वापस लौटने के लिए गांव ही न बचे तो?


दिल्ली में लगने वाले एक सप्ताह के लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही दिल्ली से वापस लौटने के लिए आनंद विहार और कौशांबी बस अड्डे पर भारी भीड़ देखने को मिली। यह कोई पहली बार नहीं हो रहा था। इसके पहले पिछले साल भी हम ऐसा ही दृश्य देख चुके हैं। कोरोनावायरस ने इस व्यवस्था में प्रवासियों की समस्या को उसके पूरे वीभत्स रूप में, उसकी पूरी निर्ममता को उजागर करके रख दिया है। प्रवासी श्रमिकों के श्रम पर टिकी हुई अर्थव्यवस्था और विकास उनको इतना भी आश्वासन नहीं दे सकते कि काम न मिलने की दशा में भी उन्हें कुछ दिनों के लिए अपना पेट भरने को भोजन मिल जाएगा।

वहीं गांवों में जहां अवसरों की कमी होने और रोजगार न होने की समस्या के कारण ही वे वहां से शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हुए थे वहीं उन्हें वापस जाना पड़ रहा है। शायद, गांव में उन्हें यह आश्वस्ति है कि गांव में उन्हें पेट भरने को अन्न मिल जाएगा और जीवन के लिए अनिवार्य जरूरतें पूरी हो जायेंगी- भले ही कुछ समय के लिए ही सही।

यह व्यवस्था अनिवार्य रूप से गांव के शोषण पर टिकी हुई है। यह इस तरह ऐसे कितने दिनों तक चल पाएगी? गांव का शोषण, बदहाली और उपेक्षा यूं ही बदस्तूर जारी रहा तो क्या वह दिन दूर है जब हम दिल्ली, मुंबई के प्रवासी बन कर जीवन बिताने को मजबूर लोग वापस गांव की ओर लौटना चाहें और कहीं कोई गांव ही ना बचा हो तो?

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी गांव विकास के केंद्र में नहीं रहे लेकिन नब्बे के दशक में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण ने हमारे देश की अर्थव्यवस्था को वर्ल्ड बैंक, विश्व व्यापार संगठन और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अधीन ला दिया। इन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की भेदभावपरक नीतियां अमेरिका एवं अन्य प्रमुख यूरोपीय देशों के साम्राज्यवादी हितों को पूरा करने के लिए रही हैं। बदले हुए समय में साम्राज्यवादी देशों के लिए यह जरूरी नहीं रहा कि वह प्रत्यक्ष रूप से किसी देश को अपना उपनिवेश बनाए। नीतियों के स्तर पर ही उनके हितों को प्रभावित करके अपने पक्ष में नीतियां बनाई जायें इसके लिए इन संस्थाओं का गठन हुआ।

डॉ. राममनोहर लोहिया ने आंतरिक उपनिवेशवाद का सिद्धांत दिया था जिसके अनुसार पूंजीवादी विकास और साम्राज्यवाद साथ साथ चलते हैं। तीसरी दुनिया के देश जिनमें एशियाई, अफ्रीकी देशों को गिना जाता है उन्हें प्रमुख यूरोपीय देशों एवं अमेरिका की तरह अन्य देशों को अपना उपनिवेश बना कर औद्योगिकरण एवं आर्थिक प्रगति करने का अवसर नहीं मिल पाया जिससे इन देशों में अपने ही देश के विभिन्न हिस्सों की कीमत पर कुछ समृद्धि के केंद्र विकसित हुए हैं और बाकी का हिस्सा विपन्न एवं आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ है। आर्थिक प्रगति की भेदभावपूर्ण नीतियों को दूर किए बिना पलायन की समस्या को और प्रवासियों की तकलीफों को भी दूर नहीं किया जा सकता है।


अंकेश मद्धेशिया इलाहाबाद स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


About अंकेश मद्धेशिया

View all posts by अंकेश मद्धेशिया →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *