स्मृतिशेष: लगता है जैसे हिमालय की कोई चट्टान टूट कर गंगा में समा गई हो!


छह फुट लंबे सुंदरलाल बहुगुणा जी को एक लेख में समेटना काफी कठिन है। उनके पर्यावरण को समर्पित बहुआयामी व्यक्तित्व और कार्यों को समेटना तो नामुमकिन ही है। वैसे बहुगुणा जी के बारे में औपचारिक जानकारी तो गूगल पर कोई भी सर्च करके निकाल सकता है। मुझे लगता है कि मैं उनके बारे में वह बातें लिखूं जो एक कार्यकर्ता द्वारा उनके साथ काम करने में अनुभव से मैंने देखी और समझी हैं।

मेरा परिचय बहुगुणा जी से उनको दिये गये सरकारी, गैर-सरकारी व बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों, पद्मश्री या राइट लाइवलीहुड पुरस्कार आदि से नहीं है। मुझे तो सुंदरलालजी के रूप में सफेद खादी की पहाड़ी पोशाक पहने, लंबी दाढ़ी वाला वह व्यक्ति याद आता है जो मेरे कमरे में अपनी चमड़े की जूती बाहर उतार कर आये और अत्यंत नम्रता से कहने लगे कि क्या आप मेरी बनियान की मरम्मत कर देंगे। मैं गांधी हिंदुस्तानी साहित्य सभा, दिल्ली में वीणा हांडा जी के पास अवैतनिक गांधी कार्यकर्ता के रूप में रहता था। भाई जी से वहां पर इसी तरह मेरी पहली अचंभित करने वाली यह मुलाकात थी। ये 1987 की बात होगी।

वह दिल्ली में राजघाट के पास काकासाहेब कालेलकर की इस संस्था में अपने शिष्य श्री हंसमुख व्यास जी के पास आकर रुका करते थे। पीठ पर बड़ा सा पिट्ठू लादे बहुगुणा जी सुबह-सुबह आ जाया करते और सुबह 7:00 बजे आश्रम की प्रार्थना में शामिल होते थे।

बहुत कम बोलने वाले, मगर खूब लिखने वाले भाई जी ने मुझे पहले अपने लेख अखबारों में पहुंचाने, अपने कुर्तों की मरम्मत करने के लिए चुना था। धीरे-धीरे उनके लेख पढ़ते, थोड़ी बहुत बातचीत होते मैं टिहरी बांध विरोधी आंदोलन से जुड़ गया। उन्होंने कहा दिल्ली में चरखा चलाते हो पर्यावरण बचाने के लिए और वहां पूरी गंगा व हिमालय नष्ट हो रहा है। ना कोई बड़ा भाषण ना कोई लंबी चौड़ी बातें। बस ऐसे ही उन्होंने बांधा।

गंगा पर उस समय प्रस्तावित टिहरी बांध के खिलाफ उनके पहले उपवास के दौरान दिल्ली में मैं और लोगों के साथ प्रचार कार्य उठाता गया। उनके साथ का यह बड़ा अनुभव रहा कि हर निर्णय वे खुद लेते थे और उस निर्णय पर अंत तक दिखते थे। अपने इरादे के पूरे पक्के और मजबूत। बिना इस बात की परवाह किये कि उनके साथ कोई है या नहीं। 

टिहरी बांध के खिलाफ अपने उपवासों में वे गंगा तट पर साधना में रहते थे। गंगा तट पर पूजा- अर्चना व दिन भर व्यवस्थित दिनचर्या रहती थी। यदि कोई आता तो वह लिखकर बात करते थे। शाम के समय वे अपना मौन एक घंटे के लिए तोड़ते थे। उस समय सबके साथ प्रार्थना होती थी। स्वर्गीय घनश्याम दास रतूड़ी जो कि प्रसिद्ध जनकवि थे और चिपको आंदोलन में भी उनके साथ ही रहे, उनकी लिखी मां गंगा की आरती सब लोग गाते थे। बहुगुणाजी के उपवास साधनामय और अध्यात्मिक होते थे। जब सारे दरवाजे बंद हों तो सामने वाले का अंतःकरण और चेतना जगाने के लिए उपवास एक साधन होता है। यह ईश्वर की शरण में जाने जैसा है।

वह कहते थे कि मैं अपना काम कर रहा हूं, आप अपना काम कीजिए। उस जमाने में जब साधारण फोन तुरंत संचार का एकमात्र माध्यम होता था, खबरें बहुत मुश्किल से बाहर आ पाती थी। बहुगुणाजी समाचार एजेंसी यूएनआइ के स्ट्रिंगर थे। नब्‍बे के दशक के उतरार्द्ध में फैक्स का जमाना शुरू हो चुका था। आंदोलन की खबरें बहुगुणाजी एक स्ट्रिंगर के नाते लिख करके फैक्स किया करते थे।

नब्‍बे के दशक में बहुगुणाजी ने सभी राजनीतिक दलों के वरिष्ठ नेताओं को मिलकर गंगा के बारे में बताया था। अंतरराष्ट्रीय बैठकों में जाने वाले सुंदरलालजी का पिट्ठू हमेशा किताबों से भरा रहता था। गंगाजल भी होता था। वे अक्सर प्रोजेक्टर के माध्यम से हिमालय और गंगा की स्थिति लोगों को बताते थे। वे किसी भी छोटी या बड़ी सभा में सरलता से चले जाते थे।

सभी सरकारों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बहुगुणाजी को बदनाम करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। जैसा कि प्रायः चलन ही है, सही बात का उत्तर न देकर प्रश्न उठाने वाली व्यक्ति को ही बदनाम करना, सभी आंदोलनकारियों को ये ही देखना होता है।

मगर तीस साल पहले और आज की स्थिति में बहुत अंतर है। देश के किस अखबार में कब, क्या छपा, उसकी जानकारी मिलने तक बहुत देर हो चुकी होती थी। बहुगुणाजी ने कभी भी किसी आरोप का उत्तर नहीं दिया। वे विश्वास करते थे कि हम अपना सही काम करते जाएं। आरोप-प्रत्यारोप और इस तरह की झूठी जवाबदेही में अपना समय न खराब करें।

मुझे गांधी जी की वह घटना याद आती है जब किसी ने उनको बहुत गंदी भाषा में पत्र लिख करके भेजा। गांधीजी ने उसमें लगे पिन को निकाल कर रखा और बाकी कागज कूड़े में फेंक दिया। उन्होंने कहा कि मैंने काम की चीज निकाल ली।

विमला जी और सुंदरलाल जी

लगभग 25 साल पहले की बात है, बहुगुणाजी के पास हाथ की घड़ी वाले ढेर सारी काली पट्टियां थीं। मुझे दिखाकर वे बोले कि हमारे पहाड़ में लोग गरीब हैं, यह धो करके उनको दूंगा तो बहुत काम आएगा। मितव्ययिता और सादगी उन्होंने जीवन भर निभायी। उनके खाने-पीने में हमेशा यही कोशिश होती थी कि वे ऐसे ही अनाज खाएं जो कम पानी में पैदा हों। मैंने उनको चावल खाते हुए नहीं देखा। पहाड़ में होने वाले पारंपरिक अनाज जैसे झंगोरा व कोदा ही उनके मुख्य भोजन होते थे। संयमित, सादगीपूर्ण कठोर जीवन, लंबे उपवासों ने उनका शरीर बहुत बीमारियों से ग्रसित कर दिया था। उनसे कुछ ही वर्ष छोटी उनकी आंदोलनकारी पत्नी विमला बहुगुणा जी और वे अंत तक सादगी का जीवन ही जीते रहे।

पर्यावरण पर काम करने वाली बहुत सारे संगठन और संस्थाएं अभी मौजूद हैं, मगर मैं उस व्यक्ति के कुछ अंतरंग क्षणों और बातों को लिख रहा हूं जो लगभग 70 वर्ष पहले उत्तराखंड के एक सुदूर गांव में विनोबा भावे के निर्देश पर एक सर्वोदय कार्यकर्ता के नाते जाकर ग्रामीणों की सेवा करने बैठ गए थे। साल भर लोगों के खेतों में काम करते थे और गांव वाले ही उनको बदले में कुछ अनाज दिया करते थे। पर्यावरण का काम आज सरकारी नीतियों से टक्कर लेने वाला, कठिन तो है मगर 70 वर्ष पहले गांधी के समग्र विचार के साथ एक पहाड़ी गांव में बाहरी दुनिया से बहुत दूर होकर बैठना बहुत चुनौतीपूर्ण था।

उनके विचार और कामों में पर्यावरण एक अटूट हिस्सा रहा। तभी वे चिपको आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभा पाए और “गंगा को अविरल बहने दो गंगा को निर्मल रहने दो” जैसा महत्वपूर्ण नीतिगत नारा दे पाए और अपना जीवन उसके लिए समर्पित कर गए। उनकी पत्नी विमला बहुगुणा जो गांधीजी की शिष्या सरला बहन के अल्मोड़ा, उत्तराखंड स्थित लक्ष्मी कौसानी आश्रम में रहती थीं। उन्होंने अपना पूरा जीवन सुंदरलाल बहुगुणा को संभालने संवारने में लगाया। कांग्रेस के संपर्क में रहे बहुगुणाजी के साथ उन्होंने विवाह इसी शर्त पर किया था कि वह राजनीति छोड़कर एक सामाजिक कार्यकर्ता का जीवन बिताएंगे।

बहुगुणाजी ने अपनी एक किताब में जिक्र किया कि 1932 में जब गांधी जी से बढ़ती आबादी को देखते हुए काका साहेब कालेलकर ने खेती का भविष्य पूछा तो उन्होंने वृक्ष खेती की बात कही थी। बहुगुणा जी ने ऐसे तमाम पर्यावरण संबंधी प्रश्नों के उत्तर महान लोगों में से खोज कर निकाले। संसार के अनेक वृक्षप्रेमी और पर्यावरण पर काम करने वाले लोगों को भारतीय जनमानस से भी परिचित कराया। जैसे ऑस्ट्रेलिया के रिचर्ड बोर्ब बेकर, जिन्हें वृक्ष मानव भी कहा जाता है। ऐसी विभूतियों को बहुगुणा जी ने हमारे जैसे कार्यकर्ताओं के सामने आदर्श के रूप में रखा। गंगा-हिमालय की बात को देश से लेकर संसार भर तक उन्होंने ही उस समय सामने रखा था।

बहुगुणाजी को उस पर्यावरण आंदोलन का जनक भी कह सकते हैं जो किसी सरकारी या गैर-सरकारी प्रोजेक्ट के आधार पर नहीं था, जो पहाड़ के लोगों के कठिन जीवन और व्यथा के साथ जुड़ा था। क्या ही अच्छा हो कि सरकार इस हिमालय पुरुष की गंगा के प्रति की गई जीवनपर्यंत सेवा को ध्यान में रखते हुए “गंगा को अविरल-निर्मल” करने की सच्ची राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ सामने आये। मात्र उनके नाम पर कोई दिन घोषित करना या उनका स्मारक बना देना ही उनके प्रति श्रद्धांजलि नहीं होगा।

उनसे आखिरी बार मैं 2019 की गर्मियों में मिल पाया था। देहरादून में बेटी के मकान में पति-पत्नी दोनों रहते रहे हैं क्योंकि डॉक्टर दामाद हैं। यह बहुत बड़ी सुविधा होती है। तब विदा के समय उन्होंने कहा था कि विमल भाई, उम्र गुजरने के बाद हमारे जैसे लोग जब कुछ नहीं कर पाते तब कोई मिलने आता है तो बहुत अच्छा लगता है।

अबकी लॉकडाउन खुलेगा तो वहां जाऊंगा जरूर, मगर जिसको मेरा आना अच्छा लगता था वह वहां नहीं होगा। ऐसा लगता है कि हिमालय की कोई चट्टान टूट कर गंगा में समा गई हो!


विमल भाई माटू जन संगठन और जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (NAPM) से सम्बद्ध हैं


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