अभिषेक श्रीवास्तव
दैनिक जनसत्ता में बीते 15 सितंबर को प्रकाशित रविवारी आवरण कथा ”नियमगिरि के नियम” की यह मूल प्रति है जिसे अखबार को भेजा गया था। मूल लेख में शीर्षक और आखिरी पैरा में उद्धृत देवी प्रसाद मिश्र की पंक्तियां आपस में जुड़ते हैं और एक अर्थ सम्प्रेषण करते हैं, लेकिन प्रकाशित लेख में सुविधा के हिसाब से दोनों को ही उड़ा दिया गया है। बाकी लेख पूरा का पूरा साबुत छपा है, यही सुखद है। मूल लेख नीचे पढ़ें और जनसत्ता में प्रकाशित लेख यहां पढ़ें।
नियमगिरि की तलहटी में बसे राजुलगुडा गांव में वह हमारी पहली सुबह थी। गांव से कुछ दूरी पर पानी से लबालब इकलौते तालाब से नहा धोकर हम वापस आए और सुखाने के लिए आदतन गीले कपड़े अपने मेजबान की झोपड़ी की छत पर डालने लगे। अचानक सोमनाथ दौड़ते हुए हमारे पास आए और अपनी उडि़या में हमें ऐसा करने से मना करने लगे। वे हमें तेज़ी से दूसरी झोपड़ी के पास लेकर गए और वहां टंगी हुई अलगनी पर कपड़े सुखाने का इशारा किया। कुछ खास समझने-बूझने की कोशिश किए बिना हमने वैसा ही किया। फिर हमने हिंदी में उनसे मना करने का कारण पूछा, तो वे जमीन की ओर इशारा करते हुए अपनी भाषा में कुछ बोले जिसमें एक ही शब्द समझ आया, ”धरनी पेनु…।” मैं और दिल्ली के मेरे हमनाम साथी ने इसका आशय अपने दुभाषिए नौजवान साथी अंगद से पूछा, तो उसने साफ किया कि ये लोग धरती और उससे जुड़ी चीज़ों पर कपड़े नहीं सुखाते हैं। धरती इनके लिए ”धरनी मां” है जो इनके सर्वोच्च ईश नियम राजा से भी ऊंचा स्थान रखती है।
जिस धार्मिकता और आस्था की कहानियां हम नियमगिरि के कोंध आदिवासियों के संदर्भ में लगातार पढ़ते-सुनते आ रहे थे, उसके एक नमूने से यह हमारा पहला सीधा साक्षात्कार था। हम शहरों में रहने वाले लोगों को मीडिया और स्वयंसेवी संस्थाओं की रिपोर्टों में बार-बार यही बताया गया है कि बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता की ओड़ीशा में बॉक्साइट खनन परियोजना से डोंगरिया, कुटिया और झरनिया कोंध आदिवासियों की धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचेगी। हमें बताया गया है कि नियमगिरि पर्वत इनका नियम राजा है, नियम देवता है। वे उसकी पूजा करते हैं। और सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने अप्रैल के फैसले में सरकार को पता लगाने को कहा है कि वेदांता की खनन परियोजना से कहीं इन आदिवासियों के धार्मिक अधिकार, सामुदायिक अधिकार और निजी अधिकार तो नहीं छिनने जा रहे। इसमें धार्मिक अधिकार का मसला जाने किस प्रक्रिया में केंद्रीय बन गया और बाकी अधिकारों पर चर्चा की गुंजाइश कम कर दी गई। क्या ये अधिकार एक दूसरे से वाकई अविच्छिन्न हैं? आदिवासियों के संदर्भ में आजीविका और जीवन के आदिम स्रोतों पर उनकी आस्था का सवाल अहम बनाकर क्या हम इस सवाल को ”डाइल्यूट” नहीं कर रहे?
आदिवासी विमर्श में आजकल लोग मरहूम प्रो. रामदयाल मुंडा को कम याद करते हैं। प्रो. मुंडा ने रतनसिंह मानकी के साथ मिलकर एक किताब लिखी थी ”आदि धरम”। राजकमल प्रकाशन से इस पुस्तक को छपे हुए महज़ चार साल हुए हैं। भारतीय आदिवासियों की धार्मिक आस्थाओं पर केंद्रित साढ़े चार सौ पन्ने की इस मोटी किताब को आप पलटते जाइए, धार्मिक अनुष्ठानों के नाम कुछ यूं मिलेंगे: ‘भेलवापूजन’, ‘ग्राम पूजन’, ‘फागुआ आखेट’, ‘सरहुल पूजन’, ‘प्रथम बोआई’, ‘प्रथम रोपनी’, ‘प्रथम मिसाई’, ‘बड़पहाड़ी पूजन’, आदि। इनके अलावा दैनिक जीवन से जुड़े जन्म, ब्याह और मृत्यु के कुछ संस्कार भी पुस्तक में वर्णित हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि तकरीबन सभी धार्मिक अनुष्ठान प्रकृति से जुड़े हैं जिनमें जल, जंगल, ज़मीन, पहाड़, फसल, फल-फूल, अनिवार्यत: उपादान बन कर आते हैं। कहीं कोई बाहरी ईश्वर नहीं, कोई कृत्रिम संरचना नहीं। जो जीवन का हिस्सा है, वही धर्म है। प्रो. मुंडा इसे ”सृष्टि के अन्य अवदानों के साथ पारस्परिक सम्पोषण संबंध” का नाम देते हैं। इसी सम्पोषण से आचार, व्यवहार, परिधान, सामाजिकता, सामूहिकता की ठोस संरचनाएं बनती हैं। कहीं कुछ भी निराधार और अकारण नहीं होता, जैसे झोपड़ी पर कपड़े न सुखाने वाली बात!
आप नियमगिरि के ऊपर चढ़ते जाइए और जंगलों में भीतर घुसते जाइए, झोपड़ी पर कपड़े न सुखाने वाली हिदायत भी धीरे-धीरे अप्रासंगिक होती चली जाती है। क्यों? वहां सृष्टि से जुड़े बिल्कुल बुनियादी मूल्य बचे रहे जाते हैं। ढकोसले खत्म होते जाते हैं। मसलन, डोंगरिया कोंध के गांव में कुछ भी अकेले खाना वहां के हिसाब से कुरीति है। हमने ऊपर के पांच गांवों में देसी मुर्गा खाने की इच्छा जताई, लेकिन वह पूरी नहीं हो सकी। यहां मुर्गे, बकरे, सब प्राणी तब तक पूज्य हैं जब तक साल में एक बार इनकी बलि नहीं दे दी जाती। वह प्रकृति को प्रकृति की भेंट होती है। इसमें विशिष्ट से विशिष्ट मेहमान के लिए कहीं किसी विचलन की गुंजाइश नहीं है। यह मनुष्य, सभी जीव-जंतुओं, सभी वनस्पतियों, पहाड़ों, जंगलों का एक ऐसा अघोषित समाजवाद है जहां हर इकाई दूसरी इकाई पर निर्भर है। यही ”सिम्बियॉसिस” यानी सम्पोषण है।
इस सम्पोषण का एक व्यावहारिक पक्ष देखिए। गांव की सारी कुंवारी लड़कियां एक कोठरी में सोती हैं। गांव के सारे कुंवारे लड़के भी एक कोठरी में सोते हैं। अधिकांश परिवार एकल हैं या फिर विस्तारित हैं। कुंवारी लड़कियों को किसी बाहरी प्रशिक्षण की ज़रूरत नहीं। ठीक वैसे ही कुंवारे लड़के भी एक-दूसरे से ही जीवन की रीति सीख रहे हैं। जिसे हम अंग्रेज़ी में आधुनिक शहरी पदावली में ”पीयर लेसन” कहते हैं, वह यहां आदिम रूप में बहुत पहले से मौजूद है। ”पीयर लेसन” है, तो ”पीयर प्रेशर” भी काम करता है। यह समूह की नैतिकता को अक्षुण्ण रखता है। मैंने डोंगरियों के बातुड़ी गांव में रहने वाले नौजवान मंटू से दुभाषिए के माध्यम से एक बात पूछी थी कि क्या यहां अपराध होते हैं। उसे मेरा सवाल समझ में नहीं आया। फिर मैंने स्पष्ट किया, ”चोरी, छिनैती, बलात्कार, लूटपाट?” वह मुस्करा दिया। उसके लिए ये चारों शब्द अबूझ थे। यहां किसी तरह के शुद्धतावाद का आग्रह किए बगैर यह जानना दिलचस्प है कि किसी भी घर में ताला क्यों नहीं पाया जाता। यह बात जितनी सहजता से कही और सुनी जा सकती है, उतनी ही ज्यादा असहज करने वाली है। बात यह नहीं कि किसी के पास किसी दूसरे के मुकाबले ज्यादा संग्रह नहीं या अमानती चीज़ें नहीं हैं। असल बात यह है कि सारी अमानतों का स्रोत एक ही जंगल, धरनी और पहाड़ है और वह सबको कमोबेश उसकी मेहनत के हिसाब से देता है। यहां किसी के लिए कुछ भी कम नहीं पड़ता।
अद्भुत बात यह है कि यह एक ऐसा समाजवाद है जहां आपको जीवन की सबसे बुनियादी जरूरत यानी अपना जीवनसाथी चुनने की पूरी छूट है। मसलन, किसी गांव में उत्सव होता है। दूसरे गांव के नौजवान आते हैं। नाच-गाना होता है। महुआ-मांडिया पी जाती है। भात-दालमा-बांस की सब्ज़ी खाई जाती है। दूसरे गांव से आए किसी लड़के की नज़र अगर मेजबान गांव की किसी लड़की पर टिक गई तो वह उस पर अपना गमछा उछाल देता है। यह गमछा उसे एक कमरे में ले जाता है और वहीं जीवन भर के रिश्ते की नींव पड़ जाती है। इस प्रथा में कोई दगा नहीं करता क्योंकि यह कुदरत की दी हुई नेमतों में से अपने चुनाव के प्रति सम्मान और ईमानदारी बरतने का सवाल है। इस सम्मान और ईमानदारी को एक सूत की साड़ी में से झांकती आदिवासी देह नहीं डिगा सकती, यह बात हमारे देश में कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था तक ने स्वीकार किया है।
याद हो तो आज से करीब ढाई साल पहले 5 जनवरी 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने एक आपराधिक अपील को खारिज करते हुए तारीखी बयान दिया था, ”इन लोगों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को उलट देने का वक्त आ चुका है।” संदर्भ संविधान में मान्य भील आदिवासी समुदाय का था और घटना थी 1994 की, जिसमें एक गर्भवती भील महिला नंदाबाई को उसके गांव के ”ताकतवर समुदाय” के तीन पुरुषों और एक महिला ने निर्वस्त्र कर के मारा-पीटा था और गांव भर में घुमाया था। मामला बंबई उच्च न्यायालय में गया और वहां नाकामी हाथ लगने पर दोषी सुप्रीम कोर्ट आए। यहां सुनवाई के दौरान अपीलकर्ताओं ने एक दलील दी थी कि ”भील समुदाय के सदस्य फटे हुए कपड़े पहनते हैं क्योंकि उनके पास पहनने को ठीक कपड़े नहीं होते।” इस दलील के माध्यम से कोर्ट को यह समझाने की कोशिश की गई थी कि भील महिला को सार्वजनिक तौर पर निर्वस्त्र करना कोई गंभीर अपराध नहीं है, यह तब अपराध होता जब किसी दूसरे समुदाय की महिला के साथ ऐसा किया जाता। कोर्ट ने इस तर्क को सिरे से खारिज करते हुए कहा, ”आधुनिक भारत में आदिवासियों को तुच्छ या अवमानवीय मानने की मानसिकता पूरी तरह अस्वीकार्य है।” इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सत्रहवीं सदी में भील आदिवासियों के हुए सुनियोजित सफाए का जि़क्र करते हुए नंदाबाई की घटना को आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक और सामाजिक अन्याय के परिप्रेक्ष्य में देखा था।
यह संयोग है कि नियमगिरि के डोंगरिया कोंध आदिवासियों को जो भी तात्कालिक कामयाबी मिली है, वह एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की ही देन है। आखिर ऐसा क्यों होता है कि हर बार आदिवासी और ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर रहे समुदायों को न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है? जानकारी का अभाव होना एक अलग बात है, लेकिन लोकतंत्र की सूचित, सुविज्ञ और सुस्थापित संस्थाओं में वह ”मानसिकता” कहां से आती है जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी? आदिवासियों के संदर्भ में चलने वाले सनातन विमर्श के भीतर जो ”विकास” वाली धारा है, जो आदिवासी को शिक्षित करने, संपन्न करने और सूचित करने पर ज़ोर देती है, क्या उसका यह आग्रह एक समाज को सपाट-समरूप बनाने की ओर लक्षित नहीं है? आखिर हर इंसान को हर दूसरे इंसान की तरह होना क्यों ज़रूरी हो, जबकि मुख्यधारा के दूसरे छोर से वैसी मांग ही न उठ रही हो?
जंगल में हमारा साथी अंगद कहता है, ”हम लोग शिक्षा और सड़क के खिलाफ हैं क्योंकि इससे आदिवासी भ्रष्ट होता है।” ‘भ्रष्ट’ का मतलब आपको उन गांवों में ज्यादा समझ आएगा जहां से शहर या कस्बे तक राह जाती है या जहां किसी आदिवासी घर में ही सही स्कूल के नाम पर उडि़या बोलने वाला एक मास्टर आता है। बातुड़ी में सिर्फ एक नौजवान है जो हिंदी बोलता-समझता है, केसरपाड़ी में तीन हैं और सुदूरतम जरपा में कोई नहीं। बिल्कुल सीधा हिसाब। यह सड़क और हिंदी का रिश्ता है। बातुड़ी में मास्टर आता है, तो उसने वहां की बच्चियों की नाक से तीन नथ पहनना छुड़वा दिया है। औरतें यहां साड़ी पहन रही हैं। एक, सिंदूर भी लगाती है।
इस ‘भ्रष्टता’ की भयावहता देखनी हो तो 26 अगस्त का जनसत्ता पलट लें। खबर है कि देश में 50 साल के भीतर 250 भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं। भाषाविद गणेश देवी के भाषा संस्थान द्वारा करीब सौ साल बाद किए गए 35000 पन्नों में कैद भारतीय भाषा सर्वे की यह रिपोर्ट पांच सितंबर को शिक्षक दिवस पर जारी होनी है। इस सर्वे में उन भाषाओं को भी शामिल किया गया है जिनके बोलने वालों की संख्या दस हज़ार से कम है और जिनकी अपनी कोई लिपि नहीं है। माना जाना चाहिए कि डोंगरिया कोंध की भाषा ‘कुई’ भी इसमें शामिल होगी जिसे बोलने वाले आठ से दस हज़ार के बीच आदिवासी नियमगिरि पहाड़ों में रहते हैं। देवी के मुताबिक भाषाएं अलग-अलग वजहों से बड़ी तेजी से मर रही हैं। ये अलग-अलग वजहें क्या हैं, समझना मुश्किल नहीं है। जब एक इंसान मरेगा, तो उसकी भाषा को बोलने वाला एक प्राणी कम होगा। जो पहले से ही बेहद सीमित संख्या में हैं और मुख्यधारा के साथ जिनका अनुकूलन नहीं हुआ है, उनके समुदाय में एक मौत कहीं ज्यादा बड़ी मौत होती है। प्रजनन का कुदरती नियम ऐसे समाजों में भाषा और उससे जुड़ी संरचनाओं को बचाने के काम नहीं आता।
जीते जी भले हम उस भाषा को ना जान पाएं, लेकिन कभी-कभार ऐसी भाषाएं अपनी मौत के बाद बोलने लगती हैं। अंदमान की दस बड़ी भाषाओं में रही ‘बो’ को बोलने वाली इकलौती और आखिरी महिला बोआ सीनियर जब 2010 की शुरुआत में गुज़री, तो यह महज एक मनुष्य और एक भाषा की मौत नहीं थी। यह 65,000 साल पुरानी इंसानी परंपरा, सभ्यता, उसकी विश्वदृष्टि और सामूहिक अभिव्यक्ति की मौत थी। जिस देश में रोज़ाना हज़ारों लोग सड़क हादसों में, लाखों इलाज के अभाव में और इतने ही कुदरती आपदाओं अनावश्यक मारे जाते हों, वहां दस हज़ार डोंगरिया कोंध की कीमत कुछ भी नहीं। सवाल किसी कंपनी की परियोजना का है ही नहीं। बुनियादी सवाल प्रकृति और मनुष्य के सनातन रिश्ते से उपजी सामाजिक, धार्मिक, सामुदायिक, भाषायी और निजी संरचनाओं का है जो एक झटके में सिर्फ इसलिए हमेशा के लिए विलुप्त हो सकती हैं क्योंकि हम अपनी सामाजिक ”लोकेशन” से इन्हें व्याख्यायित करने में जुटे हैं।
बहरहाल, नियमगिरि से लौट आने के बाद मेरे एक फेसबुक स्टेटस पर किसी ने तंज़ किया था कि लौट क्यों आए, वहीं रह जाते। घर लौटने के लिए होता है, यह बात दुहराने के लिहाज़ से बहुत घिस चुकी है। ”निज़ामुद्दीन” शीर्षक से लिखी कविता में देवी प्रसाद मिश्र की आखिरी ख्वाहिश से मैं कहीं ज्यादा मुतमईन हूं:
”…अब घर लौटा जाए
निज़ामुद्दीन के साथ।
फ़रीद के साथ। नींद के साथ।
बियाबान में गूंजती हारमोनियम की
आवाज़ों जैसी नागरिकता की पुकारों के साथ।
गुहारों के साथ ।
आवाज़ों जैसी नागरिकता की पुकारों के साथ।
गुहारों के साथ ।
घर लौटा जाए
और घर छोड़ा जाए
जिसके लिए मैंने मनौती मांगी है कि
वह आदिवास में बदल जाए और मेरा बेटा
संथालों के मेले में खो जाए।”
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