डॉ. रामविलास शर्मा और भारत का इतिहास


आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ. रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक के रूप में स्थापित हुए हैं जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर किसी कृति का मूल्यांकन करते हैं। उनकी आलोचना प्रक्रिया में केवल साहित्य ही नहीं होता बल्कि वे समाज, अर्थ, राजनीति, इतिहास को एक साथ लेकर साहित्य का मूल्यांकन करते हैं। अन्य आलोचकों की तरह उन्होंने किसी रचनाकार का मूल्यांकन केवल लेखकीय कौशल को जाँचने के लिए नहीं किया बल्कि उनके मूल्यांकन की कसौटी यह रही है कि उस रचनाकार ने अपने समय के साथ कितना न्याय किया है।

रामविलास जी की विश्वदृष्टि और आलोचना पद्धति मार्क्सवादी द्वंद्ववाद से विकसित हुई है। वे हिंदी के मार्क्सवादी-लोकवादी आलोचना के सबसे सशक्त हस्ताक्षर हैं। कविता हो या उपन्यास वे जन-जीवन के यथार्थ चित्रण को पसन्द करते हैं।

डॉ. शर्मा के लेखन से गुजरने पर यह बराबर अहसास होता है कि उनमें एक तरलता है; उस पर ‘अकादमिक’ लेखन का दबाव नहीं है। वह स्वीकार भी करते हैं कि जनता को शिक्षित (जागृत) करना ज्यादा जरूरी है। रामविलास जी कहते रहे- “मेरे लिए लेखन अपने राजनीतिक दायित्वों का निर्वहन भी है।” इसलिए उनका लिए लेखन सोद्देश्य है। वे हिंदी के विशाल पाठक वर्ग को राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से जागृत करना चाहते थे और इस कार्य मे साहित्य को भी अहम मानते थे और साहित्यकारों से ऐसी अपेक्षा रखते थे।

इतिहास की समस्याओं से जूझना मानो उनकी पहली प्रतिज्ञा हो। वे भारतीय इतिहास की हर समस्या का निदान खोजने में जुटे रहे। उन्होंने जब यह कहा कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं, तब इसका विरोध हुआ था। उन्होंने कहा कि आर्य पश्चिम एशिया या किसी दूसरे स्थान से भारत में नहीं आए हैं, बल्कि वे भारत से पश्चिम एशिया की ओर गए हैं। वे लिखते हैं – ‘‘दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व बड़े-बड़े जन अभियानों की सहस्त्राब्दी है।‘’

इसी दौरान भारतीय आर्यों के दल इराक से लेकर तुर्की तक फैल जाते हैं। वे अपनी भाषा और संस्कृति की छाप सर्वत्र छोड़ते जाते हैं। पूँजीवादी इतिहासकारों ने उल्टी गंगा बहाई है। जो युग आर्यों के बहिर्गमन का है, उसे वे भारत में उनके प्रवेश का युग कहते हैं। इसके साथ ही वे यह प्रयास करते हैं कि पश्चिम एशिया के वर्तमान निवासियों की आँखों से उनकी प्राचीन संस्कृति का वह पक्ष ओझल रहे, जिसका संबंध भारत से है। सबसे पहले स्वयं भारतवासियों को यह संबंध समझना है, फिर उसे अपने पड़ोसियों को समझाना है।

भुखमरी, अशिक्षा, अंधविश्‍वास और नए-नए रोग फैलाने वाली वर्तमान समाज व्यवस्था को बदलना है। इसके लिए भारत और उसके पड़ोसियों का सम्मिलित प्रयास आवश्‍यक है। यह प्रयास जब भी हो, यह अनिवार्य है कि तब पड़ोसियों से हमारे वर्तमान संबंध बदलेंगे और उनके बदलने के साथ वे और हम अपने पुराने संबंधों को नए सिरे से पहचानेंगे। अतीत का वैज्ञानिक, वस्तुपरक विवेचन वर्तमान समाज के पुनर्गठन के प्रश्‍न से जुड़ा हुआ है।’’ (पश्चिम एशिया और ऋग्‍वेद पृष्ठ 20)

भारतीय संस्कृति की पश्चिम एशिया और यूरोप में व्यापकता पर जो शोधपरक कार्य रामविलास जी ने किया है, इस कार्य में उन्होंने नृतत्वशास्त्र, इतिहास, भाषाशास्त्र का सहारा लिया है। शब्दों की संरचना और उनकी उत्पत्ति का विश्‍लेषण कर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आर्यों की भाषा का गहरा प्रभाव यूरोप और पश्चिम एशिया की भाषाओं पर है।

वे लिखते हैं:

सन्‌ 1786 में ग्रीक, लैटिन और संस्कृत के विद्वान विलियम जोंस ने कहा था, ‘ग्रीक की अपेक्षा संस्कृत अधिक पूर्ण है। लेटिन की अपेक्षा अधिक समृद्ध है और दोनों में किसी की भी अपेक्षा अधिक सुचारु रूप से परिष्कृत है।’ पर दोनों से क्रियामूलों और व्याकरण रूपों में उसका इतना गहरा संबंध है, जितना अकस्मात उत्पन्न नहीं हो सकता। यह संबंध सचमुच ही इतना सुस्पष्ट है कि कोई भी भाषाशास्त्री इन तीनों की परीक्षा करने पर यह विश्‍वास किए बिना नहीं रह सकता कि वे एक ही स्रोत से जन्मे हैं। जो स्रोत शायद अब विद्यमान नहीं है। इसके बाद एक स्रोत भाषा की शाखाओं के रूप में जर्मन, स्लाव, केल्त आदि भाषा मुद्राओं को मिलाकर एक विशाल इंडो यूरोपियन परिवार की धारणा प्रस्तुत की गई। 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान ने भारी प्रगति की है। अनेक नई-पुरानी भाषाओं के अपने विकास तथा पारस्परिक संबंधों की जानकारी के अलावा बहुत से देशों के प्राचीन इतिहास के बारे में जो धारणाएँ प्रचलित हैं, वे इसी ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की देन हैं। आरंभ में यूरोप के विद्वान मानते थे कि उनकी भाषाओं को जन्म देने वाली स्रोत भाषा का गहरा संबंध भारत से है। यह मान्यता मार्क्स के एक भारत संबंधी लेख में भी है।

अँग्रेजों के प्रभुत्व से भारतीय जनता की मुक्ति की कामना करते हुए उन्होंने 1833 में लिखा था, ‘‘हम निश्‍चयपूर्वक, न्यूनाधिक सुदूर अवधि में उस महान और दिलचस्प देश को पुनर्जीवित होते देखने की आशा कर सकते हैं, जहाँ के निवासी राजकुमार साल्तिकोव (रूसी लेखक) के शब्दों में इटैलियन लोगों से अधिक चतुर और कुशल हैं, जिनकी अधीनता भी एक शांत गरिमा से संतुलित रहती है, जिन्होंने अपने सहज आलस्य के बावजूद अँग्रेज अफसरों को अपनी वीरता से चकित कर दिया है, जिनका देश हमारी भाषाओं, हमारे धर्मों का उद्गम है और जहाँ प्राचीन जर्मन का स्वरूप जाति में, प्राचीन यूनान का स्वरूप ब्राह्मण में प्रतिबिंबित है।’’ (पश्चिम एशिया और ऋग्‍वेद पृष्ठ 21)

डॉ॰ रामविलास शर्मा मार्क्सवादी दृष्टि से भारतीय संदर्भों का मूल्यांकन करते हैं, लेकिन वे इन मूल्यों पर स्वयं तो गौरव करते ही हैं, साथ ही अपने पाठकों को निरंतर बताते हैं कि भाषा और साहित्य तथा चिंतन की दृष्टि से भारत अत्यंत प्राचीन राष्ट्र है। वे अँग्रेजों द्वारा लिखवाए गए भारतीय इतिहास को एक षड्यंत्र मानते हैं।

उनका कहना है कि यदि भारत के इतिहास का सही-सही मूल्यांकन करना है तो हमें अपने प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना होगा। अँग्रेजों ने जान-बूझकर भारतीय इतिहास को नष्ट किया है। ऐसा करके ही वे इस महान राष्ट्र पर राज कर सकते थे। भारत में व्याप्त जाति, धर्म के अलगाव का जितना गहरा प्रकटीकरण अँग्रेजों के आने के बाद होता है, उतना गहरा प्रभाव पहले के इतिहास में मौजूद नहीं है। समाज को बाँटकर ही अँग्रेज इस महान राष्ट्र पर शासन कर सकते थे और उन्होंने वही किया भी है। सर्वप्रथम नवजागरण शब्द का प्रयोग इनके द्वारा ही 1977 में लिखी गयी पुस्तक “महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण” में हुआ।

जब रामविलास जी भारतीय सभ्यता की देन को रेखांकित करते हैं तो उनका दृष्टिकोण सम्प्रदायवादियों से निर्णायक रूप से भिन्न होता है। साम्प्रदायिक इतिहास दृष्टि कहती है भारत प्राचीनकाल से एक जातीय (नस्ल), एक भाषायी, एकधर्मी रहा है। रामविलास जी निष्कर्ष निकालते हैं भारत प्राचीन काल से ही बहुभाषी, बहुजातीय, बहुधर्मी रहा है। अपनी भाषा विज्ञान सम्बन्धी विवेचन में उन्होंने किशोरीदास वाजपेयी की इस मान्यता को आगे बढ़ाया कि‍ हिंदी सहित अन्य देशी भाषाएं संस्कृत की पुत्री भाषाएं नहीं हैं, अपितु प्राचीनकाल से ही गण समाजों के दौर में भी विभिन्न गणों की अलग-अलग भाषाएं थी, जिनमें परस्पर अन्तःक्रिया और लेन-देन का सम्बन्ध रहा है। अब यह बात सर्वमान्य है कि ‘आर्य’ एक भाषायी समूह है न कि कोई ‘नस्ल’, बावजूद इसके इस शब्द का गलत प्रयोग किया जाता रहा है। इस क्रम में वे दिखाते हैं भारत सदैव भाषायी तत्वों का आयातक देश नहीं रहा है यहां से भाषायी तत्वों का निर्यात भी होता रहा है। इसी तरह दर्शन में भी यदि पश्चिम ने पूर्व को प्रभावित किया तो पूर्व ने भी पश्चिम को प्रभावित किया, इस संदर्भ में रामविलास जी प्राचीन यूनानी दर्शन में तत्कालीन भारतीय दर्शन का प्रभाव दिखाते हैं। रामविलास जी के चिंतन के बहुत से आयाम हैं। उनका समग्र मूल्यांकन होना अभी बाकी है।



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