समाजवादी पार्टी की ”आउटसाइडर” गुत्‍थी: संदर्भ सुभाष चंद्रा और कैलाश सत्‍यार्थी



अभिषेक श्रीवास्‍तव 

बाएं से जयाप्रदा, अमर सिंह, सुभाष चंद्रा, मधुर भंडारकर और सुधीर चौधरी 

कुछ बातें समझ में नहीं आती हैं। उन्‍हें यूं ही छोड़ा जा सकता है। कुछ बातें समझ कर भी समझ में नहीं आती हैं। उन्‍हें छोड़ना मुश्किल होता है।
रविवार 11 सितंबर की रात समाजवादी पार्टी के अमर सिंह ने बीजेपी से राज्‍यसभा सांसद और ज़ी मीडिया के मालिक सुभाष चंद्रा के सम्‍मान में पार्टी आयोजित की। पार्टी में दो अहम लोग नहीं आए- एक अखिलेश यादव और दूसरे ज़ी बिज़नेस के संपादक समीर अहलुवालिया। बाकी मुलायम सिंह यादव से लगायत उनका पूरा कुनबा और सभी करीबी नौकरशाह इसमें मौजूद थे। अगले दिन सुबह तीन घटनाएं हुईं।

पहली, ज़ी के दफ्तर में समीर अहलुवालिया पर इस्‍तीफे की तलवार गिरा दी गई। उसी दिन शाम तक ज़ी के नोएडा स्थित दफ्तर में नोबेल पुरस्‍कार विजेता कैलाश सत्‍यार्थी के साथ अहलुवालिया सहित कंपनी के आला अधिकारी एक बैठक करते रहे जिसमें दो महीने बाद बचपन बचाओ आंदोलन द्वारा शुरू किए जाने वाले एक अभियान की कवरेज को लेकर एक डील हुई। तीसरी घटना लखनऊ में घटी जहां कैबिनेट मंत्री गायत्री प्रजापति और राजकिशोर सिंह कोमंत्रिमंडल से हटा दिया गया
उसके अगले दिन 13 सितंबर को उत्‍तर प्रदेश के मुख्‍य सचिव दीपक सिंघल को अखिलेश यादव ने पद से हटादिया, जिसके बाद समाजवादी कुनबे में दरार की खबरें खुलकर बाहर आ गईं। अगले दिन हिंदी दिवस था। साहित्‍य अकादमी के प्रांगण में शाम को कैलाश सत्‍यार्थी के हाथों अपनी आत्‍मकथा के हिंदी संस्‍करण के लोकार्पण से पहले ज़ी के मालिक सुभाष चंद्रा, मुलायम सिंह यादव के साथ तीन घंटे तक बैठे रहे जहां पारिवारिक झगड़ा निपटाया जाना था। वहां अखिलेश यादव को नहीं आना था, सो वे नहीं आए और विवाद अनसुलझा रह गया। शाम को चंद्रा की आत्‍मकथा का लोकार्पण धूमधाम से कैलाश सत्‍यार्थी ने किया, उधर अखिलेश ने बयान दे दिया कि कुछ ”आउटसाइडर” यानी बाहरी लोग पार्टी में दखल देने की कोशिश कर रहे हैं।
बाहरी के नाम पर सबका निशाना अमर सिंह की ओर था, लेकिन दुनिया जानती है कि अमर सिंह समाजवादी पार्टी के लिए उतने भी बाहरी नहीं हैं। अमर सिंह ने इसका जवाब दिया, ”अखिलेश मेरे बेटे जैसा है और उसने मुझे आउटसाइडर नहीं कहा है।” सवाल उठता है कि फिर ये ”आउटसाइडर” कौन है? क्‍या असली ”आउटसाइडर” को छुपाकर पुराने आदमी के गले में घंटी बांधने की कोशिश मीडिया कर रहा है? अगर ऐसा है, तो क्‍यों है और इस पूरे मामले के बीच में शांति के लिए नोबेल पुरस्‍कार विजेता कैलाश सत्‍यार्थी अपनी टांग क्‍यों फंसाए हुए हैं?  
कैलाश और सुभाष की गुत्‍थी


   ज़ी के अधिकारियों के साथ बैठक में कैलाश सत्‍यार्थी 
एकबारगी माना जा सकता है कि सत्‍यार्थी ग्राहक के बतौर ज़ी मीडिया के पास अपनी कवरेज का प्रस्‍ताव लेकर व्‍यावसायिक सौदा करने गए होंगे, लेकिन उन्‍हें सुभाष चंद्रा की आत्‍मकथा का लोकार्पण करने की कौन सी मजबूरी आन पड़ी थी? इससे पहले एक सवाल यह भी बनता है कि तमाम सेंटर-टु-लेफ्ट या मध्‍यमार्गी टीवी चैनलों के होते हुए राष्‍ट्रवादी पत्रकारिता करने का दावा करने वाले इकलौते चैनल ज़ी न्‍यूज़ के पास कैलाश क्‍यों गए? वे एनडीटीवी के पास भी जा सकते थे, आइबीएन-7 के पास, न्‍यूज़ 24 के पास या एबीपी के पास, लेकिन वे गए ज़ी के पास। इसे नोबेल पुरस्‍कार मिलने के बाद (जो कि केंद्र में सरकार बदलने के कुछ ही दिनों बाद की बात है) कैलाश के बयानों से समझा जा सकता है जो उन्‍होंने राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के मुख्‍यपत्र पांचजन्‍य को एक साक्षात्‍कार में दिए थे।

सुभाष चंद्रा की किताब का लोकार्पण करते कैलाश सत्‍यार्थी 

एक वेदपाठी ब्राह्मण के बतौर अपनी पृष्‍ठभूमि को गिनाते हुए और संघ के साथ अपनी पारिवारिक विरासत को जोड़ते हुए उन्‍होंने भारतीय संस्‍कृति और राष्‍ट्रवाद पर श्‍लोकों के माध्‍यम से विस्‍तृत बात रखी थी। याद करें, उन्‍होंने क्‍या-क्‍या कहा था। इससे गुत्‍थी समझने में आसानी होगी।
”मैं तो किशोरावस्था में ही अध्यात्म में इतने गहरे उतर गया था कि 15-16 साल की उम्र में संन्यास लेना चाह रहा था… बचपन में मैं स्वामी विवेकानंद से बहुत प्रभावित था। उनको न केवल खूब पढ़ा बल्कि उनके जैसे बनने का सोचने भी लगा। मैंने पढ़ा कि उन्हें ईश्वर के दर्शन हुए थे। बस इसी से मेरे मन में संन्यास की भावना पैदा हुई।”
एक सवाल उनसे पूछा गया कि ”यह देश सेकुलरहै और जय राम जी करके आप इतने आगे आ गए?” इसके जवाब में उन्‍होंने कहा:
”(हंसते हुए) जी, हमने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। मैं शुद्घ शाकाहारी हूं और शराब व मांसाहार का घोर विरोधी हूं। कभी किसी दानदात्री संस्था के व्यक्ति के लिए हमारी संस्था ने शराब और मांस की व्यवस्था नहीं की जबकि लोग कहते हैं यह तो छोटी सी बात है। आप छोटी-छोटी बातों पर क्यों अड़े रहते हैं। संस्थाएं मुद्दे उठाती रहती हैं। कई ऐसे मुद्दे भारत में भी हमारे साथी संगठनों ने उठाए लेकिन बाद में हमें पता लगा वह यह मुद्दे इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि जिनसे उन्हें पैसा मिल रहा है, वह लोग यह सब उनसे करवा रहे हैं। यानी पैसा देने वाला इस शर्त पर पैसा दे रहा है कि तुम यह सवाल उठाओगे।”
गुजरात दंगे के बारे में आगे की बातचीत पढ़ने से पता चलता है कि सत्‍यार्थी का सीधा इशारा तीस्‍ता सीतलवाड़ की ओर था, जिनके बारे में उन्‍होंने कहा था, ”जहां तक गुजरात दंगों के संबंध में कुछ गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका की बात है तो इस बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है। लेकिन, अखबारों से पता चला है कि इस मामले की अभी न्यायिक जांच चल रही है। मैं देखता हूं कि आज गैर-सरकारी संगठनों में नैतिक जवाबदेही का बहुत अभाव है, बल्कि नैतिकता की कमी दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। अगर आप किसी सामाजिक मुद्दे के साथ चल रहे हैं तो आपकी नैतिक जवाबदेही तो बनती ही है। अगर आपको बेहतर भारत और बेहतर समाज बनाना है तो यह जवाबदेही अनिवार्य है।”
इसी साक्षात्‍कार ने कैलाश सत्‍यार्थी की राजनीतिक पक्षधरता की साफ़ लकीर खींच दी थी और भविष्‍य में ज्‍वलन्‍त मसलों पर केंद्र की सरकार के प्रति उनके पाले को तय कर दिया था, कि चाहे जो हो लेकिन वे हिंदूवादी दक्षिणपंथी मोदी सरकार की आलोचना सांप्रदायिकता के मसले पर नहीं करेंगे। यही कारण है कि बीते कुछ दिनों से अंतरराष्‍ट्रीय मीडिया में उनके ऊपर लगातार सवाल उठ रहे हैं कि दलित उभार से लेकर कश्‍मीर में मानवाधिकार हनन आदि मसलों पर उनकी जुबान बंद क्‍यों है। इस सिलसिले में ओस्‍लो टाइम्‍स मेंअमित सिंह ने 27 अगस्‍त को एक आलोचनात्‍मक लेख लिखा था- ”साइलेंस ऑफ ए नोबल लॉरिएट” यानी एक नोबेल पुरस्‍कार विजेता की चुप्‍पी।
यह चुप्‍पी चुनी हुई है। आप देखिए कि इस लेख के बाद सितंबर के पहले हफ्ते में कैलाश के साथ संयुक्‍त रूप से नोबेल पुरस्‍कार पाने वाली मलाला यूसफ़ज़ई ने तो कश्‍मीर विवाद पर बयान दे डाला, लेकिन अब तक सत्‍यार्थी ने इस पर एक शब्‍द नहीं कहा है। यह केंद्र की सत्‍ता और उसके संरक्षक राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के साथ उनके मौन गठजोड़ को दिखाता है। ज़ाहिर है, ऐसे में अगर उन्‍हें किसी मीडिया घराने को चुनना ही था तो वे उस संस्‍थान को चुनते जो लगातार राष्‍ट्रवाद और सांप्रदायिकता पर संघ का प्रवक्‍ता बना हुआ है। ज़ी न्‍यूज़ से ज्‍यादा उपयुक्‍त चुनाव फिर कोई नहीं हो सकता था चूंकि उसके मालिक राज्‍यसभा में भारतीय जनता पार्टी के प्रतिनिधि है और यह चैनल स्‍वयंभू ”राष्‍ट्रवादी” चैनल है।



इसलिए कैलाश और सुभाष का यह गठजोड़ केवल बचपन बचाओ आंदोलन की ग्राहकी तक सीमित नहीं है, इसके राजनीतिक मायने हैं। यही कारण है कि कैलाश सत्‍यार्थी नोबल पुरस्‍कार की कथित गरिमा का भी ख़याल नहीं रखते और एक अरबपति कारोबारी की आत्‍मकथा का विमोचन हंसी-खुशी कर देते हैं। इसे ऐसे भी देखा जा सकता है कि आने वाले दिनों में बचपन बचाओ आंदोलन ज़ी मीडिया चलाने वाली कॉरपोरेट इकाई एस्‍सेल समूह के सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्‍पॉन्सिबिलिटी) प्रकोष्‍ठ की तरह काम करेगा।  
समाजवादी पार्टी में सेंध?
सुभाष चंद्रा भाजपा से हैं, उनका चैनल ”राष्‍ट्रवादी” है तो ये लोग समाजवादी पार्टी में क्‍या कर रहे हैं? अखिलेश यादव प्रवर्तित ”आउटसाइडर” की थियरी यहीं काम आती है। कहा जा रहा है कि सुभाष चंद्रा बीजेपी/संघ की असाइनमेंट पर हैं। अमर सिंह के पास अब सुब्रत राय की तिजोरी का सहारा नहीं रह गया है। उन्‍हें चाहिए एक नया असामी, जो सहारा की ही तरह समाजवादी पार्टी के लिए अपना खज़ाना खोल दे। भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच परदे के पीछे की साठगांठ से दुनिया वाकिफ़ है। मुजफ्फरनगर दंगे पर जस्टिस विष्‍णु सहाय आयोग की रपट का अब तक सार्वजनिक न किया जाना इसका सीधा उदाहरण है, जिसमें भाजपा और सपा दोनों के नेताओं को दंगे के लिए दोषी ठहराया गया है (बाद में हालांकि जब विधासभा के पटल पर रिपोर्ट रखी गई तो उसमें नेताओं को क्‍लीन चिट दे दी गई और अधिकारियों को दोषी माना गया। इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय में एक जनहित याचिका भी लगी थी)। अब चुनाव सिर पर हैं और राजनीतिक का तकाज़ा है कि भाजपा और सपा मिलकर सरकार नहीं बना सकते। दूसरे, दोनों मे से किसी को भी बहुमत नहीं मिलने जा रहा।
ऐसे में समाजवादी पार्टी को अमर सिंह के रास्‍ते मैनेज करने का काम सुभाष चंद्रा कर रहे हैं। इसके बदले में ज़ी न्‍यूज़ के भीतर सख्‍त आदेश पारित हुआ है कि वहां समाजवादी पार्टी के खिलाफ़ ख़बरें नहीं चलाई जाएंगी। फिलहाल सपा के खिलाफ ज़ी पर कोई भी ख़बर नहीं चल रही है और यह नीतिगत फैसला है।

अगर मुहावरे में इस बात को समझना हो तो ज़ी न्‍यूज़ पर समाजवादी पार्टी की दरार पर रोहित सरदाना के प्रोग्राम की यह स्‍क्रीन देखना दिलचस्‍प होगा जिसमें ”परिवार से बड़ी सरकार” के प्रायोजक हैं ”पतंजलि का गाय से बना देसी घी”।

बहरहाल, इसकी ज़मीन 2 अप्रैल को ही तैयार हो चुकी थी जब सुभाष चंद्रा और अमर सिंह ने संयुक्‍त रूप से शिवपालयादव के बेटे की शादी का रिसेप्‍शन दिया था। न्‍योता ”श्रीमती और श्री अमर सिंह” के नाम से भेजा गया था लेकिन कार्ड पर ”ज़ी और एस्‍सेल समूह के चेयरमैन सुभाष चंद्रा की ओर से शुभकामना” संदेश भी छपा था। इस रिसेप्‍शन में राष्‍ट्रपति प्रणब मुखर्जी से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक को न्‍योता भेजा गया था। उसी वक्‍त आम आदमी पार्टी के कर्नल देवेंद्र सिंह सहरावत ने चेतावनी जारी की थी कि मीडिया कंपनियों का सियासी दलों के हाथों में खेलना खतरनाक संकेत है। टाइम्‍स ऑफ इंडिया ने ख़बर दी थी कि सुभाष चंद्रा ने उत्‍तर प्रदेश में निवेश करने का भी वादा सरकार से किया है। 

महज छह महीने में रिसेप्‍शन की मेजबानी से आगे बढ़ते हुए 11 सितंबर को अमर सिंह को अपना मेज़बान बना लेने वाले और फिर 14 सितंबर को समाजवादी पार्टी के कुनबे का आपसी झगड़ा निपटाने तक की सीढ़ी तय कर चुके सुभाष चंद्रा को आखिर इस पूरे प्रकरण में कैसे देखा जाए? क्‍या असली ”आउटसाइडर” सुभाष चंद्रा हैं जिनके बारे में अखिलेश ने कहा था?
फोटो साभार: इंडिया संवाद डॉट कॉम 

समाजवादी पार्टी के संकट को लेकर दो बातें हो रही हैं। पहली, कि यह पारिवारिक विवाद है। दूसरी, कि यह राजनीतिक विवाद है। दोनों बातें एक-दूसरे के बरक्‍स नहीं, बल्कि एक-दूसरे की पूरक हैं। राजनीति और परिवार का आपस में गड्डमड्ड होना तो बहुत पहले घट चुका था, अमर सिंह की वापसी और सुभाष चंद्रा की एंट्री के बाद इसमें एक और आयाम जुड़ गया है। न चाहते हुए भी सुविधा के लिए उसे ‘दलाली’ का नाम दिया जा सकता है, हालांकि इसकी कई अर्थछवियां हैं। इस दलदल में अपनी राजनीतिक सुविधापरस्‍ती और नैतिक बेईमानी के चलते एक दूसरा ”आउटसाइडर” फंसा हुआ है जो दुर्भाग्‍य से नोबेल पुरस्‍कार विजेता भी है।  
राष्‍ट्रवाद की आड़ में पैसे का खेल
ज़ी समूह के कुछ लोगों का मानना है कि अमर सिंह एकाध साल में सुभाष चंद्रा को चूस कर छोड़ देंगे। यह अध्‍याय सुभाष चंद्रा के पतन की शुरुआत है। कुछ और लोगों का मानना है कि समाजवादी पार्टी का यह झगड़ा आपसी नूराकुश्‍ती है, हालांकि यह बात हज़म होने वाली नहीं लगती। सामाजिक क्षेत्र से आने वाले कुछ लोग कह रहे हैं कि इस पूरे मकड़जाल में फंस कर कैलाश सत्‍यार्थी को बहुत नुकसान होने वाला है। वैसे भी, 2014 में कैलाश को नोबेल देने की घोषणा करने के बाद नोबेल कमेटी के पास सत्‍यार्थी के खिलाफ दुनिया भर से जो शिकायतों का पुलिंदा पहुंचा था, जिस तरीके से सिविल सोसायटी में इस पुरस्‍कार को संदेह की निगाह से देखा गया, थोड़े दिनों पहले उनके यहां नोबेल कमेटी की ऑडिट टीम का दौरा हुआ (जिसके बारे में सूचनाएं अस्‍पष्‍ट और अपुष्‍ट हैं) और कैलाश ने जिस तरह चुनी हुई चुप्‍पी मानवाधिकार के मसलों पर ओढ़ रखी है, उसने नोबेल कमेटी को इतना तो अहसास करा ही दिया है कि उसने गलत आदमी को पुरस्‍कार दे डाला। अपनी छवि को दुरुस्‍त करने के चक्‍कर में कैलाश इधर दिसंबर से ज़ी न्‍यूज़ के सहयोग से बंधुआ बच्‍चों पर एक विश्‍वव्‍यापी कैम्‍पेन शुरू करने जा रहे हैं, उधर नोबेल कमेटी अपनी गलती की भरपाई करने के लिए इस साल का नोबेल शांति पुरस्‍कार भारत के ही किसी व्‍यक्ति को देने के मूड में है।


क्‍या पता इस बार का नोबेल कैलाश सत्‍यार्थी के ही सामाजिक और भौगोलिक क्षेत्र में काम करने वाले किसी शख्‍स को मिल जाए? अगर ऐसा हुआ, तो कैलाश सत्‍यार्थी नोबेल वेबसाइट के आरकाइव का माल बन कर रह जाएंगे। ज़ाहिर है, वे ऐसा नहीं होने देंगे। इसके लिए ज़रूरी है कि उन्‍हें ”भारत रत्‍न” जैसी कोई चीज़ दे दी जाए ताकि एनजीओ और कॉरपोरेट को गरियाने के बावजूद उनकी अपनी दुकान ठीकठाक चलती रह सके। 

केवल अंदाज़े के लिहाज से बता दें कि बचपन बचाओ आंदोलन नामक कैम्‍पेन को चलाने वाली पंजीकृत संस्‍था एसोसिएशन फॉर वॉलन्‍टरी ऐक्‍शन (आवा) की आधिकारिक तिमाही रिपोर्टों के मुताबिक उसे जनवरी से जून 2016 के बीच पांच करोड़ सत्‍तानबे लाख अड़तालीस हज़ार तीन सौ छाछड (5,97,48,366) रुपये का अनुदान मिला है। इसमें जनवरी-मार्च तिमाही में 2,64,93,272 रुपये और अप्रैल-जून तिमाही में 3,32,55,094 रुपये का अनुदान शामिल है। छह महीने में छह करोड़ यानी एक करोड़ महीना का अनुदान पाने की स्थित कैलाश सत्‍यार्थी को नोबेल मिलने के बाद पैदा हुई है। वे कभी नहीं चाहेंगे कि उनका कोई प्रतिद्वंद्वी उनकी इस करोड़ी हैसियत को छीन ले जाए।   

छह महीने में सत्‍यार्थी की संस्‍था को मिला छह करोड़ का अनुदान 

दूसरी ओर अखिलेश यादव का सामना अपने चाचा शिवपाल यादव से है जिन्‍हें उन मलाईदार मंत्रालयों से बेदखल कर दिया गया है जहां से कथित आरोप है कि निर्माण कार्य के नाम पर करोड़ों रुपया पांच साल से लगातार आ रहा था। मुलायम सिंह को अब बेटे और भाई में से नहीं, बल्कि सत्‍ता और पैसे में से किसी एक को चुनना है। इस संतुलन को बनाने में ज़ी की पूंजी और अमर सिंह की चतुराई काम आएगी।
सत्‍ता हो, समाज कार्य या मीडिया, मामला कुल मिलाकर पैसे का है। राष्‍ट्रवाद की केवल आड़ है। यह पैसेवालों की राष्‍ट्रवादी एकता है जो मीडिया के लिए अटकलों की शक्‍ल में ख़बरें पैदा कर रही है। यूपी में चुनाव होने तक यह एकता बनी रहेगी, इतना तय है। आगे के दिनों में यह सत्‍ता, मीडिया और समाज का यह बदबूदार दलदल किसे डुबोता है और किसे छोड़ता है, यह देखना ज्‍यादा दिलचस्‍प होगा।   

   
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19 Comments on “समाजवादी पार्टी की ”आउटसाइडर” गुत्‍थी: संदर्भ सुभाष चंद्रा और कैलाश सत्‍यार्थी”

  1. बहुत ही उम्दा स्टोरी है। उत्कृष्ठ पत्रकारिता का प्रमाण। विश्लेषण, खोज-बीन हर तरह से दुरुस्त। मुझे बहुत पसंद आई। इनमें से अधिकांश बातें तो मीडिया से गायब ही हैं। शुक्रिया!
    राजन विरूप

  2. अंदर की खबरें जो बाहर कभी नहीं आतीं।ये गठजोड़ समाजवाद को अप्रासंगिक बना देगा।

  3. अंदर की खबरें जो बाहर कभी नहीं आतीं।ये गठजोड़ समाजवाद को अप्रासंगिक बना देगा।

  4. जबरदस्त और सटीक आंकलन है लेखक का । आज छद्म राष्ट्रभक्ति , गांधीवाद, लोहियावाद का बाजार लिए बैठे इस गठजोड़ की गांठे खुलती दिखाई दे रही हैं और सबसे दुखदाई पक्ष तो सत्यार्थी जी हैं । क्या होना था और क्या हो गया। जाना था जापान पहुँच गए चीन , समझ गए ना।

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