नांदेड़ से लौटती पंजाबी लड़की के लिए



ये 18 अप्रैल सन 2013 की तपती दोपहर है
और मैं नांदेड़ से चली उस ट्रेन के स्‍लीपर डिब्‍बे में बैठा हूं
जिसकी पहली से लेकर आखिरी बोगी तक
चौड़े प्रिंट वाले बिरंगे सूट पहने
अधेड़ उम्र की पंजाबी औरतें अपनी बेढब
लेकिन ठोस चितकबरी देह से
अवसाद उगल रही हैं।
पंजाबी औरतें डरावनी होती हैं
इस ट्रेन में चढ़ने से पहले मैं ऐसा ही सोचता था
सिर पर कफन की शक्‍ल में बांधे दुपट्टा
कमर से लटकता कृपाण
औसतन पांच किलो के पर्स
ट्रेन के गलियारों को तकरीबन छेक लेती उनकी विशाल काया
हाथों में दमकता कड़ा
और आंखों में…
हां, आंखों पर मैं ठहर जाता हूं।
किसी सुलगते इतिहास की जि़ंदा राख हैं आंखें
पंजाबी औरतों की… नहीं?
कि जैसे जला दी गई हो कोई फसल ऐन आंखों के सामने
और ठोस काली जमीन में गड़ गई हों पुतलियां… कुछ ऐसा?
या फिर, एक तारीख के इंतज़ार में मत्‍था टेकते-टेकते अमृतसर से नांदेड़ तक
पानी ही न बचा हो…
… हां, पानी से याद आया।
पंजाबी औरतों की आंख
आंख न हुई गोया नांदेड़ के किसी ऊसर खेत में खुदी कोई बावली
जिसमें झांक कर पिछले चार घंटे से मैं हिलता पानी खोज रहा हूं।  
14 अप्रैल सन 2013 को मराठवाड़ा से आती एक पंजाबी औरत
औरत नहीं, अकाल है
जहां पानी मर चुका है, और
जिसमें कभी दमकने वाला आकाश आज गुम है। 
देखते हुए इन्‍हें-
-जबकि बार-बार घूम जाते हैं विधवा कॉलोनी के कुछ परिचित चेहरे
त्रिलोकपुरी से तिलक नगर तक
-जबकि बार-बार याद आता है मुझे सुच्‍चा सिंह
और उसकी रोटी के लिए चूल्‍हा फूंकती नवेली बीवी
(शायद ऐसी ही किसी तपती दोपहर)
-जबकि बार-बार हिलता है किसी अदालत का दरवाज़ा
जिसके बाहर खड़ी औरतों के हाथों में कड़े के अलावा सिर्फ प्‍लेकार्ड है
-जबकि बार-बार दे दी जाती है तारीख
और किन्‍हीं दो तारीखों के बीच लखविंदर कौर कर आती है तीर्थ…  
सोचता हूं-
3 नवंबर 1984 के बाद से
कैसे जी रहे होंगे कुछ पति मौत से सर्द बंद कमरों के भीतर
अपनी-अपनी बेवाओं के साथ?
ये सवाल हो सकता है फितूर
संवेदना का अतिरेक
अटकलबाज़ी भी
या फिर गलत लीक
कुछ भी हो, लेकिन आंखें
झूठ नहीं कहतीं।
पंजाब का तीर्थ अगर नांदेड़ में हो सकता है
तो पंजाब की औरत भी हो सकती है मराठवाड़ा
यह ट्रेन हो सकती है कडकडडूमा की अदालत
अप्रैल हो सकता है नवंबर
और 2013 हो सकता है 1984
क्‍या फर्क पड़ता है इस सब से
वास्‍तव में
जब ब्‍याहता औरत को देख कर अवसाद पनपता हो?  
नांदेड़ से पंजाब को चली इस ट्रेन में
मुझे चिंता उनकी नहीं
वास्‍तव में, उनकी कतई नहीं है।
इस अवसाद से भरे वक्‍त में मेरा दिल
उस जवान और खूबसूरत लड़की के लिए धड़क रहा है
पीछे की बर्थ पर लेटे-लेटे जिसकी देह
अपनी मां बनने को बेताब है
मुझे डर है
क्‍योंकि वह इस छोटी उम्र में ही
नांदेड़ होकर आई है।

(अभिषेक श्रीवास्‍तव)  

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