बढ़ा है लूट का कारोबार, ऐ ज़ुल्म! आ मुझे मार : दुनु रॉय की एक कविता


ऐ ज़ुल्म मुझे मार, कई-कई बार
गैस से बहा आंसू ज़ारो कतार,
लहू से रंग दे अपनी तलवार 
चीर दे योनी फोड़ ये कपार 
ऐ ज़ुल्म आ मुझे मार

कर दे देह लौह सलाख़ों के पीछे
दबा दे गर्दन जब्र घुटनों के नीचे 
खींच ले ज़ुबान, आँखें कर दे पार 
पेशी के सैलाब में नय्या दे उतार
ऐ ज़ुल्म आ मुझे मार

चौराहा, मैदान पूरा नगर बंद 
सर्द रात में रियाया नज़रबंद 
ख़त्म रोज़गार,और ख़त्म व्यापार 
बढ़ा सिर्फ है लूट का कारोबार 
ऐ ज़ुल्म आ मुझे मार

ना लिखना होगा, ना पढ़ना होगा 
ना सड़कों पर मुट्ठी का बंधना होगा 
ना हंसी होगी, ना सुख का इज़हार
ना मुहब्बत, ना आपस में सरोकार 
ऐ ज़ुल्म आ मुझे मार

बिगाड़ मेरी सूरत, तेरी शक्ल की तरह 
निचोड़ मेरा दिमाग, तेरी अक्ल की तरह 
सबको बना ग़ुलाम, सब बने अंधकार 
ऊँचे हों और ऊँचे, तू जिनका चौकीदार 
ऐ ज़ुल्म आ मुझे मार

सड़ जाऊं जेलों में, पर बू मेरी आएगी 
मर जाऊं ढेरों में, ख़ाक उड़के छाएगी 
लब कट जाएँ, बनेंगे लफ़्ज़ों के मज़ार 
इंसानियत की रूह चूसेगी तेरा अहंकार 
ऐ ज़ुल्म आ मुझे मार

हँसना फ़र्ज़ है मेरा, गाना मेरा फ़ितूर
सपना धर्म है मेरा, नाचना मेरा सुरूर 
कैसे रोके मुझे सोचकर तू बेक़रार
दर्द से फूटे सर तेरा, यही मेरा इंतज़ार
ऐ ज़ुल्म आ मुझे मार

तू मारेगा किसे, तू खुद घायल है 
खामोश करेगा जिसे, वो तेरा सायल है 
सीना काटेगा, फूटेगा तेरी मौत का अंगार 
लाश में जान नहीं पर गले में तेरी हार 
ऐ ज़ुल्म आ मुझे मार,ऐ ज़ुल्म आ मुझे मार

कवर तस्वीर: सेल्फ-डिस्ट्रक्शन, करीना डो; स्रोत: https://www.saatchiart.com/


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