20/9/20: “अख़बार नहीं, आंदोलन” करने वाले एक संपादक की मौत का दिन


12 अगस्त 2018 को हिंदी पत्रकारिता के इतिहास के विशेषज्ञ विजय दत्त श्रीधर ने लिखा: “डॉ. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण के विचारों पर हरिवंश चलते हैं। सदन का कामकाज सँभालते ही हरिवंश ने प्रमाणित किया कि विचारों से वे समझौता नहीं कर सकते। पिछड़े वर्ग से संबंधित अशासकीय विधेयक को प्रस्तुत करने वाले सदस्य की मतदान की माँग उपसभापति ने मंजूर कर ली। विपक्ष को तसल्ली हुई कि वाकई निष्पक्ष उपसभापति मिला।”

लगभग दो वर्ष बीत चुके हैं। आज 20 सितम्बर 2020 है।

आज जब कृषि विधेयक पर ध्वनि मत से मतदान हो रहा था तो हरिवंश जी की निगाहें बिल के पन्ने पर थींं। आज एक जो अजब सी बात हुई वह यह थी कि मतदान कराते वक्त उन्होंने सदन की ओर आँख उठाकर नहीं देखा कि किसने बिल के समर्थन में हाँ कहा और किसने नहीं?

दरअसल, यह ऐसे ही नहीं हुआ। जब आप अपने मूल्यों के खिलाफ जाते हैं तब आप आँख में आँख मिलाकर बोलने का साहस खो देते हैं। मुझे विश्वास है आज राज्यसभा की कार्रवाई के दौरान हरिवंश जी की आत्मा ने उनको जरूर धिक्कारा होगा।

हरिवंश जी ने आज जिस तरह से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मंदिर में बैठकर देश की, संविधान की, लोकतांत्रिक परम्पराओं की धज्जियाँ उड़ायी हैं, उससे उन्होंने एक झटके में अपने सारे मूल्य, सारे आदर्श और अपनी छवि को धूल धूसरित कर लिया है। यह बात अंतिम तौर पर मान ली जानी चाहिए कि न केवल बतौर सम्पादक, बल्कि अब उपसभापति के तौर पर वो सिर्फ और सिर्फ सम्प्रदायवादी,अवसरवादी ताकतों के साथ खड़े होने वाले बिना जनसरोकारों वाले व्यक्ति रहे हैं। उन्होंने लम्बे समय तक जनता को, अपने प्रशंसकों को भरमाया है।

मत भूलिएगा कि मौजूदा कृषि बिल का सर्वाधिक ख़़मियाजा बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य भुगतेंगे जहांं पर कृषि मजदूरों की संख्या भी बहुत ज्यादा है, वहींं ज्यादातर किसान सीमांत खेती करते हैं। हरिवंश जी की कर्मभूमि भी बिहार झारखंड रही है। मुझे नहीं लगता है कि आज सदन में उन्होंने जब कृषि बिल पर वोट डिवीज़न के बजाय ध्वनिमत से वोट डलवाया, उन्हें बिहार-झारखंड के किसानों के बेबस चेहरे याद रहे होंंगे कि नहीं, जिनका उदाहरण वो बार-बार देते हैं।

आज लोकतंत्र के लिए काला दिन तो है ही, आज एक बेहतरीन पत्रकार भी हमने खो दिया है- अब जो है, वो केवल एक नेता है।


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