आदमी कैसे कांड में बदल दिया जाता है इसका बहुत दुर्दांत उदाहरण है उत्तर प्रदेश। शहर दर शहर कोई न कोई कांड सामने आ रहा है। विकास दूबे कांड हो गया। विकास दूबे के आगे पीछे तो कई कांड हो गए। गाजियाबाद में विक्रम जोशी कांड हो गया। और अब फिर से उसी कानपुर में संजीत यादव कांड हो गया है। कांड जब बढ़ते हैं तो सरकार के लिए कर्मकांड हो जाते हैं। सो योगी आदित्यनाथ के लिए भी हो गया है। वैसे योगी आदित्यनाथ का मुख्यमंत्री बनना अपने आप में अलग से एक कांड था।
तो अब कर्मकांड से आगे क्या होगा? इस सवाल के जवाब में तो मठ का माथा घूम रहा है। और मठाधीश की बेचैनी देखने लायक है। अयोध्या में रामराज के शिलान्यास की तैयारी करें या फिर इन कांडों से निपटें? मुश्किल बस इतनी ही होती तो योगी बहुत आसानी से पार उतर गए होते, लेकिन अब मुश्किल ये खड़ी हो गई है कि विकास दूबे कांड के बाद उत्तर प्रदेश 80 के दशक में लौट गया है। इसका मतलब आगे बताएंगे लेकिन पहले समझिए कि इसकी भूमिका कैसे बन रही है।
विकास दूबे को पुलिस ने एनकाउंटर में मार तो दिया लेकिन वो मरा नहीं। उसकी आत्मा अब राजनीति में प्रवेश की कोशिश कर रही है। और आदमी से ज्यादा खतरनाक होता है आत्मा का राजनीति में प्रवेश कर जाना। जैसे राजनीति के तमाम प्रतीकों और बिंबों की आत्माएं शरीर के दिवंगत हो जाने के बाद भी बरसों-बरसों तक राजनीति में घुसी रहती हैं। तो उसी तरह विकास दूबे की आत्मा राजनीति में अपने योगदानों को फलित होते देखना चाहती है।
अपने विचारों को राजनीति में ऊंचाई देने के लिए विकास दूबे की आत्मा ने शरीर चुना है अपनी पत्नी ऋचा दूबे का। खबर है कि ऋचा दूबे ने अपने पति के अधूरे कामों को आगे ले जाने के लिए जनसेवा के काम को और आगे ले जाने का फैसला किया है। बस विकास दूबे की आत्मा को इतना तय करना है कि वो अपनी पत्नी के माध्यम से झंडा किसका उठाएगा। वैसे ऋचा दूबे ने खम तो ठोक दिया है। जरा ऋचा दूबे के इस बयान की अहमियत को समझने की कोशिश कीजिए कि पुलिस ने उसके एनकाउंटर की कई बार कोशिश की थी लेकिन वो इसलिए बचता रहा कि उसे बचाने वाले लोग भी थे।
अब सबकी सांस इसी ‘बचाने वाले लोग’ पर अटकी हुई है। साफ है कि वो जो भी लोग होंगे बहुत ताकतवर लोग होंगे। और जब विकास दूबे की आत्मा ऋचा दूबे की जुबान से बोलेगी तो उन ताकतवर लोगों के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है। ये तो आप जानते ही हैं कि ऋचा दूबे कानपुर जिला पंचायत की सदस्य हैं। उनकी एक सदस्यता पर्ची भी सोशल मीडिया में खूब वायरल है। बीस हजार रुपए की इस पर्ची को लेकर बीजेपी और समाजवादी पार्टी में जंग छिड़ गई है। ऋचा दूबे के नाम पर समाजवादी बुलेटिन की इस पर्ची के बहाने बीजेपी विकास दूबे को समाजवादी पार्टी का सदस्य बता रही है। समाजवादी पार्टी कह रही है ये तो उसकी पत्रिका की सदस्यता है जो कोई भी ले सकता है।
यही योगी आदित्यनाथ का डर भी है। कल्पना कीजिए कि खेल-खेल में अगर समाजवादी पार्टी ने ऋचा दूबे को सियासत के अखाड़े में उतार दिया तब क्या होगा? विकास दूबे की ‘वीरता’ से अभिभूत उसकी बिरादरी के बहुत सारे लोग बदले के लिए उतारू हैं। वो अन्याय और हिंसा की हर घटना के बाद जीप पलट देने की बात करते हैं बशर्ते आरोपी गैर-ब्राह्मण हो। कुछ और आगे बढ़ते हैं। 2022 के विधानसभा चुनाव की कल्पना कीजिए। ऋचा दूबे के प्रचार में उतरने की कल्पना कीजिए। और ऋचा दूबे के योगी आदित्यनाथ के खिलाफ गोरखपुर में प्रचार की कल्पना कीजिए।
अब 80 के दशक का जातीय संघर्ष याद कीजिए। गोरखपुर में सियासत के दो ही केंद्र थे। हाता और मठ। हाता मतलब हरिशंकर तिवारी। और मठ मतलब योगी आदित्यनाथ और इसके पहले उनके गुरु। यह लड़ाई राजपूत बनाम ब्राह्मण की लड़ाई थी। वीर बहादुर सिंह ने हरिशंकर तिवारी के वर्चस्व को तोड़ने की बहुत कोशिश की लेकिन नाकाम रहे। वीरेंद्र प्रताप शाही ने भी अपने समय में हाता को कड़ी चुनौती दी लेकिन उस चुनौती को अंजाम तक नहीं ले जा सके। ब्राह्मणों और ठाकुरों के वर्चस्व की इस लड़ाई में लाशें गिरीं, फसाद हुए और गोरखपुर शहर का माहौल खराब हुआ लेकिन हरिशंकर तिवारी का हाता ब्राह्मणों के लिए श्रद्धा का केंद्र बना रहा। उसी तरह ठाकुर मठ की शरण में पृथ्वीराज चव्हाण की वीरता की खोज करते रहे।
22 अप्रैल 2017 को सब बदल गया। योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बने हुए केवल 32 दिन हुए थे। यूपी पुलिस की गाड़ियां धड़धड़ाती हुई हाता की तरफ मुड़ने लगती हैं। हरिशंकर तिवारी के विधायक बेटे विनयशंकर तिवारी एक साथ कई फोनों से अलग-अलग नंबर लगाते हैं लेकिन पुलिस धड़धड़ाती हुई चौखट पर चढ़ जाती है। 28 बरस बाद हाता में पुलिस घुसी थी। यह खबर किसी ब्राह्मण की ब्राह्मण राजनीति पर योगी आदित्यनाथ की ऐसी चोट थी जिससे ब्राह्मणों की बिरादरी तिलमिलाकर रह गई थी। सरकार ने ‘कानून सबके लिए बराबर’ का जुमला उछालकर सारे सवालों को पुलिस की लौटती हुई गाड़ियों के पहियों के नीचे डाल दिया था।
उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण ठगे जाने के भाव से गुजर रहा है। वो कभी भी योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाए जाने को लेकर सहज नहीं था। दिनेश शर्मा को उपमुख्यमंत्री बनाना इसी की भरपाई की कोशिश की थी लेकिन विकास दूबे के एनकाउंटर के बाद ब्राह्मणों के मन में घाव हो गया है। उसे लगता है कि योगी आदित्यनाथ के ब्राह्मण बनाम राजपूत की लड़ाई में राजपूतों का पलड़ा भारी हो रहा है। जरा सोचिए, अगर विकास दूबे की फोटो लेकर उसकी बीवी इंसाफ के तौर पर वोट मांगने योगी आदित्यनाथ के खिलाफ उतर जाए तो?
बीजेपी तो अभी कह रही है कि विकास दूबे समाजवादी पार्टी का आदमी था, लेकिन ऋचा दूबे जब ये कहेगी कि उसका पति को किन-किन लोगों की सरपरस्ती में बड़ा हुआ, कितने नेताओं, मंत्रियों और अफसरों को उसने फायदा पहुंचाया और उसे कैसे हर बार बचाया गया, तो बीजेपी क्या जवाब देगी? अब जरा दूसरी तरफ से सोचिए। अगर अखिलेश यादव या मायावती ने ब्राह्मणों के साथ अन्याय का विमर्श खड़ा कर दिया और ऋचा दूबे को इसका चेहरा बना दिया तो बीजेपी क्या करेगी? हरिशंकर तिवारी का हाता खत्म नहीं हुआ है। हाते खत्म होते भी नहीं हैं। खड़े होते चले जाते हैं। हवा बदलने की देर होती है। एक बार सोचकर देखिए- ऋचा दूबे ने ये कह दिया कि गाजियाबाद के पत्रकार विक्रम जोशी को पुलिस ने इसलिए तवज्जो नहीं दी क्योंकि वो ब्राह्मण थे, तो सियासत की सूरत क्या बनेगी?
आप कह सकते हैं कि यह असंभव है, लेकिन जरा 2017 का चुनाव याद कर लीजिए। दयाशंकर सिंह का भाषण भी याद कर लीजिए। चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के बाद बीजेपी ने पार्टी से निलंबित कर दिया था। माफी भी मांगी थी और सफाई भी दी थी, लेकिन इसके बाद उसने बड़ा खेल खेला। स्वाति सिंह को मैदान में उतार दिया और उसे महिला सम्मान का चेहरा बना दिया। अगर स्वाति सिंह महिला सम्मान का चेहरा बन सकती हैं तो ऋचा दूबे क्यों नहीं? सोचने में थोड़ा खराब लगता है लेकिन ऐसा तो है नहीं कि राजनीति में खराब बातें नहीं होती हैं। योगी आदित्यनाथ को भीतर ही भीतर ये खौफ खाये जा रहा है कि ऋचा दूबे ने खराब बातों को उगलना शुरु कर दिया तो हाता का पता बदलते कितनी देर लगेगी?