ऐसे दौर में जब तस्वीरें और चीखें और आँसू और चिंताएँ और घबराहटें और बेचैनियाँ बोल रहीं हैं तब बात के पास बोलने कुछ रह नहीं जाता। लेकिन क्या तमाम मानवीय क्रियाओं से जो बोला जा रहा है वो खुद एक बात नहीं है? क्या असहाय और बेबस होते जा रहे लोगों की चिंताएँ, उनके आँसू, उनकी चीखें, बात के नए माध्यम नहीं बन रहे हैं? बात केवल लिखकर या कहकर ही तो नहीं बोली जा सकती? और भी तरीके हैं। हाँ, लिखना और बोलना सहज माध्यम रहे हैं लेकिन क्या समय ठीक उसी तरह सहज रह गया है कि बात कहने के चले आ रहे तरीकों से काम चले?
बात जब कहकर या लिखकर की जाती है तो ये आपका चयन होता है, आप बात कहने के तरीके को चुनते हैं, लेकिन जिन आंसुओं से बात कही जा रही है, जिन बेचैनियों में बात निकल रही है वो हम में से किसी ने नहीं चुना? यह बेबसी हमारा चयन नहीं था। ये निस्सहायता और निरुपायता हमारा अभीष्ट नहीं था। हमने अपनी नियति इस रूप में नहीं चुनी थी कि खुद के लिए, अपने परिजनों के लिए, दोस्तों और नातेदारों के लिए एक दवाई तक का इंतज़ाम न कर पाएं।
एक पखवाड़ा बीतने को है। अड़ोस-पड़ोस अपने-अपने घरों में कैद है और सामान्य आवाजाही के बजाय केवल एम्ब्युलेंस के सायरन सुनायी दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर एसओएस (SoS) सबसे ज़्यादा बार इस्तेमाल होने वाला शब्द बनता जा रहा है। किसी को ऑक्सीजन चाहिए, किसी को प्लाज्मा, किसी को हास्पिटल में एक अदद बिस्तर और किसी को श्मशान या कब्रिस्तान तक जाने के लिए शव वाहन, तो किसी को उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए सूखी लकड़ियां। याद नहीं पड़ता इंसान इतना को बेबस कब देखा था।
ऐसा नहीं है कि बीते साल दृश्यों की वीभत्सता में कोई कमी थी लेकिन यहां आकर वह वर्ग भेद समझ में आता है और आज शायद सब उसे ठीक से समझ रहे हैं कि सड़कों पर चलते मजदूरों की मजबूरियों को हमने कैसे देखा, समझा था। आज जब इस बदइंतजामी के आगे सब के सब बेबस हैं तब इसकी विभीषिका को महसूस कर रहे हैं।
क्या हिंदुस्तानियों की जिंदगी का कोई मोल नहीं? #indianeedsoxygen
Posted by Priyanka Gandhi Vadra on Wednesday, April 21, 2021
कोरोना का ग्राफ जिस तेज़ी से बढ़ा है और लगभग निरंकुश हुआ जा रहा है उसे देखकर हर कोई डरा हुआ है। डर की परिस्थिति में डर ही बोलता है, बात नहीं। कहना ही चाहिए कि आज की परिस्थितियाँ मूल रूप से एक डर की ही उपज हैं। हिंदुओं के ऊपर खतरे का डर, हिंदुस्तान के ऊपर पाकिस्तान का डर, सत्ता के शीर्ष पर बैठे एक अदद इंसान को बाकी सब से डर। हिंदुस्तान के व्यापक समाज ने इन तमाम तरह के छद्म डरों को इस कदर आत्मसात कर लिया कि जिसने उनके मन में ये डर पैदा किए उन्हें ही इन तमाम डरों से बचाने का जिम्मा सौंप दिया। आज शायद इस व्यापक बहुसंख्यक समाज को भी यह आभास हो रहा है कि ये तमाम डर महज़ छलावा थे।
लेकिन अगर वो पूछना ही चाहें निज़ाम से तो, वो हँसकर कह सकता है कि हम तो उस आसन्न डर और खतरे से तुम्हें बाहर निकाल रहे हैं। पलटकर आप अगर कहें भी कि लेकिन ये डर तो निराधार थे, आप हमें किस से मुक्ति दे रहे हैं, तो वो बेशर्मी के साथ कह सकता है कि ये तो आपको तब सोचना चाहिए था! क्या आपने हमें केवल इसलिए नहीं चुना था कि देश के मुसलमानों को इस कदर कंट्रोल में रखना है ताकि वो बहुसंख्यक होकर हम पर राज न करने लग जाएं? क्या आप खुद एक सरकारी मुलाज़िम होते हुए भी अपने ही सहकर्मी से ईर्ष्या का इलाज़ इस नए निज़ाम से नहीं चाहते थे? ज़रूर चाहते थे, और इस कदर चाहते थे कि भले ही मेरी नौकरी चली जाये और मेरा संस्थान बेच दिया जाये लेकिन मेरे फलां सहकर्मी को भी सबक मिलना चाहिए।
आपने क्या कभी देश के तमाम नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों के पिटने पर सुधीर चौधरी या अर्नब गोस्वामी या अंजना ओम कश्यप या रजत शर्मा की रिपोर्टिंग के मज़े नहीं लिए? शायद हां। क्या उस समय आपने उन बच्चों में खुद को या अपने बच्चों को देखने की कोशिश की? शायद नहीं। इसीलिए पिछली बार जब देशव्यापी सख्त लॉकडाउन लगा तब सड़कों पर घिसट रहे बेबस, लाचार और निस्सहाय मजदूरों में खुद को आप नहीं देख पाये।
आज देख रहे हैं। हम सब देख रहे हैं। खुद को सभी में और सभी में खुद को।
दुःख सबको माँजता है
और-
चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु
जिनको माँजता है
उन्हें यह सिखा देता है कि सबको मुक्त रखें।
ऐसा अज्ञेय ने कहा है। संभव है यह लहर बहुत जल्द बीत जाये। सभी इसकी कामना कर रहे हैं, लेकिन क्या यह हमें ये सबक दे कर जाएगी कि सभी की मुक्ति की कामना में हमारी अपनी मुक्ति निहित है?
देश में व्यापक समाज को अन्य कई बातों की तरह इस बात का गुमान भी था कि हम तो बहुसंख्यक हैं और 600 साल बाद कोई अवतार हुआ है जो हमारे लिए और केवल हमारे लिए सोचता है, ज़रूर हमारे लिए ही सब कुछ करेगा। उसने किया। आपको केवल देखने की ज़रूरत है कि उसने क्या-क्या किया? जो नहीं किया वो उसे इसलिए नहीं किया क्योंकि आपने उससे वो करने की अपेक्षा ही नहीं की थी।
उसने ऐसे समय देश में बनी वैक्सीन बाहर के देशों में बेची जब आपको उसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। उसने ठीक उस समय ऑक्सीजन जैसी बुनियादी चीज़ बाहर के अन्य देशों को बेची जिसके लिए हम सब आज त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। उसने खुद को बेचा चंद पूँजीपतियों को ताकि वो देश के हम सभी के साझा संसाधनों पर एकाधिकार हासिल कर सके। उसने जंगल बेचे, ज़मीन बेची, नदियां बेचीं, पहाड़ बेचे, समुद्र बेचे, बिजली बेची, खनिज बेचे, हमारे साझा संसाधनों से बरसों में खड़ी हो पायीं कंपनियाँ बेचीं। उसने असल में आपको बेचा। हमको बेचा। विदेशों में जाकर कहा कि हमारे यहां बहुत सस्ते में मजदूर मिलते हैं, आइए, उन्हें खरीद लीजिए। उन पर राज कीजिए।
किसानों को बेचने के लिए वो आतुर बैठा है, लेकिन किसान हमारी आपकी तरह पड़ोस के बच्चे को भी अपने बच्चे सा प्यार करते हैं, उनमें आज भी सहकार है, एकता है, इसलिए अड़े हुए हैं। आप अब भी उन्हें खालिस्तानी और आतंकवादी समझते रहिए, वो अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं। कहीं तो कोई बचा है जो खुद नहीं बिका, किसी डर में नहीं आया, किसी लालच में नहीं आया और हर चीज़ बेचे जाने की इस हवस के खिलाफ ठंड, गर्मी, बरसात में डटा हुआ है।
अब शायद हम समझें कि वो कैसे हमें बचा रहा है। ऑक्सीजन जैसी बुनियादी चीज़ जब कुछ हाथों से नियंत्रित होने लगती है तो उसकी कैसी त्राहि मचती है। सोचिए, अगर कल को (और जो इन कृषि क़ानूनों के जरिये तय है) अनाज जैसी बुनियादी चीजों पर कुछ अडानियों का कब्जा हो जाएगा, तब क्या ठीक ऐसी ही स्थिति महज़ अनाज के लिए नहीं हो जाएगी हमारी?
कोरोना की ये भयावह और प्राणघातक लहर हमारा विवेक जगा सके। हमें बता सके कि देश को भव्य मंदिरों या गगनचुंबी मूर्तियों की नहीं, बल्कि इन बुनियादी चीजों की है। देश का नाम, देश के नेता का गौरव इन बुनियादी सुविधाओं को सबकी पहुंच में बनाने से होता है।
इस लहर ने हमें अपने आसपास देखने का मौका दिया है। आप देखिए, हम सब एक नाव में सवार हैं। हम पहले भी उसी नाव में सवार थे लेकिन हम में से कुछ लोग नाव के दूसरे सिरे पर हो रहे छेद को देखकर न केवल निश्चिंत थे, बल्कि यह भी सोच रहे थे कि इस छेद से अगर पानी नाव में घुसा भी तो केवल उन्हें ही नुकसान पहुंचाएगा जिसकी तरफ ये छेद है। आप भूल गए थे कि नाव में अगर पानी घुसा तो आप भी उसी दशा को प्राप्त होंगे।
महामारियां हमें केवल बीमार नहीं करतीं, बल्कि हमें हमारी समझ और विवेक और अपने हक़-अधिकारों के लिए सजग भी बनाती हैं। महामारियां हमें बताती हैं कि हम एक-दूसरे के लिए खतरा हैं। वास्तविकता ये है कि तब भी हम एक-दूसरे के लिए ही हैं। आज जब सोशल मीडिया पर एसओएस कॉल दिखती है और उसे कोई दूर बैठा व्यक्ति किसी तीसरे दूर बैठे व्यक्ति को इस उम्मीद से भेजता है कि तत्काल मदद पहुंच सके, तो यहां कोई किसी को न जाने बगैर भी यह बताने के लिए यह सब उद्यम करता है ताकि हम एक-दूसरे को खतरा न मानें बल्कि सहयोगी मानें। यही सहयोग हमें एक समाज बनाता है।
भंवर में फंसी एक नाव में हम सब सवार हैं। खेवैया बंगाल में चुनाव प्रचार कर रहा है। नाव डगमगाती है तो हमें ही संभालना है। डूबती है तो हमें ही डूबना है। और बच निकल आती है तो भी हमें ही बचना है। क्यों न इस बार कुछ नया होकर लौटें?