जिस तरह कोरोना ने देश की लचर, जर्जर और लगभग निष्प्राण स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोली है, ठीक उसी प्रकार किसान आंदोलन ने देश की निर्बल, निस्तेज और निकृष्ट सरकार की पोल खोल दी है। स्वास्थ्य सेवाएं कोरोना की वजह से नहीं बिगड़ी या बदतर हुईं, बल्कि वे पहले से ही ऐसी थीं जिन्हें कोरोना ने बस दुनिया के सामने ला दिया। ठीक उसी प्रकार सरकार किसान आंदोलन से पहले भी इतनी ही संवेदनहीन व कायराना थी, जिसे सशक्त किसान आंदोलन ने दुनिया के सामने ला दिया।
दिलचस्प ये है कि कोरोना और किसान आंदोलन पोल-खोल के इस मनोरंजन में परस्पर भागीदारी कर रहे हैं। एक दूसरे पर कोई हमले नहीं कर रहे हैं, बल्कि टीम बनाकर खेल रहे हैं। कोरोना बेचारा इस बात से त्रस्त है कि उसके रहते सरकार ने केवल ‘उसी की परवाह नहीं की’ बल्कि उसका बहाना बनाकर वो सब कुछ कर डाला जो उसके न होने पर कतई संभव था। कोरोना को शायद इस बात की ग्लानि भी अंदर-अंदर खाये जा रही है कि उसे ही ढाल बनाकर सरकार ने किसानों के पेट और पीठ में खंजर मारा है।
शायद यह भी एक बड़ी वजह है कि किसान आंदोलन में कोरोना अपने आक्रमणकारी तेवर में नहीं है, बल्कि वह किसानों के बीच रहते हुए उनसे देह की दूरी का पालन कर रहा है। बीस दिन होने को आए हैं लेकिन दिल्ली की तमाम अंतरराज्यीय सरहदों से किसानों के कोरोना संक्रामण की खबरें नहीं आयी हैं। यह सब बातें व्यंजना में हो रही हैं, शब्दश: न लिया जाए।
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स्वास्थ्य सेवाओं का हश्र जो भी है, वो जिनके दम पर भी चल रही हैं, उनका स्वास्थ्य अब ज़रूर बिगड़ने लगा है। कल दिल्ली उच्च न्यायालय के दखल के बाद दिल्ली में स्थित देश के सबसे प्रतिष्ठित और बड़े मेडिकल संस्थान के लगभग पांच हज़ार नर्सिंग स्टाफ को हड़ताल करने से रोक दिया गया। उन्हें भी कोरोना जैसे स्वास्थ्य आपातकाल का हवाला दिया गया। उनकी हड़ताल बहुत स्वाभाविक कारणों से थी कि उनको भी अपने घर-परिवार चलाने के लिए समय पर और जो उनका दाय बनता है, उतनी तनख़्वाह मिले। उच्च न्यायालय ने इस मांग पर यह नहीं कहा कि जो तुम्हारा दाय था वो तुम्हारे ऊपर हेलिकॉप्टर से पुष्पवर्षा करवाने में सरकार ने पहले ही खर्च करवा दिया था। अगर फिर हड़ताल की परिस्थिति बने तो शायद सरकार उस खर्चे का हिसाब भी बता दे।
आधुनिक चिकित्सा पद्धति कही जाने वाली एमबीबीएस की पढ़ाई कर चुके डॉक्टर अलग स्यापा काटे हुए हैं कि सरकार आखिर किस अधिकार और विवेक से आयुर्वेद की शिक्षा हासिल कर चुके लोगों को सर्जरी यानी शल्यक्रिया की अनुमति दे सकती है। आसपास कोई सुलभ शौचालय मौजूद न होने की आपात परिस्थिति में आप थोड़ा ओट लेकर सड़क पर फारिग हो सकते हैं, लेकिन भारतीयता और प्राचीनता के नाम पर सरकार ऐसे कृत्य को प्रोत्साहित तो नहीं न कर सकती है! चिकित्सा विज्ञान का ऐसा अनिष्ट होते उनसे देखा नहीं जा रहा है। वो इसलिए आंदोलित हैं। कल दिल्ली उच्च न्यायालय की कार्यवाही देखकर संभव है वो अपना इरादा बदल दें और शल्यक्रिया के सारे हुनर और अधिकार आयुर्वेद वालों के हवाले कर दें।
तन मन जन: कोरोना के बाद अब उसकी वैक्सीन का डर!
उधर वैक्सीन की नई-नई किस्में ईज़ाद हो रही हैं। अभी हुईं भी नहीं हैं। एक चरण के लिए स्वैच्छिक ढंग से अपनी जान की बाज़ी दांव पर लगा रहे नागरिक दूसरे चरण में साथ देने को तैयार नहीं हो रहे हैं। यहां कोल्ड स्टोरेज की चेन खड़ी हो रही है। मैं सोनी टीवी पर कोई डेढ़ दशक चले धारावाहिक का एसीपी प्रद्युम्न नहीं हूं वरना अपने सहयोगी ‘इंस्पेक्टर दया’ से ज़रूर कहता- ‘दया पता करो कहीं कोरोना वैक्सीन के लिए कोल्ड स्टोरेज बनाने की तैयारी बीते पांच सालों में पंजीकृत हुई अडानी की एग्रो कंपनियों के लिए भंडारण की व्यवस्था तो नहीं है’। पता नहीं दया ये पता कर पाते या नहीं, लेकिन एक अटकल है। आप भी दिमाग की बत्ती जलाइए, शायद कुछ भक्क से जल ही उठे।
जिसने पूरे प्रचार-प्रसार के साथ वैक्सीन ले भी ली, वो भी पंद्रह दिन के बाद कोरोना से संक्रमित हो गए। ताज़ा समाचार यह है कि उन्हें चंडीगढ़ पीजीआइ से मेदान्ता में शिफ्ट कर दिया गया है। ज़रा सोच कर देखो अगर यह मंत्री महोदय भाजपा के न होते और कोई लेफ्ट पार्टी का नेता स्वेच्छा से कोरोना वैक्सीन भी लगवाता और फिर देवयोग से संक्रमित भी हो जाता? यकीन जानिए, ईडी, एनआइए, सीबीआइ, चुनाव आयोग और यहां तक कि सर्वोच्च अदालत उसमें साजिश तलाश कर लेती। स्वस्थ हो जाने के बाद भी बंदा जेल ही भेजा जाता जहां वह अपने टूटे चश्मे और एक सिपर जैसी मामूली जरूरतों के लिए अदालतों में पेशी मारता। आखिर यह देश के उन्नत वर्तमान और भविष्य का मसला जो होता। विज़ साहेब को दुरुस्ती अता फरमाएं और वो फिर घरों की हड़ियाँ चेक करने के महान सांस्कृतिक आयोजन करें।
इस बीच विश्वसनीय सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि सरकार किसान आंदोलन से निपटने की रणनीति का ब्लूप्रिंट बना चुकी है और इसके लिए वह कुछ आज़माये हुए नुस्खे ही फिर से दोहराएगी। पहला नुस्खा है किसान आंदोलन में शामिल विभिन्न गुटों के बीच के विरोधाभासों को उजागर करना। कभी यह विशुद्ध कम्युनिस्ट आइडियोलॉजी के विषय होते थे। शार्पेनिंग द कोन्फ़्लिक्ट्स, सरफेसिंग द कंट्राडिकशन्स’ आदि आदि। आज भाजपा की सरकार इसे अपनी रणनीति बताकर हड़प चुकी है। गाँव-घर में अक्सर खाली हुई स्प्राइट या पेप्सी की बोतल में घासलेट भर दिया जाता है। भाजपा को यह प्रेरणा यहीं से मिली है।
दूसरा बड़ा नुस्खा है लगभग 700 से ज़्यादा बड़ी सभाएं पूरे देश में आयोजित करना और किसानों को इन कानूनों के फायदे समझाकर उनका समर्थन हासिल करना। यह एकदम लफ़्फ़ाज़ आइडिया है और यह भाजपा करती भी नहीं है। बस कहती है। सीएए के दौरान भी ऐसा ही कहा गया था, भूमि-अधिग्रहण कानून के अध्यादेश लाने के बाद भी यही कहा गया था, नोटबंदी पर भी और जीएसटी पर भी। इस बात का जवाब हालांकि सूचना के अधिकार के अंतर्गत नहीं आता है, लेकिन अन्य स्रोतों से पता किया जाना चाहिए कि क्या वाकई सरकार ने ऐसा किया? जवाब सौ प्रतिशत ‘नहीं’ में होगा। संभव है वो मीडिया के कार्यक्रमों को ही सभाओं की संख्या में गिन लेते होंगे। यह भाजपा और सरकार का आज़माया हुआ मनोवैज्ञानिक नुस्खा है और जिसमें इतनी ताकत तो है ही कि सामने वाले की आधी शक्ति का क्षरण हो जाता है।
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तीसरा नुस्खा है कि किसान आंदोलन में अराजक, असामाजिक तत्वों के होने की सही (मनोनुकूल) जानकारियां एकत्रित करना और उन्हें सामने रखकर किसान आंदोलन की साख़ कम करते हुए इस आंदोलन को पूरी तरह प्रायोजित और राजद्रोह के प्रयास के रूप में बता देना। इससे आंदोलन स्वत: टूट जाएगा। सरल शब्दों में कहें तो कृषि और कृषि कल्याण मंत्रालय से मामले को गृह मंत्रालय के अधीन ले आना।
चौथा नुस्खा जो सुझाया गया है वो है किसान नेताओं को अकेले-अकेले मिलने बुलाना। उन्हें जलेबी और समोसे खिलाना। जो जिस जाति का है उसे उसी जाति के मंत्री से मुलाक़ात करवाना और उनसे ही उनकी मांगें अपने सामने लिखवाना और उस कागज पर उनकी जाति के मंत्री के हस्ताक्षर करवा देना। वापिस आकर वो नेता मीडिया को बताये कि उसके मन में उठी तमाम अच्छी-बुरी शंकाओं का समाधान उनकी ही जाति के एक मंत्री ने कर दिया है। अब वो इन क़ानूनों का तहेदिल से समर्थन करते हैं।
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किसान आंदोलन में अगर 40 संगठन हैं तो 80 ऐसे व्यक्तियों को तलाश किया जाए जिनके पास किसी संगठन का कोई लेटरहेड हो, न हो तो तत्काल एक संगठन का नामकरण करके उनका लेटरहेड छपवा दिया जाय। टाइपिंग, प्रिंटिंग का खर्चा पार्टी मद से दिया जाय। इसके उपरांत उनकी भेंट तत्काल मंत्री या मंत्री समूह से करवायी जाय और उनकी बैठक की फोटो तत्काल मीडिया को पहुंचायी जाएं और बाद में उनके समर्थन पत्र भी किसान आंदोलन वाली केन्द्रीय फाइल में संलग्नक की तरह लगवा दिए जाएं।
पांचवां और सबसे बड़ा नुस्खा है खुद प्रधानमंत्री का बेइंतिहां अपना वाला ‘स्वैग’, जो अब तक तो असफल नहीं रहा। प्रधानमंत्री की एक बैठक कुछ किसानों से करवाओ। बेहतर हो कि वो सिख संप्रदाय से हों, कुछ महिला किसान भी हों। इस सभा का आयोजन थोड़ा अनौपचारिक सा हो, जहां प्रधानमंत्री उनसे हँस-हँस कर बतिया रहे हों। जैसे कच्छ में वे सिख किसानों से मिलकर बात करते अभी दिखे थे।
ऐसा दिखे जैसे ये किसान तो अब तक मर ही जाते अगर ये कानून ना लाये गए होते। फिर उन किसानों से मिलकर प्रधानमंत्री आदतन एक लंबा सा भाषण लगा दें। कहें कि असली किसानों से हम मिल चुके हैं। बाकी जो हैं वो नकली हैं, भड़काये हुए हैं, उकसाये हुए हैं, भ्रमित हैं, बहके हुए हैं और जानबूझकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। इनसे मोदी की सफलता देखी नहीं जाती। एक चाय वाला, एक सन्यासी, एक फकीर ब्ला ब्ला ब्ला… फिर इसी भाषण को मीडिया चलाती रहे। जैसे कच्छ वाले भाषण को चलाया जा रहा है।
अब आते हैं असल बात पर और वो ये है कि किसान आन्दोलन ने इन कुछ दिनों में यह ठोस रूप से सिद्ध कर दिया है कि यह सरकार असल में किसकी है और किसकी सेवा में तत्पर है। किसान आंदोलन के विरोधाभासों की शिनाख्त तो ये सरकार क्या ही कर पाएगी, लेकिन किसान आंदोलन ने जैसे इसके चेहरे से नकाब उठा दिया हैं। सरकार ने अपने साथ-साथ या अडानी-अंबानी जैसे धनपशुओं ने सरकार के साथ- या दोनों के एक दूसरे से मिलकर एक दूसरे की कलई खुलवा ली है। दिल्ली के सभागार ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ की भारी भरकम टर्मिनॉलोजी में बतियाते ही रह गए और किसानों ने उन सभागारों पर कान दिये बगैर भी ये समझ लिया कि असल मामला क्या है।
रिलायंस जियो के बहिष्कार के बाद शायद निकट इतिहास में यह पहला मौका है जब अंबानीज़ इस तरह बौखलाए हुए हैं, हालांकि यह बौखलाहट अच्छी है। सर्फ एक्सल कहता है कि दाग बुरे नहीं हैं। कोरोना की तरह किसान आंदोलन को इस ‘उजागर करो अभियान’ का भरपूर श्रेय दिया जाना चाहिए। बात अब आगे की है कि कैसे इन आज़माये हुए नुस्खों को धता बताते हुए ये आंदोलन निर्वस्त्र हो चुकी सरकार को शर्म हया के लोकतान्त्रिक कवच कुंडल पहना पाएगा।
बारेला आदिवासियों की भाषा बारेली में एक शब्द है ‘नाथ घालने’ जिसका मतलब होता है बैल को काबू में करना और उसे नाथनी पहनना। यह एक दुष्कर और जोखिम भरा काम है, लेकिन किसान इस काम में बहुत माहिर हैं। उम्मीद है बैल काबू में हो जाएंगे और किसान आंदोलन दो बैलों की नाथ घालने में सफल होंगे।