टिप्पणियां कर रहा है, निर्देश दे रहा है, उससे यह कल्पना करना कतई मुश्किल नहीं है कि इस देश को वास्तव में नरेंद्र मोदी नीत सरकार नहीं चला रही है, सुप्रीम कोर्ट ही चला रहा है।

एक संसदीय व्यवस्था और लोकतंत्र के लिए यह घातक क्षण है, जहां संसद में प्रचंड बहुमत वाली सरकार बाहर बेबस सी दिखती है, जहां पूरे बहस-मुबाहिसे के बाद देश की सर्वोच्च संस्था संसद से पारित कानूनों के एक या दो महीने बीतने पर सड़कों पर विरोध होता है और कई मासूमों की जान चली जाती है। हालिया आंदोलन में भी अब तक 22 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। हर बार विरोध थोड़ा सा शांत होता है, किंतु हर बार समस्या का कोई हल निकलता नहीं दीखता।

इन सबके मूल में क्या है? कानून 2014 के पहले भी बनते थे, सरकारें पहले भी चलती थीं, पर इस स्केल और स्तर पर हरेक सरकारी बात का विरोध नहीं हुआ करता था। या हम ही अनजान थे और हम तक जानकारी नहीं पहुंचती थी (यहां हम का अर्थ आम नागरिक से लगाया जाए)। सोशल मीडिया और सूचनाओं के विस्फोट ने एक ऐसी स्थिति ला दी है, जहां ट्विटर पर ^गीता भाटी के सैंडल’ बरामद करने की गुहार लगने से लेकर सोनिया गांधी के जन्मदिन पर ‘बारबाला’ तक के ट्रेंड होने की संभावना मौजूद है। स्मार्टफोन के इस दौर में हरेक व्यक्ति एक पत्रकार है और हरेक फोन न्यूज़ चैनल। असीमित अधिकारों से लैस लोगों के पास जिम्मेदारी या कर्तव्यबोध नाम की चिड़िया का नहीं होना हालात को भीषणतर बनाता जा रहा है।

भाजपा एक सत्ताधारी पार्टी के तौर पर बहुत बुरी तरह से विफल रही है, जो अपने प्रधानमंत्री को सुरक्षा देने की जगह अधिकांशतः संकट में ही डालती है (यह अलग से एक लंबे आलेख का विषय है कि भाजपा ऐसा किस प्रकार से कर पाती है) और यह प्रधानसेवक का सौभाग्य या उनकी निजी छवि का कमाल है कि वह हरेक बार बच जाते हैं।

छह वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद आप ‘ईको-सिस्टम’ का रोना नहीं रोते रह सकते हैं। गोदी-मीडिया का व्यापक आरोप झेलने के बावजूद, कम्युनिकेशन के मास्टर होने के बाद, प्रचंड बहुमत के साथ यदि आप अपनी बात लोगों तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं, मात्र 44 सांसदों वाली पार्टी आपको बंधक बना ले रही है, तो इसका मतलब है कि आपके मंत्री और सांसद सुस्त हो गए हैं, सत्ता की मलाई चाटकर अघा गए हैं, पूस की अलसायी दुपहरी में बेफिक्र धूप में सोने के आदी हो गए हैं और आप गहरे संकट में हैं।

कुछ कीजिए, वरना आपकी सत्ता तो हिली हुई है ही, देश भी कम संकट में नहीं दिख रहा है।



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