बात बोलेगी: ‘प्रथम दृष्ट्या’ की कानूनी पुष्टि के इंतज़ार में…


‘प्रथम दृष्‍ट्या’ इतना भी निरर्थक और लाचार शब्द नहीं है कि उसे हर बार अपनी सार्थकता साबित करने के लिए कानूनी प्रक्रिया से गुज़रना ही पड़े, लेकिन इतना असहाय अवश्‍य है कि उसे पुख्ता नहीं माना जाता। यह इस पर निर्भर करता है कि जिसने किसी घटना को घटते हुए सर्वप्रथम देखा उसकी आँखें कैसी हैं? आँखें तो वैसे सभी की एक जैसी ही होती हैं। विज्ञान आँखों की संरचना और बनावट में भेद नहीं करता, लेकिन एक जैसी आँख से किसी घटना को कौन कैसे-कैसे देखता है यह बहुत सी बातों पर निर्भर करता है। यह पूरी दुनिया में एक जैसा मामला हो सकता है लेकिन हिंदुस्तान में धर्म और जाति दो ऐसे कारक हैं जिनकी बिनाह पर आँखों का नज़र में और नज़र का नजरिये में बदलना तय होता है।

लखीमपुर खीरी में थार जैसी गाड़ी के दुर्दांत उपयोग का मसला जिसने भी देखा उसने पहली बार में ही यह कह दिया था कि वह दुर्घटना नहीं बल्कि एक सोची समझी कार्रवाई थी, जिसे सुनियोजित ढंग से अंजाम दिया गया है। देश में इस वक़्त सबसे ताकतवर लोगों की आँखों ने इसी घटना को कुछ इस नज़र से देखा कि ये कार्रवाई नहीं है, इसे अंजाम भी नहीं दिया गया बल्कि सबक सिखाया गया है और इस सबक से जो सबक निकला वो ये है कि किसानों ने भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की लिंचिंग की है।

इस मामले की जांच के लिए गठित एसआइटी (विशेष जांच दल) ने अब जाकर बताया है कि यह सब पूर्वनियोजित था- ठंडे दिमाग से रची गयी एक साजिश का अंजाम था। इस दल ने अपनी रिपोर्ट में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की कथित लिंचिंग पर कुछ नहीं कहा क्योंकि जो कुठ भी हुआ वो इस घटना के बाद हुआ जो कि पूर्वनियोजित नहीं था।

जैसे एक मुस्लिम युवा अल्ताफ़ के मामले में सभी को बराबर ये लगा कि लगभग छह फुट का युवा जिसका वज़न 50 किलो से ज़्यादा रहा होगा पुलिस थाने के टॉयलेट में लगे दो फुट से भी कम ऊंचाई के नल से अपनी जैकेट के नाड़े से गले में फंदा डालकर लटक नहीं सकता और इस वजह से उसकी मौत नहीं हो सकती। यह मामला प्रथम दृष्‍ट्या ऐसे ही दिखलायी पड़ता है, लेकिन इसका अभी कानूनी जांच प्रक्रिया से गुजरना जारी है। कल ही इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले की जांच की प्रगति पर उत्तर प्रदेश सरकार से पूछा है जिसमें सरकार ने बताया है कि जांच चल रही है। कोर्ट ने भी कह दिया है कि आप तफसील से जांच कीजिए। कोर्ट ने इस प्रकरण में अगली तारीख दे दी है।

बात बोलेगी: एक सौ चालीस करोड़ की सामूहिक नियति के आर-पार एक ‘थार’

भारतीय कोर्ट सिस्टम से कोई खाली हाथ नहीं लौटता। न्याय एक गंभीर मामला है लेकिन तारीख तो कम से कम सभी को मिल जाती है। संभव है इस मामले में जांच सही दिशा में चले और यह साबित भी हो जाय कि दो फुट की ऊंचाई पर लगा एक नल छह फुट के एक इंसान को ऊर्ध्वाधर लटकाने में सक्षम है। यह निष्कर्ष इसलिए भी आसान है क्योंकि इस मामले में लिप्त पाया गया नल ऐसा-वैसा नहीं है बल्कि वह उत्तर प्रदेश पुलिस के थाने का नल है!

जैसे प्रथम दृष्ट्या ऐसा लगता है कि जय श्री राम का नारा एक राजनैतिक मिशन से निकला हुआ नारा है जिसका मकसद राम के जरिये सत्तानशीं होने का है। अब सत्तानशीं होने के बाद इस नारे का कुछ तो इस्तेमाल करना होगा चूंकि यह जिन्न सी ताक़त रखता है। इसे काम पर लगाए रखना ज़रूरी है। कहते हैं कि अगर जिन्न फ्री बैठ गया तो अपने स्वामी को ही खा जाता है। लिहाजा इसका सबसे अद्यतन उपयोग मध्य प्रदेश के गंजबासौदा में देखने को मिला। एक बारात जा रही थी, जैसे बारातें जाती हैं। कई इलाकों में हर्ष फायरिंग एक मान्यता प्राप्त रिवाज है जिसे पत्रकारों ने, पुलिस ने इसी रूप में ग्रहण कर लिया है। गंजबासौदा में हुई फायरिंग हर्ष फायरिंग नहीं थी। इस इलाके में इसका चलन प्राय: नहीं है। एक युवक अचानक से किसी बात पर भड़क गया था। उसने गालियों के स्थान पर जय श्री राम का उद्घोष किया और फायरिंग कर दी। अब तक पुष्ट खबरों के मुताबिक एक व्यक्ति की मौत इस फायरिंग में हुई है। कुछ लोग गिरफ्तार किये गए हैं। प्रथम दृष्टया यह मामला हर्ष फायरिंग का है, लेकिन वह युवक हर्षित तो नहीं था और उस इलाके में इसका चलन भी नहीं है। घटना के चश्मदीद बता रहे हैं कि युवक गुस्से में था और गालियों के अंदाज़ में जय श्री राम, जय श्री राम बके जा रहा था। इसी गुस्से और जय श्री राम की आक्रोशित रट के बीच अचानक उसने अपनी बंदूक से ताबड़तोड़ फायरिंग कर दी। इस मामले की जांच होना बाकी है। जांच हो रही हो तो भी जांच की कोई खबर आना बाकी है। 

प्रथम दृष्ट्या यह लगता है कि नरेंद्र मोदी और उनकी पूरी कैबिनेट (कैबिनेट मतलब नरेंद्र मोदी; अगर संसद में कुछ विपक्षी पार्टियों के भी सांसद न होते तो यह कहने में सुभीता होता कि नरेंद्र मोदी और भारत की संसद) उत्तर प्रदेश में डेरा डाले बैठे हैं। बैठे ही नहीं हैं, करतब भी दिखलाए जा रहे हैं। कभी क्रूज पर चढ़कर हाथ हिलाना, कभी गंगा में लाइव डुबकी लगाना, कभी रेलवे स्टेशन पर घड़ी में बज रहे रात के डेढ़ के साथ अपनी फोटो खिंचवाना, कभी आरती करते हुए कैमरे को चोर नज़रों से देख लेना, कभी यूं ही शहर में रात में घूमने निकल जाना; ऐसी एकतरफा कार्यवाहियां हिन्दू धर्म के उपेक्षित शहरों और मंदिरों के पुनरोद्धार के नाम पर हो रही हैं, लेकिन यहां बिना किसी जांच प्रक्रिया से गुजरे यह कहा जा सकता है कि ये सारे करतब उत्तर प्रदेश के आसन्न विधानसभा चुनावों के मद्देनजर ही किे जा रहे हैं। ऐसा कहने के पीछे एक ठोस तर्क या नज़रिया यह हो सकता है कि साढ़ेसाती सरकार अपने हर वादे और दावे में बुरी तरह विफल रही है और उसके पास एक ही पूंजी है और वह पूंजी राम, मंदिर, मजहब और करतबों की है जो चुनाव के समय खर्च की जाती है।

पहले के जमाने में इस तरह की पूंजी खर्च करते-करते खर्च हो जाया करती थी लेकिन अब जब चौबीसों घंटों की समर्पित मीडिया सर्वव्यापी हो गयी है तो इस तरह की पूंजी ने अपना चरित्र बदल दिया है। वह अब खर्च करते-करते घटने के बजाय बढ़ने लगी है। इस बढ़ती हुई पूंजी को लेकर प्रथम दृष्ट्या यह कहा जा सकता है कि इसमें राम, मंदिर, मजहब, और करतबों के आवरण में ठीक वहीं पूंजी काम कर रही है जिसे अर्थशास्त्र में पूंजी कहा जाता है और जिसका बुनियादी चरित्र खुद को हर समय बढ़ाते रहना है। राम नाम की पूंजी भले ही बढ़ते हुए दिखलायी दे लेकिन असल में अर्थशास्त्र वाली पूंजी ही बढ़ रही है। जब-जब इस पूंजी पर संकट आता है, राम नाम की पूंजी काम पर लगा दी जाती है। मुद्रा प्रवाह की तरह जय श्री राम का प्रवाह पूंजी के पुनरुत्पादन का एक आजमाया हुआ नुस्खा बन चुका है जो इस स्वप्नदर्शी और अतीतजीवी देश में फल-फूल रहा है।

ऐसा लगता है कि अपने तमाम अर्थों के बीच ‘प्रथम दृष्ट्या’ इस देश की आँखों, नज़रों और नजरियों के बीच झुंझलाया हुआ बैठा है पर थके हुए लेकिन जोशीले कदमों से हर रोज़ नयी-नयी घटनाओं के जरिये हमारे सार्वजनिक जीवन में चला आ रहा है। लोग इसको लेकर चल रही जाँचों की तरफ नज़रें गड़ाए बैठे हैं। हम भी। आप?



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