पंखे उतार देने से खुदकुशी नहीं टलती! असल सवाल मानसिक समस्या की स्वीकारोक्ति का है

भौतिक रूप से हमने काफ़ी तरक्की की है परन्तु वैचारिक रूप से हम अब भी यही मानते हैं कि मानसिक समस्याएं सिर्फ बड़ी उम्र के लोगों की समस्याएं हैं। इसी वैचारिक ढाँचे की वजह से हम युवाओं की मानसिक समस्याओं को स्वीकार ही नहीं कर पाते हैं। स्वीकारोक्ति किसी भी समस्या के समाधान की पहली सीढ़ी है।

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गुणवत्तापरक शिक्षा तथा मानवाधिकार का सवाल और हमारी जिम्मेदारी

जिन मानवाधिकारों की कल्पना विश्व समुदाय द्वारा की गयी है उसका मूल आधार ही गुणवत्तापरक शिक्षा है और इसके अभाव में एक सशक्त स्वतंत्र जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। शिक्षा के अभाव में व्यक्ति के जीवन की गुणवत्ता में गिरावट आती है जिसका प्रभाव कालान्तर में राष्ट्रीय स्तर पर परिलक्षित होता है। गुणवत्तापरक शिक्षा के अभाव का सबसे ज़्यादा असर गरीबी में जीवनयापन करने वाले लोगों पर ही पड़ रहा है जो सीधे सीधे उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन है।

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कोरोना पर तो देर-सवेर विजय पा लेंगे, लेकिन नष्ट हो रही सामाजिक विरासत का क्या?

सोशल मीडिया पर नकारात्मक विचारों की अधिकता हमारी मूल सोच को प्रभावित कर समाज में दूषित मानसिकता को बढ़ावा देती है।

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उदासीनता की महामारी ने सरकार और समाज के खोखलेपन को उजागर कर दिया है

कोरोना महामारी ने हमारे समक्ष प्रवासी कामगारों के सम्बंध में कई यक्ष प्रश्न खड़े कर दिये हैं। इस पर विचार करने की तत्काल आवश्यकता है। सरकारों का उदासीन रवैया सिर्फ इस महामारी की उपज नहीं है।

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