नरेंद्र मोदी के पैदा किये सवालों के जवाब राहुल गांधी के पास हैं, लेकिन वही उनकी चुनौती भी हैं!

राहुल गांधी के भाषण हों या पत्रकार वार्त्ताएं, देश की आर्थिकी के संबंध में वे खुल कर अपने विचार व्यक्त करते हैं और तब यह सोच कर ताज्जुब होता है कि मनमोहन सिंह के दस वर्षों के शासनकाल में उनकी ऐसी सोच कहां थी, जब वे संविधानेतर शक्ति के रूप में सत्ता पर बेहद प्रभावी थे।

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‘विफल स्टेट’ और ‘स्टेट की विफलता’ दो अलग बातें हैं, शातिर मीडिया का खेल समझिए!

मीडिया इतना शातिर बन गया है, यह इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी है क्योंकि वही है जो स्टेट के शीर्ष पर बैठे लोगों की विफलताओं को स्टेट की विफलता घोषित कर लोगों के आक्रोश की धार को मोड़ने की कोशिश कर रहा है। वह हमें बताना चाहता है कि हमने ऐसा ही स्टेट बनाया है तो आज इस भयंकर त्रासदी में तमाम विफलताओं के सबसे बड़े दोषी हम ही हैं।

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कुशाभाऊ के भतीजों की मौत और ‘गैंगस्टर पूंजीवाद’ में बदल चुके एक विचार की जकड़बंदी

भाजपा के पितृपुरुष के परिवारीजन सही इलाज के बिना तड़प-तड़प कर मर गए।
पता नहीं, बैकुंठ में बैठे कुशाभाऊ ठाकरे क्या सोच रहे होंगे इस पर। उन्होंने अपने जीवन और चिंतन का बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा राम मंदिर आंदोलन में लगाया था। क्या उनके मन में आ रहा होगा कि जितनी ऊर्जा मन्दिर के लिये लगायी, अगर उतनी ऊर्जा देश और राज्य के अस्पतालों की दशा सुधारने के लिए लगाते तो आज उनके भतीजे अकाल मौत न मरते…?

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आंदोलन उम्मीद जगाता है कि बैलों की तरह मनुष्य खेती से चुपचाप बेदखल नहीं किए जा सकते!

आंदोलन उम्मीदें जगाते हैं, मनुष्यों की चेतना का परिष्कार करते हैं। किसान आंदोलन भी उम्मीदें जगा रहा है, चेतनाओं का परिष्कार कर रहा है। तभी तो, बेरोजगारों के मानस में भी उथल-पुथल के संकेत नजर आने लगे हैं, छात्रों का जुड़ाव भी आंदोलित किसानों से होता जा रहा है, कामगारों के बीच भी हलचल मच रही है।

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‘अर्जित’ विचारहीनता और संवेदनहीनता का उत्सव मनाते मध्यवर्ग से आंदोलन कोई उम्मीद क्यों पालें?

वैचारिक दरिद्रता इन्हें विरासत में नहीं मिली है बल्कि इन्होंने इसे बाकायदा ‘अर्जित’ किया है। तभी, जो इनके पिताओं और दादाओं के लिए रोल मॉडल थे वे इनके लिए इतिहास के खलनायक हैं जिन्होंने ‘’70 साल में देश का बंटाधार कर दिया है”।

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