आनंद स्वरूप वर्मा |
उमेश डोभाल स्मृति रजत जयंती समारोह
पौड़ी गढ़वाल/25 मार्च, 2015 में दिया व्याख्यान
…उमेश डोभाल की याद में आयोजित इस समारोह में आने का अवसर पा कर मैं काफी गर्व का अनुभव कर रहा हूं। बहुत दिनों से पौड़ी आने की इच्छा थी। 1980 में जब मैंने समकालीन तीसरी दुनिया का प्रकाशन शुरू किया था उस समय से ही यहां राजेन्द्र रावत राजू से मेरी मित्रता शुरू हुई जो काफी समय तक बनी रही। उनके निधन के बाद यह जगह मेरे लिए अपरिचित सी हो गयी और फिर धीरे-धीरे यहां से संबंध् कमजोर पड़ता चला गया। आज उमेश डोभाल की कर्मभूमि में आने का जो अवसर प्राप्त हुआ उसका लाभ उठाते हुए मैं कुछ बातें आपके साथ साझा करना चाहता हूं।
उमेश डोभाल की हत्या के बाद कई महीनों तक यह मामला राष्ट्रीय चर्चा का विषय नहीं बन सका था। फिर जून 1988 में एक दिन मेरे पत्रकार मित्र राजेश जोशी ने जो उन दिनों जनसत्ता में थे, इस घटना के बारे में जानकारी दी और बताया कि किस तरह 25 मार्च से ही उमेश लापता हैं और संदेह है कि शराब माफिया ने उनकी हत्या कर दी लेकिन प्रशासन बिल्कुल इस घटना से बेपरवाह है। फिर हम लोगों ने 8 जून 1988 को तीसरी दुनिया अध्ययन केन्द्र की ओर से एक अपील जारी की जिसकी एक प्रति यहां मेरे पास है और फिर एक कमेटी बनाकर उमेश डोभाल की हत्या के सवाल को उजागर किया गया। धीरे-धीरे यह आंदोलन का रूप लेता गया और बाद में तो आपको पता है कि यह कितना बड़ा आंदोलन हो गया जिसने न केवल तत्कालीन उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र में बल्कि पूरे देश में एक हलचल मचा दी। यहां यह भी मैं बताना चाहूंगा कि उमेश डोभाल की हत्या के पीछे मनमोहन सिंह नेगी उर्फ मन्नू नामक कुख्यात शराब माफिया का इतना आतंक था कि दिल्ली तक में उत्तराखंड का कोई पत्रकार इस मामले में पहल लेने के लिए तैयार नहीं था। नतीजतन जो समिति बनी उसका संयोजक मुझे बनाया गया। धरना, प्रदर्शनों, जुलूसों आदि का सिलसिला शुरू हुआ जो तेज होता गया और पत्रकारों के अलावा विभिन्न तबकों के बीच इस प्रसंग पर चर्चा होने लगी। बहरहाल इस अवसर पर 27 वर्ष पूर्व की सारी घटनाएं मुझे याद आ गयीं जिसे मैंने आपसे शेयर किया।
उमेश डोभाल: साभार नैनीताल समाचार |
अब आज के विषय पर चर्चा की जाय। आज का विषय है ‘बदलते परिवेश में जनप्रतिरोध्’। हमें जानना है कि परिवेश में किस तरह का बदलाव आया है और जनप्रतिरोध् ने कौन से रूप अख्तियार किए हैं। पिछले सत्र में उमेश डोभाल के बड़े भाई साहब ने एक बात कही थी कि जिन परिस्थितियों में उमेश डोभाल जनता के पक्ष में पत्रकारिता कर रहे थे वे परिस्थितियां आज और भी ज्यादा तीव्र और खतरनाक हो गयी हैं इसलिए आज पत्रकारों को पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा शिद्दत के साथ काम करने की जरूरत है। मैं उनकी बात से पूरी तरह सहमत हूं और इसी संदर्भ में बदली हुई परिस्थितियों पर बहुत संक्षेप में कुछ कहना चाहूंगा।
1990 के बाद से वैश्वीकरण का जो दौर शुरू हुआ उसकी वजह से हमारा समूचा शासनतंत्र बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बड़े कॉरपोरेट घरानों के कब्जे में आ गया। सत्ता पर उनका नियंत्रण मजबूत होता चला गया। यह सिलसिला नरसिंह राव की सरकार से शुरू हुआ और अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह की सरकार से लेकर नरेन्द्र मोदी की सरकार आते-आते काफी खतरनाक रूप ले चुका है। इसी संदर्भ में मैं विश्व बैंक द्वारा जारी उस दस्तावेज का जिक्र करना चाहूंगा जिसका शीर्षक था ‘रीडिफाइनिंग दि रोल ऑफ स्टेट’ अर्थात राज्य की भूमिका को पुनर्परिभाषित करना। इस दस्तावेज को नोबेल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जोसेफ स्तिगलीज ने तैयार किया था जो उन दिनों विश्व बैंक के उपाध्यक्ष थे और वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक थे। बाद में स्तिगलीज वैश्वीकरण के जबर्दस्त विरोधी हो गए और उन्होंने वैश्वीकरण की खामियों को लेकर कुछ बहुत अच्छी चर्चित पुस्तकें लिखीं। इस दस्तावेज को सारी दुनिया के पूंजीवादपरस्तों ने और खास तौर पर तीसरी दुनिया अर्थात एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के देशों के शासकों ने बाइबिल की तरह अपना लिया। इस दस्तावेज में इन देशों की सरकारों को सलाह दी गयी थी कि वे कल्याणकारी कार्यों से अपना हाथ खींच लें और इन सारे कामों को निजी कंपनियों को सौंप दें। इसमें यह भी कहा गया था कि यह जिम्मेदारी सौंपने के बाद सरकार एक ‘फेसिलिटेटर’ अर्थात सहजकर्ता की भूमिका निभाए। इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, परिवहन आदि की जिम्मेदारी निजी कंपनियों को सौंप दी जाए। अब इसके निहितार्थ पर गौर करें।
1947 के बाद से हम एक कल्याणकारी राज्य की कल्पना कर रहे थे और हमें उम्मीद थी कि क्रमशः हम उस दिशा में बढ़ते जाएंगे। अगर जन कल्याणकारी कामों की जिम्मेदारी निजी कंपनियों को सौंप दी जाती है तो ये कंपनियां इन कामों को फायदे और नुकसान के तराजू पर तौलकर ही आगे बढ़ेंगी जबकि इन क्षेत्रों में नुकसान और फायदे के अर्थ में नहीं सोचा जाना चाहिए। इस नीति पर काम करते हुए 1998 में प्रधनमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘पी.एम. कौंसिल ऑन ट्रेड ऐंड इंडस्ट्रीज’ का गठन किया और देश के प्रमुख उद्योगपतियों को अलग-अलग जिम्मेदारियां सौंपी। मसलन शिक्षा की जिम्मेदारी मुकेश अंबानी को, स्वास्थ्य की जिम्मेदारी राहुल बजाज को और इसी तरह विभिन्न विभागों की जिम्मेदारी अलग-अलग उद्योगपतियों को सौंप दी गयी। अब इसके निहितार्थों पर गौर करें। अगर ऐसा हो जाता है तो जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की न तो कोई जरूरत रहेगी और न इन प्रतिनिधियों की संस्थाओं अर्थात विधानमंडलों और संसद की कोई प्रासंगिकता रह जाएगी। प्रधानमंत्री कार्यालय ने सभी मंत्रालयों को यह निर्देश भेजा कि पी.एम. कौंसिल ऑन ट्रेड ऐंड इंडस्ट्रीज को एपेक्स बॉडी माना जाए और इन पूंजीपतियों को मंत्रालय की वे सभी फाइलें उपलब्ध् करायी जाएं जो वे चाहते हैं। मजे की बात यह है कि इतनी बड़ी घटना को किसी अखबार ने अपने यहां प्रकाशित करने की जरूरत नहीं महसूस की। केवल ‘हिन्दू’ नामक अंग्रेजी अखबार में एक छोटी सी खबर प्रकाशित हुई थी। बाद में कुछ उत्साही पत्रकारों ने अपनी पहल से इसे प्रचारित किया और जब यह खबर काफी चर्चा में आ गयी तो इस योजना को बैक बर्नर पर डाल दिया गया।
मेरा मानना है कि यह सारा काम छुपे तौर पर होने लगा जो आज पूरी तरह उजागर हो चुका है। आपने खुद महसूस किया होगा कि छत्तीसगढ़ हो या झारखंड या उड़ीसा- इन सारे क्षेत्रों में किस तरह बड़े कॉरपोरेट घराने जल, जंगल और जमीन की लूट में लगे हुए हैं। किस तरह छत्तीसगढ़ में जनता के शांतिपूर्ण प्रतिरोध् का दमन करते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कच्चे लोहे की तलाश में गांव के गांव उजाड़ दिए और लोगों को तबाही के कगार में झोंकने के साथ ही समूचे इलाके को हिंसा की चपेट में डाल दिया। मैं जोर देकर यह कहना चाहता हूं कि अगर जनतांत्रिक आंदोलनों का दायरा सिकुड़ता जाएगा तो इससे हिंसा का रास्ता तैयार होगा। यह बात देश-विदेश के सभी समाज वैज्ञानिक कहते रहे हैं। अगर आप प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक हेराल्ड लॉस्की के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स’ को पढें तो पता चलता है कि क्यों उन्होंने सरकारों को सलाह दी थी कि कभी भी न तो खुले संगठनों पर पाबंदी लगाओ और न कल्याणकारी कार्यों को राज्य के दायरे से बाहर रखो। उन्होंने चेतावनी दी थी कि अगर ऐसा किया तो पूरा समाज हिंसा और विद्रोह की चपेट में आ जाएगा और तुम कुछ नहीं कर सकोगे।
जिन इलाकों का मैंने जिक्र किया है वे आज हिंसा की चपेट में हैं और यह स्थिति सरकार की कॉरपोरेटपरस्त नीतियों की वजह से तैयार हुई है। यह बात केवल मैं नहीं कह रहा हूं- सरकारी दस्तावेज मेरे इस कथन की पुष्टि करते हैं। यहा मैं 2008 में भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जारी उस रिपोर्ट का जिक्र करना चाहूंगा जिसका शीर्षक है ‘कमेटी ऑन स्टेट एग्रेरियन रिलेशंस ऐंड अनफिनिश्ड टॉस्क ऑफ लैंड रिफार्म्स’। इसकी अध्यक्षता केन्द्रीय ग्राम विकास मंत्री ने की। 15 सदस्यों वाली इस समिति में अनेक राज्यों के सचिव और विभिन्न क्षेत्रों के विद्वान तथा कुछ अवकाशप्राप्त प्रशासनिक अधिकारी शामिल थे। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि विकास परियोजनाओं के नाम पर कितने बड़े पैमाने पर उपजाऊ जमीन और वन क्षेत्र को उद्योगपतियों को दिया गया।
मैं इस रिपोर्ट के एक अंश को पढ़कर सुनाना चाहूंगा- ‘आदिवासियों की जमीन हड़पने की कोलंबस के बाद की सबसे बड़ी कार्रवाई’ उपशीर्षक के अंतर्गत भारत सरकार की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि-
‘‘छत्तीसगढ़ के तीन दक्षिणी जिलों बस्तर, दांतेवाड़ा और बीजापुर में गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है। यहां एक तरफ तो आदिवासी पुरुषों और महिलाओं के हथियारबंद दस्ते हैं जो पहले पीपुल्स वॉर ग्रुप में थे और अब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के साथ जुड़े हैं तथा दूसरी तरफ सरकार द्वारा प्रोत्साहित सलवा जुडुम के हथियारबंद आदिवासी लड़ाकू हैं जिनको आधुनिक हथियारों और केंद्रीय पुलिस बल के तमाम संगठनों का समर्थन प्राप्त है। यहां जमीन हड़पने की अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई चल रही है और जो पटकथा तैयार की गयी है वह अगर इसी तरह आगे बढ़ती रही तो यह युद्ध लंबे समय तक जारी रहेगा। इस पटकथा को तैयार किया है टाटा स्टील और एस्सार स्टील ने जो सात गांवों पर और आसपास के इलाकों पर कब्जा करना चाहते थे ताकि भारत के समृद्धतम लौह भंडार का खनन कर सकें।
‘‘शुरू में जमीन अधिग्रहण और विस्थापन का आदिवासियों ने प्रतिरोध किया। प्रतिरोध इतना तीव्र था कि राज्य को अपनी योजना से हाथ खींचना पड़ा… सलवा जुडुम के साथ नये सिरे से काम शुरू हुआ। अजीब विडंबना है कि कांग्रेसी विधायक और सदन में विपक्ष के नेता महेंद्र कर्मा ने इसकी शुरुआत की लेकिन भाजपा शासित सरकार से इसे भरपूर समर्थन मिला… इस अभियान के पीछे व्यापारी, ठेकेदार और खानों की खुदाई के कारोबार में लगे लेाग हैं जो अपनी इस रणनीति के सफल नतीजे की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सलवा जुडुम शुरू करने के लिए पैसे मुहैया करने का काम टाटा और एस्सार ग्रुप ने किया क्योंकि वे ‘शांति’ की तलाश में थे। सलवा जुडुम का पहला प्रहार मुड़िया लेागों पर हुआ जो अभी भी भाकपा (माओवादी) के प्रति निष्ठावान हैं। यह भाई भाई के बीच खुला युद्ध बन गया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 640 गांव खाली करा दिये गये, इन गांवों के मकानों को ढाह दिया गया और बंदूक की नोक पर तथा राज्य के अशीर्वाद से लोगों को इलाके से बेदखल कर दिया गया। साढ़े तीन लाख आदिवासी, जो दांतेवाड़ा जिले की आधी आबादी के बराबर हैं, विस्थापित हुए, उनकी औरतें बलात्कार की शिकार हुईं, उनकी बेटियां मारी गयीं और उनके युवकों को विकलांग बना दिया गया। जो भागकर जंगल तक नहीं जा पाये उन्हें झुंड के झुंड में विस्थापितों के लिए बने शिविरों में डाल दिया गया जिसका संचालन सलवा जुडुम द्वारा किया जाता है। जो बच रहे वे छुपते छुपाते जंगलों में भाग गये या उन्होंने पड़ोस के महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और उड़ीसा में जाकर शरण ली।
‘‘640 गांव खाली हो चुके हैं। हजारों लाखों टन लोहे के ऊपर बैठे इन गांवों से लोगों को भगा दिया गया है और अब ये गांव सबसे ऊँची बोली बोलने वाले के लिए तैयार बैठे हैं। ताजा जानकारी के अनुसार टाटा स्टील और एस्सार स्टील दोनों इस इलाके पर कब्जा करना चाहते हैं ताकि वहां की खानें इनके पास आ जायं।’’ (पृ. 160-161)”
यह रिपोर्ट अभी भी इंटरनेट पर उपलब्ध है जिसे आप देख सकते हैं।
सरकारें अपने स्वार्थ के लिए किस तरह जनतांत्रिक आंदोलनों के दायरे को खत्म करती जा रही हैं इसका उदाहरण देते हुए मैं आपके सामने कुछ तथ्य रखना चाहूंगा। मैं आपको 1998 की याद दिलाऊंगा जब गृहमंत्री के पद पर लालकृष्ण आडवाणी थे। उस वर्ष हैदराबाद में आडवाणी ने नक्सलवाद प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पुलिस महानिरीक्षकों की अलग-अलग बैठकें बुलाईं। इन बैठकों में चार राज्य-आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और महाराष्ट्र शामिल थे। सितंबर 2005 में इसी विषय पर तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने एक बैठक बुलायी जिसमें 13 राज्यों के मुख्यमंत्रियों को आमंत्रित किया गया था। फिर जनवरी 2006 में पाटिल ने एक और बैठक बुलायी और इस बार 15 राज्यों के मुख्यमंत्री शामिल थे। अखबारों में छपी खबरों के अनुसार बैठक के दौरान लंच के समय तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने बाहर कुछ पत्रकारों से कहा कि उनके राज्य में नक्सलवाद या माओवाद बिल्कुल नहीं है फिर भी उन्हें बुला लिया गया। अब जरा आंकड़ों पर विचार करें।
1998 में नक्सलवाद प्रभावित राज्यों की संख्या सरकारी आंकड़े के अनुसार चार थी जो 2006 आते-आते 15 हो गयी थी। देश के अंदर कुल 28-29 राज्य हैं। अब इनमें अगर 15 को नक्सलवाद प्रभावित मान लिया जाए तो क्या स्थिति दिखायी देती है। उत्तर पूर्व के सात राज्य पहले से ही अशांत घोषित हैं जहां 1958 से ही आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर्स ऐक्ट लगाकर शासन किया जा रहा है। कश्मीर स्थायी तौर पर अशांत रहता है तो ऐसी स्थिति में क्या यह माना जाय कि 28 में से 23 राज्य ऐसे हैं जहां शासन करना सरकार के लिए मुश्किल है?
ऐसा है नहीं। दरअसल यह सारा कुछ माओवाद का हौवा खड़ा करना था जिसका मकसद यह था कि जब इन इलाकों में बाजार की ताकतें प्रवेश करेंगी और इनके खिलाफ प्रतिरोध शुरू होगा तो उसका दमन करने के लिए पहले से ही एक वातावरण तैयार किया जाए। अपने दमन को न्यायोचित ठहराने और बाजार की ताकतों को मदद पहुंचाने के लिए सरकार ने यह माहौल तैयार किया। वह झूठे आंकड़े प्रचारित करती रही।
ऊपर जिन बैठकों की चर्चा की गयी है उसी में गृहमंत्री ने केन्द्र सरकार की इस नीति का खुलासा किया कि जिन राज्यों में नक्सलवाद या माओवाद विकसित हो रहा है उन्हें केन्द्र से इस बात के लिए विशेष पैकेज दिया जाएगा ताकि वे अपने यहां उग्रवाद का मुकाबला कर सकें। 21 दिसंबर 2007 को विभिन्न अखबारों के नैनीताल संस्करण में एक खबर प्रकाशित हुई कि उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवनचंद खंडूरी ने केन्द्र सरकार से राज्य की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को उन्नत करने के लिए 208 करोड़ की मांग की है। खंडूरी का कहना था कि राज्य में माओवाद का खतरा बढ़ गया है क्योंकि पड़ोस में नेपाल है और वहां से माओवादी इनके इलाके में घुसपैठ करते हैं। उसी दिन के अमर उजाला के नैनीताल संस्करण में यह खबर छपी कि हंसपुर खत्ता और चौखुटिया के जंगलों में कुछ सशस्त्र लोग घूमते हुए दिखायी दिए जिनके माओवादी होने का संदेह है। फिर 24 दिसंबर को इन्हीं अखबारों ने प्रकाशित किया कि प्रशांत राही नामक जोनल कमांडर को हंसपुर खत्ता के जंगलों से उस समय गिरफ्रतार किया गया जब वह अपने पांच साथियों के साथ मीटिंग कर रहे थे। इसके बाद उत्तराखंड में एक के बाद सात आठ लोगों की गिरफ्तारी हुई और उन्हें माओवादी बताकर जेल में डाल दिया गया। यह अलग बात है कि बाद में अदालत ने उन सभी को सबूत के अभाव में रिहा कर दिया लेकिन तब तक वे लोग सात वर्ष जेल में बिता चुके थे। आज इतने वर्षों बाद भी अभी तक ऐसी कोई खबर नहीं मिली है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि उत्तराखंड में माओवादी हिंसा का कोई प्रभाव दिखाई देता है। दरअसल सभी गिरफ्तार युवक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता थे जो निश्चित तौर पर कम्युनिस्ट विचारों से प्रेरित थे लेकिन जिनका संघर्ष संवैधानिक दायरे के अंदर ही था।
उन्हीं दिनों हमलोग एक फैक्ट फाइडिंग टीम लेकर उत्तराखंड आए थे। उस टीम में मेरे अलावा गौतम नवलखा, पंकज बिष्ट, राजेन्द्र धस्माना, भूपेन आदि कुछ साथी थे और हमने उस समय यहां के एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुलिस अधिकारी से जिनका उपनाम गणपति था भेंट की और जानना चाहा कि किस आधार पर इन सारे लोगों को पकड़कर जेल में डाल दिया गया है। उस अधिकारी ने हमें बताया कि खुफिया सूत्रों से सरकार को जानकारी मिली थी कि राज्य में माओवादी गतिविधियां शुरू हो रही हैं। हमने जब उनसे कहा कि हमें तो कहीं भी इस तरह की गतिविधियाँ नहीं दिखायी दी तो उनका जवाब था कि ‘आपको इसलिए नहीं दिखायी दीं क्योंकि हमने उन्हें पहले ही पकड़ लिया ‘ऐंड वी निप्पड इट इन दि बड’ मतलब यह कि बिना किसी प्रमाण के इस आशंका के आधार पर कि राजनीतिक तौर पर जनता के पक्ष में सक्रिय ये लोग आने वाले दिनों में माओवादी हो सकते हैं, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में डाल दिया गया।
तो ऐसी स्थिति है। मीडिया भी दुर्भाग्यवश पुलिस विभाग का स्टेनो बन गया है। विभाग जो बयान देता है या जो सर्कुलर जारी करता है उसके आधार पर वे अपनी रिपोर्ट तैयार करते हैं और किसी तरह की खोजबीन की जहमत नहीं उठाते। उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश ही नहीं की कि प्रशांत राही देहरादून में अपने घर के सामने गिरफ्तार किए गए या हंसपुर खत्ता के जंगल में जैसा कि पुलिस बता रही है। बहरहाल ये कुछ ऐसी बातें हैं जिनपर हमें बड़ी संजीदगी से विचार करना है और इनका ताल्लुक सीधे-सीधे जनतंत्र से है। मैं एक कम्युनिस्ट हूं लेकिन अपने कम्युनिस्ट मित्रों से कहता हूं कि देश के मौजूदा हालात को देखते हुए वे अभी क्रांति और कम्युनिज्म के एजेंडा को कुछ समय के लिए दरकिनार करते हुए जनतंत्र को बचाने के एजेंडा पर सक्रिय हो जाएं। ऐसा मैं इसलिए कहता हूं कि हमारे देश में आज जनतंत्र पर ही खतरा मंडरा रहा है जो मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद और भी ज्यादा खतरनाक रूप ले चुका है। हमें इस पर बहुत गंभीरता से सोचने की जरूरत है क्योंकि अगर जनतंत्र ही नहीं रहेगा तो समाजवाद या साम्यवाद की भी कल्पना नहीं की जा सकती।
अब मैं थोड़ा बौद्धिक कर्म और बुद्धिजीवियों की भूमिका की चर्चा करना चाहूंगा। यह एक अजीब सी बात है कि हमारी पूरी सोच यूरो सेंट्रिक या अमेरिका सेंट्रिक है। आप खुद देखिए कि अखबारों से आपको यूरोप और अमेरिका के बारे में तो काफी कुछ जानकारी मिल जाती है लेकिन भूटान, मालदीव, बांग्लादेश या अगल-बगल के देशों की घटनाओं की कोई जानकारी नहीं मिलती। वैसे भी मीडिया का लगातार ह्रास होता गया है। अब से 30 साल पहले कम पन्नों के अखबार निकलते थे, एक या दो संस्करण निकलते थे लेकिन किसी न किसी रूप में पूरे देश या कम से कम पूरे प्रदेश की जानकारी मिल जाती थी। लेकिन आज 30-30 पेज के अखबार निकलते हैं, उनके बीसियों संस्करण निकलते हैं लेकिन पौड़ी की खबर श्रीनगर को नहीं या देहरादून की खबर मसूरी के लोगों को नहीं मिलती जबकि ये इलाके एक-दूसरे से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर हैं। अब खबरें स्थानीय पृष्ठों तक सिमट कर रह गयी हैं। मैं इसे मीडिया का विकास कैसे कहूं जब सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में लोग लगातार एक-दूसरे से कटते जा रहे हों। दरअसल हमने प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी के विकास को मीडिया का विकास समझने की भूल की। मीडिया आज मिस-इन्फॉरमेशन और डिस-इन्फॉरमेशन फैलाने में लगा है। सत्ता ने सूचना को या कहें कि खबरों को एक हथियार बना लिया है- जनता को गलत सूचनाएं देना। इस हथियार का मुकाबला हमें इसी हथियार से करना होगा अर्थात जनता को ज्यादा से ज्यादा सही सूचनाएं पहुंचाना। मैंने तीसरी दुनिया के माध्यम से इसी काम को लगातार आगे बढ़ाया है। हमें नए-नए तरीके विकसित करने होंगे ताकि जनता को सही जानकारियों से लैस कर सकें। अगर हम लोगों को जागरूक बना सकें तो सामाजिक बदलाव में लगी शक्तियां खुद-ब-खुद उनका सही इस्तेमाल कर लेंगी।
मैं बौद्धिक कर्म की बात कर रहा था। दुनिया के कुछ देशों में ऐसे उदाहरण देखने को मिले हैं जहां बुद्धिजीवियों ने पहल की और उनके सांस्कृतिक संगठनों ने आगे चलकर एक ऐसे राजनीतिक संगठन का रूप लिया जिसने सशस्त्र संघर्ष के जरिए अपने देश से विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंका। मैं यहां अफ्रीका के तीन देशों का जिक्र करना चाहूंगा जो पुर्तगाली उपनिवेश थे और जहां संस्कृतिकर्मियों ने मुक्ति आंदोलनों की शुरुआत की। ये देश हैं- अंगोला, मोजाम्बीक और गिनी बिसाऊ। अंगोला में युवा कवि अगोस्तिनो नेतो, मोजाम्बीक में एडुवार्डों मोण्डालेन और गिनी बिसाऊ में अमिल्कर कबराल नामक बुद्धिजीवियों ने पुर्तगाल की राजधनी लिज्बन में छात्र रहते हुए एक सांस्कृतिक संगठन की स्थापना की जिसका नाम अगर अंग्रेजी में कहें तो ‘लेट अस डिस्कवर अफ़्रीका’ था। यही संगठन आगे चलकर अंगोला में एमपीएलए (पीपुल्स मूवमेंट फॉर दि लिबरेशन ऑफ अंगोला), मोजाम्बीक में फ्रेलिमो (फ्रंट फॉर दि लिबरेशन ऑफ मोजाम्बीकद्) और गिनी बिसाऊ में ‘पीएआईजीसी’ (अफ्रीकन पार्टी फॉर दि इंडिपेंडेंस ऑफ गिनी ऐंड केपवर्डे) के नाम से सक्रिय हुआ और सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत करते हुए 1975 में इसने पुर्तगाली उपनिवेश से अपने-अपने देशों को आजाद कराया। अगोस्तीनो नेतो की कविताएं और अमिल्कर कबराल के संस्कृति से संबंधित लेख हिन्दी सहित दुनिया की सभी भाषाओं में चर्चित और उपलब्ध हैं।
दूसरी घटना का संबंध भी पश्चिम अफ्रीकी देश नाइजीरिया से है… मैं यहां जानबूझ कर इन देशों का उदाहरण दे रहा हूं क्योंकि तीसरी दुनिया के देशों की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों और हमारे देश की परिस्थितियों में काफी समानता दिखायी देती है। पहली बात तो यह है कि यहां अधिकांश देश ब्रिटेन के गुलाम रहे, इनकी समाज व्यवस्थाएं काफी हद तक पिछड़ी रहीं और इनमें से अधिकांश देश चूंकि भारत की तरह कृषि प्रधान थे इसलिए इनके मुहावरे भी हमारे मुहावरों से काफी मिलते-जुलते हैं। विडंबना यह है कि हम इन देशों के बारे में कम बल्कि बहुत कम जानते हैं… तो मैं नाइजीरिया की बात कर रहा था। 1965 में नाइजीरिया में सैनिक तानाशाहों ने फर्जी चुनाव कराए और अपने पक्ष में नतीजे घोषित कराने लगे। वहां के एक कवि हैं वोले सोयिंका जिन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिल चुका है। उन दिनों वह युवा थे और कवि के रूप में उनकी एक पहचान बनी हुई थी। उन्होंने जब देखा कि रेडियो लगातार झूठी खबरें प्रसारित कर रहा है तो आवेश में आकर उन्होंने एक बंदूक उठायी और सीधे रेडियो स्टेशन में घुस गए, समाचारवाचक के सामने से माइक अपने सामने किया और ऐलान किया कि सारी झूठी खबरें प्रसारित हो रही हैं और चुनाव में जबर्दस्त धांधली हुई है। जाहिर सी बात है कि इसके बाद उन्हें गिरफ्तार होना ही था। वह जेल गए और जेल में ही उन्होंने एक बड़ी शानदार किताब लिखी। 1996 में वोले सोयिंका ने सैनिक तानाशाह सानी अबाचा के खिलाफ गुप्त रूप से एक रेडियो स्टेशन स्थापित किया और जनता को सरकार के खिलाफ विद्रोह के लिए प्रेरित करते रहे। अब आप खुद देखें कि 1965 में जिस जज्बे के साथ उन्होंने रेडियो स्टेशन पर कब्जा किया था वह जज्बा नोबेल पुरस्कार पाने के बावजूद 30 साल बाद भी उनके अंदर कायम था। सोयिंका कम्युनिस्ट नहीं हैं-बल्कि उन्हें कम्युनिस्ट विरोधी भी कहा जा सकता है लेकिन वह जनतंत्र और जनतांत्रिक मूल्यों के प्रबल समर्थक हैं और जब भी कहीं जनतंत्र पर हमला देखते हैं तो पूरे साहस के साथ उसकी रक्षा के लिए खड़े हो जाते हैं। एक बुद्धिजीवी की यही सही भूमिका है। 2004 में मैं कुछ महीनों के लिए नाइजीरिया गया था और उन्हीं दिनों सोयिंका की एक पुस्तक ‘क्लाइमेट ऑफ फीयर’ प्रकाशित हुई थी जो नाइजीरिया में रिलीज होने जा रही थी। उस अवसर पर शहर में लगे बड़े-बड़े पोस्टरों और सोयिंका के प्रति आम जनता के सम्मान को देखकर मैं हैरान रह गया। तो यह होती है एक जनपक्षीय बुद्धिजीवी की भूमिका। हमें इन चीजों से सबक लेना चाहिए।
अपना वक्तव्य समाप्त करने से पूर्व मैं बुद्धिजीवियों की भूमिका के ही संदर्भ में कुछ ऐसी बातें कहने जा रहा हूं जो शायद कुछ लोगों को पसंद ना आए। हमारी यह खुशकिस्मती है कि मुख्यमंत्री आज इस समारोह का उद्घाटन करने नहीं आए। मैं आयोजकों से जानना चाहूंगा कि ऐसी कौन सी मजबूरी है जिसकी वजह से किसी बौद्धिक कार्यक्रम के उद्घाटन के लिए मुख्यमंत्री को बुलाने की जरूरत पड़ती है। उमेश डोभाल की स्मृति के कार्यक्रम का सरोकार पत्रकारिता और संस्कृति से है। उमेश डोभाल की जब हत्या हुई तब उत्तराखंड राज्य नहीं बना था और उस समय उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और इस सरकार के दिग्गज नेता मनमोहन सिंह नेगी नामक माफिया के हिमायती माने जाते थे। मुख्यमंत्री हरीश रावत आज उसी पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। वह कितने भी अच्छे आदमी क्यों न हों लेकिन वह राज्य के मुख्यमंत्री हैं और उसी कांग्रेस का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जिसके शासनकाल में उमेश डोभाल की हत्या हुई थी। कम से कम इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही आयोजकों को उन्हें बुलाने से बचना चाहिए था। मेरे सामने बैठे मेरे मित्र शेखर पाठक या राजीव लोचन शाह भी अगर मुख्यमंत्री होते तो मैं यही बात कहता।
दूसरे, पिछले सत्र में शेखर पाठक जी ने यह जो कहा कि अगर मुख्यमंत्री यहां आए होते तो हम उनको रू-ब-रू होकर बताते कि उनकी वजह से राज्य की जनता किन संकटों का सामना कर रही है। मैं उनकी इस बात से सहमत नहीं हूं। यह बताने के लिए मुख्यमंत्री को उद्घाटन के लिए बुलाने की जरूरत नहीं है। वह आएं, श्रोताओं के बीच बैठें या एक नागरिक के रूप में वक्तव्य दें इससे मुझे कोई ऐतराज नहीं है लेकिन उन्हें सम्मानजनक स्थिति देना उमेश डोभाल का अपमान है। इसके अलावा एक बात और मैं कहना चाहूंगा कि आप लोग इस तरह के आयोजनों के लिए सरकार से क्यों पैसा लेते हैं? आपका जनता पर भरोसा क्यों नहीं है? क्या आपको पता नहीं कि यह पैसा आपकी आंखों को पीलियाग्रस्त कर देता है? अभी हाशिमपुरा के जनसंहार के दोषियों की रिहाई की खबर आयी है। मैं आपको बताऊँ कि उस घटना की रिपोर्टिंग पत्रकार वीरेन्द्र सेंगर ने की थी और चौथी दुनिया नामक अखबार में बैनर न्यूज के रूप में इस शीर्षक से छपा था- ‘लाइन में खड़ा किया, गोली मारी और नहर में फेंक दिया’। यह ब्रेकिंग न्यूज थी। लेकिन दिल्ली के किसी भी अखबार ने इसे ‘लिफ्ट’ नहीं किया। दरअसल अखबारों के मालिक, संपादक और प्रमुख पत्रकार तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के इतने कृपापात्र थे कि उन्हें यह खबर ऐसी लगी ही नहीं जिसे छापा जाए। इसे रोकने के लिए वीर बहादुर सिंह ने लोगों को फोन किया हो, ऐसा भी नहीं था। होता यह है कि जब आप सत्ता से लाभ लेने लगते हैं तो आंखों पर एक ऐसा पर्दा चढ़ जाता है कि सत्ता की गड़बड़ियां आपको नजर ही नहीं आती। इसलिए कृपया ऐसे कार्यक्रमों के लिए सत्ता से दूरी बनाएं रखें और मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को बुलाने की परंपरा बंद करें। मैंने यह भी गौर किया है कि उत्तराखंड में लगभग हर महीने कोई न कोई लेखक अपनी पुस्तक का लोकार्पण किसी न किसी मंत्री से कराता है और खुद को गौरवान्वित महसूस करता है। यह अत्यंत शर्म की बात है। मैं समझता हूं कि मेरा यह कथन मुमकिन है अभी आपको कटु लगे लेकिन इस पर जरूर विचार करिएगा।
अंत में मैं जॉर्ज ऑरवेल के इस कथन से अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा कि ‘ऐट दि टाइम ऑफ यूनीवर्सल डिसीट, टेलिंग द ट्रुथ इज ए रिवोल्यूशनरी ऐक्ट’ अर्थात जब चारो तरफ धोखाधड़ी का साम्राज्य हो तब सच बोलना ही क्रांतिकारी कर्म है। धन्यवाद।
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