स्मृति सिंह |
(स्मृति सिंह जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी में शिक्षाशास्त्र की अंतिम वर्ष की शोध छात्रा हैं और फिलहाल मिशिगन यूनिवर्सिटी में फुलब्राइट स्कॉलर हैं. दिल्ली के एलएसआर कॉलेज और अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में इन्हें अध्यापन का भी अनुभव है. जेएनयू के प्रकरण पर कल इनकी लिखी एक टिप्पणी जनपथ पर प्रकाशित हुई थी. स्मृति ने इसी संदर्भ एक ताज़ा टिप्पणी लिख कर भेजी है जिसे नीचे प्रकाशित किया जा रहा है. जेएनयूएसयू के अध्यक्ष कन्हैया कुमार के ज़मानत के बाद दिए भाषण पर यह प्रतिक्रिया अपने किस्म की है जो हमें सोचने पर मजबूर करती है – मॉडरेटर)
बहुत गंभीर बात है किसी भी लोकतंत्र में अवतार की उम्मीद। मोदी तारणहार साबित नहीं हुए तो क्या, अब कन्हैया कुमार तारेंगे? पर आप तारणहार की उम्मीद नहीं छोड़ेंगे!
एक नायक से ऊब गए तो नया नायक खड़ा मत कीजिए। नेता की वाकपटुता पर ताली मारिए मगर ऐसा न हो कि मोदी(जी) की गोदी से उतरे तो कन्हैया भैया के आगे साक्षात दंडवत की मुद्रा में लोट जाएं। जो आंदोलन और लड़ाई थी वो नेता की रिहाई की नहीं, अत्याचार के खिलाफ थी… सरकारी ताक़त और सरकारी तंत्र के दुरुपयोग के खिलाफ थी… बोलने और असहमति के लोकतान्त्रिक हक़ के संरक्षण के लिए थी।नेताजी की वाहवाही में मुद्दे से मत भटकिए।
कल से सब लोग द्वापर के कृष्ण-कन्हैया की गाथा से जोड़ कर देख रहे हैं कन्हैया कुमार को। अरे, आपको नेता चाहिए या भगवान? तारणहार की उम्मीद आखिर क्यों नहीं छूटती आपकी? अभी इसी चक्कर में तो 56 इंच की छाती को पूर्ण बहुमत का भोग लगा आए थे? सवाल पर केंद्रित रहिए, नेता पर नहीं। नेतृत्व तो रोहित का भी रहा है।
तारणहार की उम्मीद में एक बुनियादी खामी है। एक तो यह कि समाज निर्माण तारण का काम नहीं है। समाज निर्माण असल में एक इंसान के द्वारा किया जाना मुमकिन भी नहीं है। समाज निर्माण जादू की चाभी या एक आदमी का दिखाया जाने वाला करतब नहीं है। और इसीलिए जिससे तारण की उम्मीद लगाए बैठे हैं, जब वह नया अवतार, नया तारणहार, तारण की उम्मीद पर खरा नहीं उतर पाएगा तो आपका समाज निर्माण का उत्साह धूमिल हो जाएगा। आप निराशा में डूब जाएँगे। अपनी गली-मोहल्ले में नारेबाज़ी करने और कुछ करने का हौसला लिए घर से निकलने वाले, आप हतोत्साहित हो कर एक गहरी साँस भर के “इस देश का कुछ नहीं हो सकता!” कह कर फिर समस्या का हिस्सा होना स्वीकार कर लेंगे!
ज़रूरत है लोकतंत्र में अपना नेतृत्व अपने हाथों में लेने की- मार्गदर्शन का मॉडल भेड़ों और चरवाहे से नहीं बल्कि मधुमक्खियों से लेने की; अपने नेता को ज़िम्मेदारी सौंपने की, मगर उसके प्रति भक्ति नहीं संवेदना और समीक्षा का भाव रखने की; नेतृत्व की बागडोर समीक्षा और संवाद की प्रक्रिया के हाथों में छोड़ने की।
क्या हमारा नेतृत्व करने में हमारे उसूल सक्षम नहीं? उसूल, जिनमें समीक्षा और संवाद की प्रक्रिया निहित हो?
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