मुझे नए कठघरों से परहेज़ नहीं: ओम थानवी


27 मई के जनसत्‍ता में छपे ‘अनन्‍तर’ की प्रतिक्रिया में मेरी लिखी टिप्‍पणी पर आज सुबह अखबार के संपादक ओम थानवी ने दो पत्र भेजे। दरअसल हुआ ये कि रात में ओम जी ने एक मेल किया जिसमें आशुतोष भारद्वाज वाले लेख पर जनसत्‍ता से साभार लिखने को उन्‍होंने कहा, हालांकि स्रोत का उल्‍लेख मेरी टिप्‍पणी में था। इसी क्रम में मैंने रात में जब यह बदलाव किया और उनसे इसकी पुष्टि की, तो उन्‍हें लगे हाथ सूचित भी कर दिया कि ‘अनन्‍तर’ पर अपनी प्रतिक्रिया मैंने लिख दी है, उसे पढ़ लें। सुबह एक बार फिर मैंने जब लिंक सर्कुलेट किया, तो ओम जी को दोबारा भेज दिया। इसलिए उनके दो पत्र।



ओम थानवी

28 मई, सुबह 9:59 बजे

प्रिय अभिषेक जी,

अच्छा किया जो आपने सूचित किया. अभी पढ़ा. आपकी भाषा में प्रवाह रवां है, यह देख कर अच्छा लगा. हालांकि जानता हूँ कि आपने इसके लिए सूचना नहीं दी है.

आवाजाही प्रकरण हमारे तईं बहुत हुआ. ज़्यादा कहूँगा तो उनकी कलई ज़्यादा खुलेगी, जिन्हें आप देवता मान बैठे हैं.

हाँ, आपने अंत में लिखा है: “चाहें तो ओम थानवी इसे छापने का श्रेय ले सकते हैं और हम उन्‍हें धन्‍यवाद भी देंगे इतना सच्‍चा लेख छापने के लिए, लेकिन हम क्‍यों भूल जाएं कि आशुतोष उनके स्‍टाफर हैं। क्‍या कोई बाहर का व्‍यक्ति लिख कर भेजता तब भी वे ऐसे ही छापते? यह सवाल काल्‍पनिक है, लेकिन मौजूं है। कीचड़ भी अपना, कमल भी अपना। यही है ओम थानवी का लोकतांत्रिक सपना। अनन्‍तर का लोकतंतर ऐसा ही हो सकता है।

प्रसंगवश, आशुतोष जनसत्ता के स्टाफर नहीं हैं. इंडियन एक्सप्रेस के हैं. एक रिपोर्टर के नाते वे एक्सप्रेस के संपादक के प्रति जवाबदेह हैं, ख़बरें एक्सप्रेस के लिए ही लिखते हैं. सहयोगी प्रकाशन होने के नाते हम चाहें तो एक्सप्रेस की कोई भी सामग्री ले सकते हैं. ख़बरें जब-तब लेते भी हैं. लेख नहीं लेते. न रविवार आदि के फीचर. यह लेख आशुतोष जी ने जनसत्ता के लिए ही लिखा था, स्वतंत्र लेखक के नाते. उन्होंने अपनी मरजी से भेजा, हमने अपनी मरजी से छापा. इंडियन एक्सप्रेस प्रकाशन समूह में एक्सप्रेस, जनसत्ता के अलावा फिनेंशिअल एक्सप्रेस, लोकसत्ता, स्क्रीन जैसे अन्य पत्र भी हैं. उनके स्टाफर हमारे लिए नहीं उन अख़बारों के लिए लिखते हैं जिनके स्टाफर वे हैं. आशुतोष की तरह वे लेख या फीचर या स्तम्भ तक जनसत्ता में लिख सकते हैं, लेकिन हम उनका लिखा छापने के लिए बाध्य नहीं हैं, उन पर एक स्वतंत्र लेखक की तरह ही विचार होगा. यह एक्सप्रेस समूह का आतंरिक लोकतंत्र है. सोचा कम से कम इस तथ्य की जानकारी आपको दे दूँ.   

आपका,
ओम थानवी

28 मई, सुबह 10:55 बजे

प्रिय अभिषेक जी,

आपकी टिप्पणी आपके पहले सन्देश पर ही मैं पढ़ चुका था. आपने फिर उसका लिंक भेजा है. मैंने पहले भी लिखा कि यह प्रकरण हमारे लिए बहुत हो चुका.

टिप्पणी में अपना लिंक देकर आपने लिखा है : ”यहां ओम थानवी की लोकतांत्रिकता और सच्‍चाई का झीना परदा चर्र-चर्र कर के फट जा रहा है। उन्‍होंने कबाड़खाना का एक लिंक देकर खुद को बरी किया था, ‘जनपथ’ का एक और लिंक उन्‍हें कठघरे में खड़ा कर चुका है।

मुझे नए कटघरों से परहेज नहीं, पर ज़रा तथ्यों को ज़रूर देख लें. वर्मा जी का “पत्र” और उसके नीचे मंगलेश जी का स्पष्टीकरण आपने (और आप से मोहल्ला लाइव में)  २ मई को शाया हुआ. मेरा स्तम्भ २९ मई को छप चुका था (२० को नहीं, इस तरह डेढ़ महीने को एक महीना कर लें!), तो यह नया कटघरा किस आधार पर?

आपके लिंक पर २ मई की तारीख अब भी पड़ी है. मंगलेश जी का कहना है मैंने उनका यह स्पष्टीकरण अपने स्तम्भ (२९ अप्रेल) में क्यों नहीं छापा. आप ही बताएं, आपके २ मई  के लिंक से (जिसमें अनंतर का ज़िक्र तक है) इसे जनसत्ता में २९ अप्रेल को कैसे छापा जा सकता था?

आपका,
ओम थानवी

दूसरे पत्र में ओम जी ने जो तारीखों वाली बात कही है, वह सही है। मुझसे तारीखों को लेकर गफ़लत हुई, इसे मैं मान रहा हूं। लेकिन ओम जी ने सबसे छोटे कठघरे का जि़क्र ही क्‍यों किया जबकि इससे कहीं बड़े कठघरे मौजूद हैं? तारीखों से जुड़ी एक गफ़लत के बावजूद आपत्तियां अपनी जगह अब भी कायम हैं – अभिषेक श्रीवास्‍तव

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