विश्व मानवाधिकार दिवस के मौके पर गुरुवार, 10 दिसंबर को दिल्ली के टिकरी बॉर्डर पर किसानों ने विभिन्न जेलों में बंद उन तमाम राजनैतिक कैदियों की रिहाई की मांग की जो लेखक, पत्रकार, कवि, बुद्धिजीवी और अधिवक्ता हैं। भारतीय जनता पार्टी के राज में गिरफ्तार किये गये इन लोगों में से ज्यादातर की गिरफ्तारी पर देशी और अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन पहले भी सवाल उठाते रहे हैं। इस बार किसानों ने आवाज़ उठायी तो यह उनके आंदोलन की बदनामी का सबब बन गया। सोशल मीडिया पर इन किसानों के लिए देशद्रोही, टुकड़े-टुकड़े गैंग, अर्बन नक्सल, जैसी संज्ञाओं का इस्तेमाल होने लगा। इस घटना का इस्तेमाल समूचे किसान आंदोलन को बदनाम करने में संगठित रूप से किया गया।
सच्चाई यह है कि लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की रिहाई का एजेंडा कोई छुपा हुआ नहीं था जो अचानक कल सामने आ गया। किसान यूनियनों ने सरकार को जो सात सूत्रीय मांग पत्र सौंपा था, उनमें शामिल एक मांग की तहत यह किया गया। यह बात पहले से पर्याप्त सार्वजनिक है। यहां तक कि दि इंडियन एक्सप्रेस ने प्रदर्शन से पहले एक ख़बर की थी जिसमें बताया गया था कि भारतीय किसान यूनियन (उग्राहां) मानवाधिकार दिवस के मौके पर राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए प्लेकार्ड लेकर प्रदर्शन करेगा।
यह प्रदर्शन भले ही पंजाब के 32 में से केवल एक संगठन ने किया हो, लेकिन इस मुद्दे पर किसान आंदोलन के अन्य घटकों में कोई मतभेद नहीं है। इस सन्दर्भ में हमने जब किसान संगठनों द्वारा गठित संयुक्त संघर्ष समिति से बात की, तो उन्होंने बताया कि इन विचाराधीन राजनीतिक कैदियों को रिहा करने की मांग किसान आंदोलन द्वारा सरकार को सौंपी सात सूत्रीय मांगों में शामिल है। यह मांगपत्र सरकार को पहले ही दिया जा चुका है। पंजाब के सभी 32 संगठनों ने इसे अपनी मांगों में रखा है।
कल के प्रदर्शन में किसानों की प्लेकार्ड वाली तस्वीर और वीडियो को मीडिया ने तुरंत वायरल कर किसान आन्दोलन को माओवादी, जिहादी, खालिस्तानी और टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसे नामों से जोड़ दिया। इस काम में नेता भी पीछे नहीं रहे। बीजेपी के प्रवक्ता गौरव भाटिया ने ट्वीट किया:
बीजेपी नेता मनोज तिवारी ने भी यही किया। उन्होंने कहा कि टुकड़े-टुकड़े गैंग के लोग इस आंदोलन को शाहीन बाग़ का रूप देना चाहते हैं। बीजेपी महिला मोर्चा की सोशल मीडिया प्रभारी प्रीति गांधी ने पूछा कि आखिर किसान दिल्ली दंगों के आरोपियों को क्यों छुड़वाना चाहते हैं?
नवभारत टाइम्स ने लिखा- “केंद्र सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में जारी किसान आंदोलन में देश विरोधी ताकतों की घुसपैठ का मामला दिन-ब-दिन गरमाता जा रहा है। सोशल मीडिया पर तरह-तरह के दावे किए जा रहे हैं और कहा जा रहा है कि किसान आंदोलन की आड़ में जिहादी, खालिस्तानी और टुकड़े-टुकड़े गैंग अपना अजेंडा चला रहे हैं।“
पंजाब किसान यूनियन के नेता सुखदर्शन नट ने इस संदर्भ में सवाल उठने पर फर्स्ट पोस्ट से बात करते हुए 9 दिसंबर को साफ़ शब्दों में कहा था कि, “सभी राजनीतिक कैदियों की रिहाई हमारी मांगों में से एक है.”
फर्स्ट पोस्ट से बात करते हुए नट ने कहा- “हम सरकार के पास इस ईमानदार मांग के लिए आए हैं, कि सभी बुद्धिजीवियों पर जो झूठे मामलों में आरोपी बनाए गए हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किसान या क्रांतिकारी हैं, उन्हें गलत तरीके से शामिल किया गया और जेल भेज दिया गया। इसलिए, उन मामलों में उन्हें हटा दिया जाना चाहिए और उन्हें मुक्त कर दिया जाना चाहिए।“
सवाल है कि जब कल का प्रदर्शन घोषित तौर पर किया गया, तो फिर इसमें इतनी हाय तौबा क्यों? आंदोलन को बदनाम करने की कोशिशें पहले ही दिन से जारी हैं। इससे पहले हरियाणा के कृषि मंत्री कह चुके हैं कि यह किसानों का आन्दोलन नहीं, इसके पीछे चीन, पाकिस्तान है और देश को अस्थिर करने के लिए किसानों के नाम पर यह आंदोलन किया जा रहा है।
यह सार्वजनिक है कि हर साल 10 दिसंबर को विश्व मानाधिकार दिवस के रूप में मनाया जाता है। दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद 1948 में 10 दिसंबर को संयुक्त राष्ट्र आम सभा (जनरल असेंबली) द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मानवधिकार का प्रस्ताव पास किया गया था और आधिकारिक तौर पर 1950 में इसकी घोषणा हुई थी। मानवाधिकार दिवस को ही अगर मानवाधिकार की बात करना अपराध है, तब सवाल उठता है कि जेल में बंद लेखकों, बुद्धिजीवियों के मानवाधिकार पर बात कब होगी।