‘विफल स्टेट’ और ‘स्टेट की विफलता’ दो अलग बातें हैं, शातिर मीडिया का खेल समझिए!


‘विफल स्टेट’ और ‘स्टेट की विफलता’- दोनों दो बातें हैं। उसी तरह, जैसे विफल सिस्टम और सिस्टम की विफलता अलग-अलग बातें हैं।

जब आप स्टेट को ही विफल घोषित करते हैं तो बड़ी चतुराई से स्टेट के शीर्ष पर बैठे लोगों को उनकी विफलताओं के लिए बचा रहे होते हैं। एक नामचीन पत्रिका ने अपने आवरण पर बड़े हर्फ़ों में अपनी आवरण कथा का शीर्षक दिया, ‘विफल स्टेट’। बैकग्राउंड में जलने की प्रतीक्षा में पड़ी लाशों की लंबी लाइन की फोटो है।

मीडिया इतना शातिर बन गया है, यह इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी है क्योंकि वही है जो स्टेट के शीर्ष पर बैठे लोगों की विफलताओं को स्टेट की विफलता घोषित कर लोगों के आक्रोश की धार को मोड़ने की कोशिश कर रहा है। वह हमें बताना चाहता है कि हमने ऐसा ही स्टेट बनाया है तो आज इस भयंकर त्रासदी में तमाम विफलताओं के सबसे बड़े दोषी हम ही हैं।

सूचना क्रांति के इस दौर में मीडिया के इतने रूप सामने आ चुके हैं कि तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया जो नैरेटिव सेट करना चाह रहा है उसमें वह पूरी तरह सफल नहीं हो पा रहा। सिटि‍जन जर्नलिज्म के इस दौर में हर वह व्यक्ति जिसके हाथ में स्मार्टफोन है, सूचनाओं का संवाहक है। जाहिर है, सत्ता के न चाहने के बावजूद सिस्टम की विफलताओं के सबूत निरन्तर सामने आ रहे हैं।

हम समझने की कोशिश न करें यह अलग बात है, लेकिन महामारी की इस दूसरी लहर ने हमें सख्त सन्देश दे दिया है कि सार्वजनिक सेवाओं के संचालन को लेकर हाल के दशकों में नीति नियंता जिस दिशा में आगे बढ़ रहे थे, उस पर पुनर्विचार की जरूरत है। मसलन, बीमा आधारित चिकित्सा प्रणाली जब अमेरिका जैसे प्रतापी और संपन्न देश में इस कोरोना संकट में औंधे मुंह गिर गयी तो हमारी क्या बिसात है। लोगों की जेब में स्वास्थ्य बीमा के कार्ड पड़े रह गए और अस्पतालों की देहरी पर उनका दम उखड़ता गया।

हमें देखना होगा कि स्टेट के शीर्ष पर बैठे लोग हमें किस चिकित्सा संरचना की ओर ले जा रहे थे। न सिर्फ ले जा रहे थे, बल्कि धूमधाम से ले जा रहे थे और इसे अपनी बड़ी उपलब्धि भी बता रहे थे। उनके चेले-चपाटे तो इसे युगांतरकारी उपलब्धि बताते नहीं थक रहे थे कि अब निर्धनों की जेब में मेडिकल बीमा का कार्ड होगा और वे सुपर स्पेशियलिटी वाले अस्पतालों में इलाज करा सकेंगे।

हालात सामने हैं। सुपर अस्पतालों की तो बात छोड़ ही दें, टुटपुंजिये निजी अस्पतालों ने भी कोरोना संकट में लूट का रिकॉर्ड कायम कर दिया। बाबू लोगों की जहां औकात जवाब दे रही है वहां उन निर्धनों की क्या बिसात, जो सरकारी बीमा का कार्ड लिए इधर से उधर भटकते मर गए।

इस अमानवीय लूट के सिलसिले को हम स्टेट की विफलता कहें या स्टेट के शीर्ष पर बैठे लोगों की विफलता कहें?

दरअसल, सत्ता-शीर्ष के पास इतना आत्मबल और नैतिक बल ही नहीं है कि वे इस लूट पर अंकुश लगा सकें। कानून तो जरूर होंगे, क्यों नहीं होंगे। आखिर स्टेट है, लेकिन, नियामक तंत्र विफल है और लोग हताश हैं, निरुपाय हैं।

किसी परिचर्चा में एक विशेषज्ञ बता रहे थे कि देश के चिकित्सा तंत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी 74 प्रतिशत हो गयी है जबकि सरकारी तंत्र की भागीदारी उसी अनुपात में सिकुड़ती गयी है। जान-बूझ कर डॉक्टरों और सहयोगी स्टाफ की नियुक्तियों को वर्षों से हतोत्साहित किया गया। उनके हजारों पद खाली पड़े हैं। यह स्टेट की विफलता नहीं, शीर्ष पर बैठे लोगों की विफलता है।

स्टेट सिर्फ नेताओं से नहीं चलता। अधिकारी, कर्मचारी, डॉक्टर, पारा मेडिकल स्टाफ, शिक्षक, पुलिस के जवान आदि भी स्टेट के ही अंग हैं। उनकी बड़ी संख्या अपने प्राणों को हथेली पर लेकर इस महामारी से लोगों को बचाने के लिए जूझ रही है। इस आपदा में अगर कुछ भी सकारात्मक हो रहा है तो इसमें बड़ी भूमिका ऐसे ही लोगों की है। शीर्ष पर बैठे लोगों की अक्षमता तो उजागर हो चुकी।

विशेषज्ञ कह रहे कि ऑक्सीजन की उपलब्धता के अनुपात में उसका वितरण तंत्र अक्षम साबित हुआ। मतलब यह हुआ कि ऑक्सीजन रहते भी हजारों लोग सिर्फ इसलिए उसके बिना मर गए क्योंकि उन्हें यह ससमय उपलब्ध नहीं हुआ।

पीतल पर सोना का पानी चढ़ा देने से उसकी चमक भ्रम तो पैदा करती है, लेकिन जब कसौटी पर उसे कसा जाता है तो सारी कृत्रिमता सामने आ जाती है। मीडिया ने, कारपोरेट की शक्तियों ने, राजनीतिक वर्ग ने, पीतल के बर्तनों पर सोने की रंगत डाल कर उसकी ब्रांडिंग की। ब्रांडिंग के इस दौर में कुछ भी बेच लेना आसान है, तो पीतल भी सोने के भाव बिक गया। आज जब वक्त और हालात कसौटी बन कर सामने आ गए तो क्या ‘सुशासन’, क्या ‘अच्छे दिन’, सबकी असल रंगत सामने आ गयी।

जो कॉरपोरेट के हाथों विवश हैं, अपनी अक्षमताओं के कारण विफल हैं, ऐसे सत्ताधारियों की कलई उतर चुकी है। जो जांच एजेंसियों के डर से प्रतिरोध की आवाजें बुलन्द करने में और विसंगतियों को सामने लाने में अक्षम हैं, ऐसे विपक्ष की कलई उतर चुकी है। न हमें सत्ता बचा पा रही है, न कुछ अपवादों को छोड़ कर विपक्ष हमारे हितों की आवाज उठा पा रहा है। वे सब अपनी विफलताओं के कीचड़ से सने हैं। जो जरूरत से भी अधिक बोलते थे, बोलते ही रहते थे, उनकी बोलती बंद है।

हमें बचाने की अथक कोशिशों में वैज्ञानिक लगे हैं, सिस्टम की तमाम विपन्नताओं से जूझते डॉक्टर और सहयोगी कर्मी लगे हैं, अधिकारी और पुलिस के जवान लगे हैं। हमें बचाने के लिए अदालतें आवाज उठा रही हैं, अखबारों और चैनलों के रिपोर्टर्स दौड़-भाग करते हमें सच का अक्स दिखा रहे हैं। ये तमाम लोग भी स्टेट के अंग हैं। ये विफल नहीं हैं। बावजूद इनके जूझने के, मौत के आंकड़ों की भयावहता के पीछे सबसे बड़ी विफलता स्टेट के शीर्ष पर बैठे लोगों की है।

स्टेट की विफलताओं का रोना सत्ताधारियों के चेहरों को बचाने का शातिर उपक्रम है। ऐसे चेहरों को बचाने की कोशिश है जो सिस्टम को मनुष्य-विरोधी बनाने में अपनी राजनीतिक ऊर्जा का इस्तेमाल करते रहे।

आप स्टेट के तंत्र को मनुष्य विरोधी बनाने की राह पर धकेलते जाएं और जब मनुष्य मरने लगे तो स्टेट को ही विफल घोषित कर दें? यह नहीं चल सकता। विफलताओं के जिम्मेदार सिद्धांतों की और सिद्धांतकारों की जिम्मेदारियां तय करनी होंगी।


लेखक के फ़ेसबुक से साभार प्रकाशित


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