“मैं प्रेम में भरोसा करती हूं. इस पागल दुनिया में इससे अधिक और क्या मायने रखता है?”


 
एलिज़ाबेथ वुर्त्ज़ेल के शब्दों में उनकी मौत से पहले बीता वक्त
 
 
टूटी शादियों वाली इस अस्तव्यस्त धरती से मेरा सलाम.
यह सराय अब टूटकर बिखर रहा है. चीज़ें हवा में तैर रही हैं चारों दिशाओं में. जो चीज़ उन्हें जोड़ती थी खुद उखड़ चुकी है अपनी जगह से.
सब कुछ गिर रहा है.
मेरा हमसफ़र बीते दिसंबर (2018) मुझे छोड़ गया. कैलेंडर में साल बदल रहा था उस वक्त, जब मियामी के तट पर चौंधियाने वाली सुबह की धूप में और वॉन गॉग के उकेरे आकाश तले रात में मैं टहलती थी. उस सब से दूर.
मैं जान रही थी कि वो जा रहा है, मैं अचंभित थी, लेकिन शांत.

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मुझे लग नहीं रहा था कि खेल खत्म हो गया है. मैं नहीं जानती थी कि घड़ी के कांटे अब भी घूम रहे थे. मैं पिछड़ती नहीं हूं, हां बेशक समय के पार चली जाती हूं. दरअसल बाद में पता चला कि यह खेल कुछ और ही था. जिसे मैं बेसबॉल समझती रही, वह बास्केटबॉल निकला.
मैं परे देखती रही, उधर मेरी शादी टूट गयी.
मैं औंधे मुंह गिरी थी. सब अस्तव्यस्त हो गया. बिना डोर की पतंग जैसी हो गयी मैं.
हो सकता है यही बेहतर हो.   
उसके बगैर यहां एक जामुनी शांति है. थोड़ा बेतरतीब, मन को बेचैन करती शांति.
शादी साथ रहने का एक फलसफ़ा है. एक प्रवाह है. यह सुबह की कॉफी है. यह कुत्ते को टहलाने वाली चाल है. रात में यह एचबीओ है.
और प्रेम. इसे नहीं भूलना चाहिए.
अब मैं किसी के उलझे हुए बाल सी हूं. जिसकी मुलाकातें छूट गयीं, जिसकी बैठकें रद्द हो गयीं. मैं वो हूं जो करना ही मैं भूल गयी. किसी सूखी हुई लट के सहारे मैं लटकी पड़ी हूं.
दिन भर मैं लोगों से कहती रहती हूं मुझे माफ़ कर दो. मैं पूरा जोर लगाकर भी नाकाम हूं. मैं भीख मांगती हूं, माफ़ कर दो मुझे. कहीं किसी आवारा कुत्ते पर मैं झपट न पड़ूं.
हो सकता है यही एक राह हो. तो क्या मैं जंगली बनूं?
 
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जिससे मैंने शादी की, जिम, सोचती हूं वह कितना प्यारा शख्स था. वह मेरे विश्वास का टूटना है. वह मेरा इमरजेंसी कॉन्टैक्ट है. मेरा सबसे करीबी रिश्ता है वो, मेरा वैलेंटाइन. वह मेरे बर्थडे का डिनर है. मेरा राज़दार. वह मेरा पति है.
मैं अब उसे बिलकुल नहीं जानती, तो मैं खुद को भी नहीं जानती. कौन हैं मेरे दोस्त? कहां है मेरा परिवार? मैं किसी हिमखंड की दरार में गिर पड़ी हूं गोया मैं कोई नहीं, कहीं नहीं.
मेरा दम घुट रहा है, मैं नीली पड़ रही हूं.
मैं इस अहसास के साथ नहीं जीना चाहती. दर्द के पाचों पड़ावों से एक साथ गुज़र रही हूं मैं, सब एक दूसरे से टकरा रहे हैं जैसे रॉबर्ट मोजेस की कोई साजिश हो, या कि किसी महानगर का अबूझ ट्रैफिक सिस्टम.
मैं बहुत बुरा महसूस कर रही हूं, उदास और पागल.
कहीं यह अंतर्दृष्टि तो नहीं? या फिर मैंने चीज़ों को उलझा डाला हो अपनी बेवकूफ़ी में? इसके बारे में और हरेक चीज़ के बारे में मैं लगातार अलग-अलग नतीजों पर पहुंच रही हूं.
मैंने शादी इसलिए की क्योंकि मैं अपनी सनक से ऊब चुकी थी. लेकिन एक बार फिर वही प्रेत मेरे सिर पर चढ़ आया है और मैं हिल नहीं सकती. बिलकुल 1993 सा लग रहा है जब मेरे दिल में एक काली आंख हरदम छुपी होती थी.
26 की उम्र में आत्मा बॉक्सिंग खेलती है.
उसका ज़ख्म 52 में हरा होगा, मैंने सोचा नहीं था.
 
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मैंने खुद को दोषी ठहराया है. मैंने अपने पति को दोषी माना है. मैंने कैंसर को दोषी ठहराया, मारिज़ुआना को दोषी माना. मेरे जाने सेक्सिज्म दोषी है, शार्लोविले दोषी है. मैंने अपने ससुरालियों पर आरोप मढ़े. डेविड नाम के जाने कितने पुरुषों को मैंने दोषी माना. अपनी मां पर मैंने दोष मढ़ा जो पूरी जिंदगी मुझसे मेरे बाप को लेकर झूठ बोलती रही थी.
अब तो डोनाल्ड ट्रम्प को ही दोषी ठहराना बच जाता है न! ये नहीं किया तो क्या किया?
2016 के चुनाव के बाद से मैं लगातार गुस्सा हूं. गोया वह मेरा चुनाव था, कि मिशिगन ने मेरा गैंगरेप किया हो. मैं गुस्सा नहीं होना चाहती, लेकिन हूं.
मैं किससे नफरत नहीं करती?
किस पर मैंने दोष नहीं मढ़े?
आप सामने खड़े हों तो मैं आपको भी दोषी ठहरा दूंगी.
मामला लिबरलों के खिलाफ़ कंजर्वेटिवों का नहीं है.
हर कोई हर किसी के खिलाफ़ है. इसमें हम भी शामिल हैं, सबके साथ, अकेले.
मुझे दिक्कत उन लोगों से नहीं है जिन्होंने ट्रम्प को वोट दिया और जिनसे मैं बहस में उलझ पड़ती हूं. वैसे भी मैं उन्हें जानती नहीं हूं. दिक्कत यह है कि हम सब आपस में हर बात पर सहमत हैं, फिर भी झगड़ रहे हैं. उफ्फ़, यह छोटे-छोटे मतभेदों का अहंकार.
याद नहीं पड़ता कि यह दुनिया कब इतनी सियासी नहीं थी. मैं उस तारीखी मुकदमे का हिस्सा रही हूं जो साथ काम कर रहे रिपब्लिकन्स और डेमोक्रेट्स की एक टीम को लेकर हुआ था. मैं हर किसी को प्यार करती थी. हम सब एक ही पाले में तो थे.
जंग की कौन सी वह पुकार थी जिसे मैंने माफ़ नहीं किया? कौन सी मानसिक सनक ऐसी रही जिससे मैं उबर नहीं पायी?
भीतर की छटपटाहट अब इतनी ज्यादा है कि चार पड़ोसियों को सुनाने के लिए चीखा तक नहीं जा रहा.
मेरा पति कुछ करता है और मैं अपमानित हो जाती हूं गोया वह कोई मायने रखता हो.
मैं कैसा महसूस करती हूं, वो नहीं जानता, ये मैं पक्का कह सकती हूं.
हो सकता है वो न जानता हो.
लेकिन इस सब का इससे क्या लेना देना कि हमने ब्याह क्यों किया? जाहिर है इसीलिए तो किया कि हम साथ रहना चाहते थे. प्रेम में भी दो ध्रुव पनप गए.
मैं गुस्से से निढाल हो जाती हूं. मैं बीमारी से थक चुकी हूं. सभी की तरह.
जिस दुनिया में हम जी रहे हैं, उसका जज्बाती बोझ ही हमें ले डूबेगा.
लेकिन राजनीति तो टकराव पैदा करने वाली चीज़ नहीं है.
राजनीति इस दुनिया को रहने लायक एक बेहतर जगह बनाने के लिए है.    
 
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मेरी मां ने पचास साल तक एक रहस्य मुझसे कैसे छुपाए रखा? आखिर कोई ऐसा कैसे कर सकता है?
उसने खुद को उस रहस्य में दफ़न कर लिया. उसने एक विक्टोरियाई बागीचा लगाया एकदम जंगली, जिसमें गुलाब, जामुनी लार्कस्पूर और लाल स्नैपड्रैगन की कांटेदार झाड़ियां थीं. लैवेंडर की एक झक्क हरी चादर थी वहां फैली जिससे आइक्स प्रांत की सी खुशबू आती थी. कुकरौंधे इफ़रात में उग आए थे वहां और डैफोडिल की ज़र्द पीलिमा बिग बर्ड जैसे दहकती थी.
इस सब के नीचे, लिली की घाटियों और कुषाय की कतारों तले, गर्द जमा थी.
इसी गर्द में छुपा था एक रहस्य.
मैं हरामी हूं. मैं जारज संतान हूं उनकी.
कुछ चीज़ें विस्मय की तरह सामने आती हैं.
मैं करीब आधी सदी किसी बात में विश्वास करती रही. वह झूठ निकला.
मेरे साथ धोखा हुआ था.      
खुद के बारे में मैं गलत थी.
मैं कौन हूं मैं नहीं जानती थी.
मेरी मां ने किसी को नहीं बताया.
इतने लंबे समय तक वह एक झूठ बोलती रही कि वह सच बन गया और रहस्य स्मृतियों के भी पार चला गया. उसे याद तक नहीं रहा कि मेरा बाप कौन था. उसके जाने इसका कोई मतलब भी नहीं था.
यह सब कुछ जब 2016 में पता चला, मेरे असल पिता की मौत के तुरंत बाद, जब मेरी शादी को बहुत वक्त भी नहीं बीता था, तब मां मेरी सनक का कारण समझ ही नही सकी. उसे समझ ही नहीं आया कि मैं सदमे में क्यों चली गयी.
इस बीच लगातार मेरी कोशिश रही कि मैं बहुत बुरे से बचती रहूं, मेरे भीतर का कुछ फट कर बाहर न निकल आवे. लेकिन मेरी मां को मेरी परेशानी पकड़ में नहीं आयी.
आखिर को, वह न्यूक्लियर फिजिसिस्ट जो है.
मेरी मां बेहद सामान्य है, जैसे सब हैं. वह सोचती है कि वह सामान्य है. उसे लगता है कि उसका व्यवहार अर्थपूर्ण है. उसे लगता है वह जो करती है सही करती है. चूंकि वह कल्पना तक नहीं कर सकती कि ऐसा कतई नहीं है, इसलिए उसे जब पता चलता है कि वह तो बम बनाती है, तो यह जानकर वह चौंक उठती है. 
मैं अपनी मां पर चिल्ला उठती हूं, “तुम्हारे साथ दिक्कत क्या है?”
मैं जब ऐसा कहती हूं तो उसे मेरी बात का मतलब ही नहीं समझ आता.
वह जवाब देती है, “ओह, संभालो अपने आप को.”
और उसकी आंखें विस्फारित हो जाती हैं, किसी शाकभक्षी प्राणी की आंखों पर सजे धूप के चश्मे जैसी. वह इसका फायदा उठाती है. उसे भरोसा ही नहीं होता कि हमें दोबारा इस पर बात करनी पड़ जाएगी.
“हे भगवान, फिर से वही…!”
मैं उसे तंग करना कब छोड़ूंगी?
मैं कहती हूं, “तुमने मुझसे झूठ बोला.”
वह कहती है, “वह झूठ नहीं था.”
“तो क्या था?”
“एक फैसला!”
झूठ की बुनियाद पर खड़ा कोई भी रिश्ता टूटने को अभिशप्त है. या उसके मुताबिक जो झूठ नहीं है, यानी एक और झूठ, झूठ के बारे में झूठ.
ऐसा ही है हमारे बीच. हम अभिशप्त होकर जी रहे हैं.
फिर भी, हम इसमें बने हुए हैं. मैं और मेरी मां हार मानने को तैयार नहीं हैं. वह मेरी इकलौती मां है. उसके सिवा मेरा कोई नहीं.
उसने ही यह तय किया है.
और यही सबसे दर्दनाक बात है.
उसने जिंदगी भर ऐसे दुरूह फैसले किए जिनके बारे में मुझे पता है, लेकिन अब मुझे दिख रहा है कि मैं क्या नहीं जानती थी.
इसके बावजूद दुनिया में किसी और चीज़ से ज्यादा मैं उसे चाहती हूं.
वह मेरे लिए ऐसी ही है. हर चीज़ के रास्ते में वह पड़ती है. मेरे पति में मेरी दिलचस्पी होनी ही चाहिए, लेकिन मैं अपने अतीत से क्या और कितना निकाल लाना चाहती हूं उस पर उसका अख्तियार कैसे हो सकता है.
 
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कितनी जज्बाती थी मैं.
जज्बातों का झंझावात.
मैंने जब जाना कि मेरे पिता, मेरे पिता नहीं हैं, कि मेरी मां जिंदगी भर मुझसे झूठ बोलती रही, कि जाने कितना कुछ था जो मैं नहीं जानती थी, ऐसा लगा गोया जिंदगी पर किसी ने एक बम गिरा दिया हो. एकदम हवाई बमबारी जैसा महसूस हुआ. मनीला की जंग लड़ने जैसा अहसास था वह. मैं सदमे में थी, स्तम्भित.
मुझे पता नहीं था क्या करना है.
मैं विक्षिप्त हो गयी.
मेरे भीतर रोष ही रोष था.
मेरा रोष ही मेरा अनुचर है. इसे मैं अपने साथ कहीं भी बेपरवाह साथ लिए फिरती हूं. यही मेरा इंद्रधनुष है. यही मेरी पूंजी.
मेरा रोष वह क्रीम है जिससे मैं अपनी दादी के जैसी कॉफी तैयार करती हूं जो स्वाद में उतनी बुरी भी नहीं होती.
वह मेरे सुरीले दिनों की लय है.
मेरा रोष मेरी आत्मा की पुकार है. मुझे इसको महसूस करने का हक़ है.
लेकिन मैं जज्बात के दुश्चक्र में फंस गयी थी. चीखने के अलावा मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था.
मैं क्षोभ और क्लांति के बीच फंसी पड़ी थी.
 
🖤🖤🖤
 
मेरी शादी पर जाने कितनी चीज़ों का बोझ था. सभी रिश्तों के जैसे यह रिश्ता भी नाजुक होता है. यह एल्म का वह जंगली पेड़ नहीं जो आंधी में हिलता तो है लेकिन दरकता नहीं.
एक बागीचे में शाखाओं का बिखरना हैं हम. अवांछित.
फिर भी काफी कुछ है जो हमें जोड़े हुए है. प्रेम और वक्त. कीमोथेरपी के दौरान हमारी शादी हुई थी. हम जुड़े हुए हैं.
लेकिन मेरा पति अब वैसा नहीं है जैसा था.
हां, मैं जानती हूं, अकसर ऐसा ही होता है. खुद को खोलने की राह में सबसे बड़ा दुख वह अजनबी है जो आपके सामने खड़ा है. क्या हुआ? मैं चीखना चाहती हूं. कहां जा रहे हो?
मेरे पति में एक मुलायमियत थी. मैं उसे रूई के फाहे या सिल्क का स्पर्श तो नहीं कहूंगी क्योंकि वह उससे बेहतर होता है. हां, वह प्रेम में नया था. मैं यह कह सकती हूं. मुझे यह साफ़ दिखता था. वह विस्मित था. उसने मुझे आते हुए नहीं देखा था. उसे नहीं पता था कि मेरी उसमें दिलचस्पी है. वह अपने कमरे में अकेला था. उसकी जिंदगी सीमित थी. उसके वही छह दोस्त थे जो हमेशा से रहे. वह संकोची था. साहसी नहीं था. उसके भीतर उम्मीदें नहीं थीं.
लेकिन वह प्यारा था.
शुरुआत तो हमेशा शहद सी ही होती है, मीठी और गीली.
लेकिन वह खुला था. उसका दिल साफ़ था.
उसके दिल पर हज़ारों ज़ख्म नहीं थे.   
वह इस सब से गुज़रा ही नहीं था.
उसका अतीत अभिशप्त नहीं था.
वह 34 का था, उतना जवान भी नहीं. हां, मेरे से युवा, लेकिन इतनी उम्र तक तो बहुत कुछ हो चुका होता है.
उसके साथ कुछ नहीं हुआ था.
वह टटका था.
ऐसा कुछ नहीं था जो मैं उसके लिए नहीं करती थी.
ऐसा कुछ भी नहीं था जो उसके लिए मैं चाहती नहीं थी.
हम अक्टूबर में मिले थे और मई में एक हुए.
हम जानते थे एक दूसरे को.
और अब उसने जान लिया है कि बस हो चुका.
बहुत हो चुका.
 
🖤🖤🖤
 
सबसे बड़ी बात कि किसी को कैंसर हो तो उससे शादी करना इतना आसान नहीं होता.
मुझे अपने पति के लिए दुख है.
कैंसर होना कितनी बड़ी बात है. उसकी भयावहता के आगे हर कोई लाचार है. हर सवाल का यही एक जवाब है. यही वह कारण है. यह बहाना है या फिर वास्तविक? बहस करने वाले हम कौन होते हैं? कैंसर डराता है. यह देह, दिमाग और रूह को घेरने वाला रोग है. मेरा पति इन सब से आधा मील दूर निकल लिया. काश मैं भी ऐसा कर पाती.
मैं तो अंत तक फंसी पड़ी हूं.
पता नहीं उसने किस उम्मीद में मुझसे शादी की थी जबकि मैं बीमार थी. मुझे अफ़सोस है कि उसकी चाह पूरी नहीं हो सकी. मैंने उसे दुख दिया, इसका मुझे खेद है.
कैंसर होने के बाद मैं पहले जैसी नहीं रह गयी.
मैं वैसा होना चाहती थी.
मैं चाहती थी कि मेरी जिंदगी पलट कर वैसी ही हो जाती जैसी पहले थी.
मैं कितनी जिंदादिल थी. कितनी प्यारी थी.
मैं कितना व्यस्त थी. मैं सामाजिक थी.
लेकिन मुझसे नहीं हो सका.
फिर कैसा आश्चर्य. मैं बदल गयी.
कीमोथेरपी के दौरान मैं दुनिया से कट गयी. मेरी दुनिया सिमट गयी. ऐसे सिमटी जैसे भुखमरी में सिमटी देह हो. जो खो गया उसे पाना मुश्किल है. नए सिरे से शुरू करना तो और मुश्किल.
मैंने कोशिश की थी. बहुत कोशिश. मैंने उसे कॉल किया. मेल किया. टेक्स्ट किया. फिर मैं मिली भी. 
लेकिन चीज़ें बिगड़ चुकी थीं.
कैंसर एक ईको सिस्टम है. जैसे सिलसिलेवार जुर्म.
चीज़ें टूट गयीं. मेरी सेहत. मेरी हड्डियां. मेरा जज्बा.
खत्म होने के साल भर बाद मेरा कैंसर लौट आया. 
आपको लगता है कि लोग इसके बारे में सही सोचते हैं? ना.
कैंसर को गलत समझा जाता है.
हर कोई गलत कहता है. और फिर ऐसा ही लोग करते भी हैं.
फिर मैं पलट कर गलत बोल देती हूं.
इस तरह टकराते हैं हमारे बेमेल शब्द, बम्पर कारों की तरह.
मुझे भरोसा नहीं होता कि लोग करुणा दिखाने के लिए बकवास करते हैं मुझसे, कि उन्हें कितनी कठिन चीज़ से निपटना पड़ रहा है गोया कैंसर नहीं कुछ और हो.
मुझसे कोई ये कह दे कि उसे मेरे कैंसर को लेकर अफ़सोस है, इससे बुरा मेरे लिए कुछ नहीं हो सकता.
मैं नहीं चाहती कि कोई मेरे लिए अफसोस जताए. किसी भी चीज़ को लेकर. आपने कुछ गलत नहीं किया तो अफ़सोस किस बात का? किसी के लिए भी किसी भी कारण से अफ़सोस जताना उसे आपसे दूर धकेलता है. 
वैसे भी सॉरी कहना ज्यादातर औपचारिकता ही है. इससे बेहतर कुछ भी हो सकता है. मसलन, मुझे नहीं समझ आ रहा कि क्या कहा जाए.
हमेशा लोग ही दिक्कत पैदा करते हैं. और क्या? हमारी पीड़ाएं दूसरों के साथ कायम हमारी नासमझियों के मुकाबले बहुत कम होती हैं. जिस तरह से वे हमें ठहरने का मौका नहीं देते, जानने की कोशिश नहीं करते कि सामने वाले की स्थिति में होना कैसा होता है, हमारा सही मूल्यांकन नहीं कर पाते और दुनिया को वैसे देखने की कोशिश नहीं करते जैसे हम देख रहे होते हैं. आप यदि पापमोचन करने आए हैं तो आपको पहले खुद को माफ़ करना होगा.
बरसों के संवाद मेरे पास पड़े हुए हैं इकट्ठा उन लोगों के जो सोचते हैं कि मेरे साथ कुछ बुरा हुआ है.
मैं इसे ऐसे नहीं देखती.
आप मुझे कैंसर की बुराइयों के बारे में चाहे सब कुछ बता सकते हैं. यह कह सकते हैं कि मुझे कैंसर है लेकिन आप इस से मुझे राज़ी नहीं कर सकते कि कैंसर मेरे लिए बुरा है.
कैंसर ने मुझे आशावादी बनाया है.
ये चमत्कारों के दिन हैं, हैरत के दिन हैं. बायोफार्मा और इम्यूनोथेरपी में शानदार काम हो रहा है. अद्भुत.
मैं बचायी जा चुकी हूं.
मैं खुद में एक चमत्कार हूं.
मैं अनंत में अनंत की आकृति बनाते हुए स्केट करूंगी.
मैं नुकीले नाखून और दांत हूं.
मैं कैंसर से भयभीत नहीं. मुझे लगता है कि कैंसर को मुझसे डरना चाहिए.
बीते अक्टूबर (2018) मेरे बाजू की हड्डी में पांच इंच का एक ट्यूमर हुआ. काफी बड़ा था. बाजू की हड्डी टूटने का डर था.
इससे भी बुरा यह था कि मेरे कैंसर एंटिजन 205 पर थे जबकि 25 अधिकतम स्तर है.
इस सब के बीच वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में मेरी मीटिंग थी. मुझे वहां जाना पसंद नहीं. ऐसा लगता है गोया वे गगनचुम्बी इमारतें कब्रिस्तान की निशानदेही कर रही हों. वह जगह शापित है.
जब मैं फिलाडेल्फिया में युनिवर्सिटी आँफ पेनसिल्वेनिया के बेसर सेंटर में बीआरसीए के लिए गयी तो मेरे साथ केवल मेरा कुत्ता एलिस्टेयर था.
मेरे पति ने कहा उसे काम करना है.
मेरी शादी वैसे भी नाकाम हो चुकी थी.
मेमोरियल स्लोन केटरिंग में मुझे स्टीरियोटैक्टिक रेडिएशन दिया गया. केवल तीन सत्रों में ट्यूमर हटा दिया गया. इस उपचार ने मुझे बचा तो लिया हालांकि मेरी हड्डी में पांच इंच का एक सुराख रह गया जो थाइलैंड के जंगल की किसी खोह सा दिखता है.
मेरे पति ने जब मुझसे विदा ली, मेरे ज़ख्म उस वक्त भर ही रहे थे. मुझे बाजू में बहुत दर्द हो रहा था.
 
🖤🖤🖤
 
यह एक प्रेम कहानी है.
हर शादी एक प्रेम कहानी होती है.
जो लोग एक दूसरे को दस दिन जानने के बाद भागकर वेगस चले जाते हैं और सैंड्स कसीनो के बाहर किसी शराबी में अपना गवाह खोजते हैं, वे अनायास ऐसा नहीं करते. उसमें अर्थ होता है. शादी एक बड़ी चेष्टा है. इसमें जाने की और कोर्इ वजह नहीं हो सकती, सिवाय प्रेम के.
यह निस्सार है.
मुझे खेद है कि मैं नाकाम रही.
इस विनाशकारी मेल का मुझे अफ़सोस है.
मैं इस सब के लिए माफी मांगती हूं.
मुझे लगता है कि मेरा पति इस बात को मानेगा ही नहीं कि मैंने उसे दुख पहुंचाया है. मैं जानती हूं कि मैं कैसी हूं. मेरी शख्सियत बुलंद है यह सच है लेकिन उसने मुझे पा लिया.
उसने हारी-बीमारी में भी मुझे प्यार करने का संकल्प लिया.
हमारे बीच बहुत प्यार था.
और प्रेम को रोकना कठिन है.
हमने एक दूसरे को वचन दिया जबकि हमें यह भी याद नहीं ऐसा क्यों किया.
उसने ही फैसला लिया कि अब काफी हो चुका.
वरना मैं तो एक ईश्वर में ही विश्वास रखती हूं. जिंदगी भर मैं किसी एक पर विश्वास के साथ जी सकती हूं. आप अगर मुझे नहीं रोकेंगे तो मैं खुद को नहीं रोकने वाली. जिस किस्म की मेरी आस्था है, वह आपकी तभी हो सकती है जब आपने जिंदगी भर के संकटों के बीच से खुद राह बनायी हो.
रेडिएशन से झुलस चुकी अपनी हड्डियों के भीतर काफी गहरे मैं जाने कितना कुछ महसूस कर पा रही हूं.
मैं मान नहीं सकती कि मेरे पति के साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा होगा. या फिर ऐसा नहीं हुआ रहा होगा जब हम पहली बार हैलोवीन को मिले थे, हमारी पहली डेट, जिसके बारे में उसे कुछ पता नहीं था या कि हो सकता है पता रहा हो या नहीं भी, जब वह मेरे दरवाज़े आया था एकदम अनजान.   
 
🖤🖤🖤
 
हम अपने भविष्य की बांहों में आरामकुन थे. हम उन लोगों के जैसे थे जिन्होंने कभी दि अनबियरेबल लाइटनेस आँफ बींग नहीं पढ़ी, कभी सिटी आँफ गॉड नहीं देखी, कभी एग्ज़ाइल इन गायविले के बारे में नहीं सुना, कभी नहीं सोचा कि आगे क्या होगा.
मुझे अच्छे से याद है शुरू में मेरा पति कैसा था. मैं उस शख्स को जानती हूं जिससे मैंने ब्याह किया था. मैं मानती हूं वह अब भी यहीं कहीं होगा.
उसकी पुरानी छवि को पाने के लिए मैं कैनवास पर चढ़े रंगों की परतें कुरेदे जा रही हूं.
कहीं ऐसा तो नहीं कि ये सब फ्रॉड था?
नाकाम प्रेम दूसरे के भरोसे के साथ छल करने जैसा जुर्म लगता है.
इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता.
मेरे पास कोई सूक्ष्मदर्शी है या फिर मैं अंधी हो चुकी हूं? अब मुझे ज्यादा साफ़ दिख रहा है या यह कोई विचलन है? यही सवाल मैं पूरी दुनिया के बारे में उठा सकती हूं.
ट्रम्प के चुने जाने के बाद से सेक्स और नस्ल अलग से दिखते हैं. हम वे सारी बातें जानते हैं जो कभी नहीं जानते थे. हम भरोसे की दुनिया में जी रहे थे. हम मानते थे कि हम सही रास्ते पर हैं और चीज़ें बुनियादी रूप से सुधर रही हैं. इसीलिए हमने सूरज की रोशनी में सिर उठाकर नहीं देखा.
जो कभी रहा वही सब कुछ था, यह देखने का एक अलग नज़रिया है.
मैं सोचती थी कि मेरा पति मेरी तरफ है.
मैं सोचती थी कि मैं उसे जानती हूं.
मैं जानती थी.
अब नहीं.
वह बदल चुका है.
मैं नहीं जानती उसकी मदद कैसे करूं.
उस तक कैसे पहुंचूं, मुझे नहीं पता.
कुछ भी मुमकिन है.
मैं इतना ज्यादा चीज़ों पर भरोसा करती हूं.
मैं ऐसी ही हूं.
मैं प्रेम में भरोसा करती हूं.
इस पागल दुनिया में इससे अधिक और क्या मायने रखता है?
कैसाब्लांका के अंत पर मुझे शर्म आती है! मैं तो राई के पहाड़ में ही भली ठहरी.
 
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(एलीज़ाबेथ वुर्त्ज़ेल की बीती 7 जनवरी कैंसर से लड़ते हुए मौत हो गयी। वे एक प्रखर नारीवादी लेखिका थीं। उनका यह आखिरी लेख जेन पत्रिका से उठाया गया है जिसका अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है। मूल लेख और उस पर टिप्पणी पढ़ने के लिए यहां जाएं)


About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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