बिहार विधानसभा चुनाव-2015 के प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के डीएनए की शिकायत की। नीतीश कुमार ने इसे बिहार की अस्मिता को ललकारने वाली चुनौती के तौर पर लिया। फलस्वरूप नीतीश कुमार ने बिहार के डीएनए की जाँच के लिए लाखों लिफाफे पीएमओ के पते पर भिजवा दिए। उसमें एक लिफाफा नीतीश कुमार के नाम से भी था। सूत्रों के अनुसार लिफाफे में कान का बाल था। पीएमओ ने अन्य लिफाफों को कूड़े के ढेर में फेंक दिया। सिर्फ नीतीश कुमार के नाम वाला लिफाफा डीएनए जाँच करने वाली लैब में भेजा। डीएनए रिपोर्ट तब आई, जब नीतीश कुमार फिर से एनडीए में शामिल हो गए।
सूत्रों के अनुसार डीएनए रिपोर्ट आने में हुए विलम्ब के कारण भाजपा अध्यक्ष अमित शाह नाराज थे। जब उन्हें समझाया गया कि वैज्ञानिक प्रक्रिया में देरी पर नाराज होंगे तो गलत संदेश जाएगा। हमें विज्ञान के प्रति गंभीर समझा जाने लगेगा, तो गोबर के चमत्कारी गुणों की मिट्टी पलीद हो जाएगी। गोबर के चमत्कारी गुणों की रक्षा का मिशन याद दिलाए जाने के बाद अमित शाह की नाराजगी दूर हुई।
कई नागरिक देश में वैज्ञानिक चेतना और वैज्ञानिक शोध की स्थिति पर चिंता जताते हैं। राजनीति के लिए ये चिंता की बात नहीं है। एक मंत्री का विभाग बदला गया। मंत्री के पास जो विभाग था, उसे मुख्यमंत्री ने अपने हाथ में ले लिया। मंत्री को विज्ञान विभाग दे दिया गया। राजनीतिक हलके में इसे मंत्री का ‘डिमोशन’ माना गया। अगले दिन समाचार पत्रों ने सूत्रों की मदद के बिना डिमोशन की पुष्टि की- मंत्री के कद में कटौती, महत्वहीन विभाग सौंपा गया।
विज्ञान महत्वहीन विभाग क्यों है? क्योंकि इसमें पीडब्ल्यूडी की तरह आए दिन करोड़ों के ‘टेंडर’ नहीं होते। करोड़ों के टेंडर बिना विभाग महत्वपूर्ण कैसे होगा? विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए अगर इस विभाग में भी आए दिन करोड़ों के टेंडर होने लगें, तो इस विभाग के प्रति सोच बदल जाएगी। विज्ञान भी मलाईदार विभाग हो जाएगा- मंत्री का कद बढ़ा, सौंपा गया महत्वपूर्ण विभाग। समाचार संपादक और मंत्री के बीच खास रिश्ता हो तो हेडिंग में मलाईदार विभाग भी लिखा मिल सकता है।
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी देश में वैज्ञानिक शोध की स्थिति को चिंताजनक बताया था। कई दशक तक कांग्रेस के प्रति वफादारी निभाने के बाद भी प्रणब मुखर्जी चिंताजनक स्थिति का कारण नहीं बता सके थे। देश को वैज्ञानिक चेतना और वैज्ञानिकों की जरूरत ही नहीं है। वैज्ञानिकों का कार्य राजनीतिज्ञ ही कर रहे हैं। वैज्ञानिक डीएनए बदलने की खोज में लगे हुए हैं। हो सकता है कामयाब हो जाएँ। राजनीति डीएनए के साथ चेतना बदलने की खोज पहले ही कर चुकी है। सीबीआइ की प्रयोगशाला में वो डीएनए और चेतना, दोनों बदल देती है। सीबीआई की इस वैज्ञानिक योग्यता के कारण मंडल से पैदा होने वाले कमंडल में चले गए। जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी से राजनीति शुरू करने वाले सिर्फ अपना हिस्सा बचाने में लग गए।
सीबीआइ को इस वैज्ञानिक योग्यता से सुसज्जित करने का श्रेय कोई नहीं लेना चाहता। त्याग की हमारी परम्परा इसकी इजाजत नहीं देती। भाजपा वाले कहते हैं कि ये कांग्रेस की देन है। कांग्रेस वाले कहते हैं कि ये भाजपा की देन है। किसको सच माना जाए? कांग्रेसी बताते हैं- ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछली कांग्रेस सरकार के कार्यों का ही फीता काट रहे हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने एक भी नई योजना शुरू नहीं की है। नाम बदलकर पिछली सरकार की ही योजनाओं को आगे बढ़ा रही है। कांग्रेस ने खामोशी से काम किया। भाजपा काम कम करती है, श्रेय लेने के लिए शोर अधिक मचाती है।’
सीबीआइ की वैज्ञानिक योग्यता के संबंध में भी कांग्रेस के कथन को ही सच माना जाए- ‘कांग्रेस के कार्यों को ही भाजपा अपने अंदाज में आगे बढ़ा रही है।’ कांग्रेस के पास छ: दशकों तक राज करने का अनुभव है। अनुभव झूठ नहीं बोलता है।
प्रणब मुखर्जी चश्मा लगाते थे, इसके बाद भी वे एक चश्मे की बढ़ती ‘पावर’ नहीं देख सके। अब वो सुपर पावर हो चुका है। त्याग की परम्परा का पालन करने के लिए चश्मे की पावर बढ़ाने का श्रेय भी कोई नहीं लेना चाहता। दूर दृष्टि, निकट दृष्टि ठीक करने वाला चश्मा होता तो जरूर श्रेय लिया जाता। वो मामूली चश्मा नहीं है। गुप्त दृष्टि पर लगाया जाने वाला चश्मा है- धर्म का चश्मा। वैज्ञानिक शोध की दशा पर चिंता जताने वाले प्रणब मुखर्जी इस चश्मे के पावर की वैज्ञानिकता से भली-भाँति परिचित रहे होंगे। योजनाबद्ध ढंग से चश्मे की पावर कई दशकों में बढ़ी है।
धर्म का चश्मा लगाने वालों की नजर तेज और पारखी होती है। मंदिर में माँस का टुकड़ा मिला। धर्म का चश्मा लगाने वाले बता देते हैं- ये गौमाँस का ही टुकड़ा है। मस्जिद में माँस का टुकड़ा मिलता है। धर्म का चश्मा लगाने वाले बता देते हैं- ये सूअर के माँस का ही टुकड़ा है।
दंगों में धर्म का चश्मा लगाने वालों के घर के पास एक आदमी की लाश पड़ी मिलती है। तब माँस का टुकड़ा पहचानने वाली पारखी नजर को मोतियाबिंद हो जाता है। आदमी की लाश को करीब से देखने के बाद भी पारखी नजर को समझ में नहीं आता- ये किसका माँस पड़ा हुआ है! पुलिस आती है। पंचनामे में लावारिस आदमी की लाश लिख देती है। पारखी नजर का मोतियाबिंद भी ठीक हो जाता है। वो पहचान लेती है- ये आदमी का माँस है। पुलिस लावारिस लाश को जलाए या दफनाए? मोतियाबिंद फिर उभर जाता है।
माँस बताने वालों के जुड़वा भाई होते हैं माल बताने वाले। मोटरसाइकिल पर लड़के के पीछे मुँह बाँध कर बैठी लड़की को देखकर बता देते हैं- माल है। हर जगह माल और माँस देखनी वालों की गुप्त दृष्टि में डीएनए टेस्ट करने वाली मशीन भी लगी होती है, जो देखते ही बता देती है कि मोटरसाइकिल पर बैठे लड़के और लड़की के डीएनए मैच नहीं कर रहे हैं। लड़की इनकी नजर में माल होती है। डीएनए मैच भी कर जाएँ, तो किसी और की माल होगी। गुप्त दृष्टि में लगी डीएनए टेस्टिंग लैब ही बताती है- माँस के टुकड़े का डीएनए गाय या सूअर से मैच कर रहा है।
गुप्त दृष्टि में डीएनए टेस्टिंग लैब रखने वालों की संख्या अनगिनत है। उनके इस विशेष गुण का सदुपयोग नहीं किया जाता। अंतत: वे अराजकता फैलाने का कारोबार करने वालों द्वारा संचालित विभिन्न प्रकार की रोजगार योजनाओं का लाभ उठाने लगते हैं।
जापानी वैज्ञानिक उन्नत मशीनें बना रहे हैं, जिसे रोबोट कहा जाता है। उनकी कोशिश है कि दिमाग वाला रोबोट बना सकें। दिमाग वाली मशीन बनाने के लिए जापानी वैज्ञानिकों को हमसे सीख लेनी चाहिए। हमने सदियों पहले ही दिमाग वाली मशीन बना ली है। हमारे यहाँ वो मशीनें आदम कही जाती हैं। आदम मशीनों के समूह में कोई आदम जाता है, तो मशीनें चिल्लाने लगती हैं- मारो, राक्षस आया। मशीन जाती है, तो स्वागत होता है- भाई आया। भाई आया।
जापान अपनी इंजीनियरिंग क्षमता का आकलन करना चाहता है, तो वो हमारी आदम मशीनों का दिमाग ठीक कर दिखाए। जापान भले ही दिमाग वाली मशीनें बना ले, पर विश्वगुरु इंजीनियरिंग के तहत निर्मित आदम मशीन कभी नहीं बना सकता। हमारी आदम मशीनें प्रजनन भी करती हैं।
विश्वगुरु, हमें अतीत पर गर्व करना सिखाने वाला शब्द। गर्व कब घमंड में बदल गया, पता ही नहीं चला। अतीत के घमंड में वर्तमान हाथ से फिसल गया।
जब जीरो दिया मेरे भारत ने दुनिया को तब गिनती आई, देता न दशमलव भारत तो यूं चाँद पे जाना मुश्किल था। मेरे भारत ने दुनिया को बहुत कुछ दिया। पर दुनिया को बहुत कुछ देने वाले मेरे भारत का वर्तमान बीमार है। अतीत पर गर्व करते-करते मेरे भारत का वर्तमान दशमलव जीरो हो गया है। मेरा भारत अपने वर्तमान पर दुखी भी नहीं हो पाता। ये दु:ख भी अतीत से ढोकर लाता है। मेरे भारत का वर्तमान दु:ख अतीत से आयात करता है और विकास विदेश से आयात करता है। सुख बाजार से खरीद लेता है, जो कुछ घंटों बाद ही फीका पड़ जाता है। नए मोबाइल का सुख खरीदा। दो चार दिन बाद उससे बढ़िया मोबाइल आ जाता है। सुख फीका पड़ जाता है।
मानता हूं कि अतीत में भारत के दर्शन और खोजों ने दुनिया को नई राह दिखाई। साहित्य और दर्शन की उच्चता की रचना की। उच्चता के प्रभाव से धर्मगुरु इंजीनियरिंग ने उसे आसानी से भगवान साबित कर दिया। सत्ता और श्रेष्ठता के वैश्विक छल-कपट-प्रपंच के तौर-तरीकों से सावधान करने वाले साहित्य और दर्शन को पूज्य बना कर उसे मार दिया। पूँजी के खोटे सिक्के से विश्वास के खरे सिक्के को प्रचलन से बाहर कर दिया। साहित्य और दर्शन की व्यंजना और लक्षणा को अभिधा में बदल दिया। बदलाव को मान्यता दिलाने के लिए अपने षड्यंत्रकारी साहित्य और दर्शन से आदम को मशीन बना, व्यंजना शक्ति का लोप कर दिया। उसे घटित इतिहास साबित कर दिया। नतीजा, ‘इतिहास खुद को दोहराता है’ की उम्मीद में अवतार का इंतजार किया जा रहा है। इंतजार का समय काटने के लिए जो हो रहा है उसे होने दिया जा रहा है- ‘छोड़िए, वही सब ठीक करेगा।’ प्रतिरोध के प्रतीक शब्दों के अर्थ की हत्या कर अनर्थ को स्थापित कर दिया।
शब्द भी सदियों से एक संघर्ष कर रहे हैं। शब्दों का संघर्ष उनके अर्थों की हत्या करने वालों से अनवरत चला आ रहा है। शब्दों के हत्यारों ने चेतना और स्वतंत्रता को बंधक बना लिया है। मस्तिष्क को कूड़ेदान बना दिया है। विभिन्न प्रकार के भेष धर तिजोरी के दुभाषिये कूड़ेदान की बजबजाहट बढ़ाते जा रहे हैं। शब्दों के निरर्थक अर्थों के कचरे को आकर्षक आवरणों में लपेट कूड़ेदान में फेंकते जा रहे हैं। तिजोरी के दुभाषियों ने आत्मा और मस्तिष्क को जोड़ने वाले प्रेम के धागे को ‘चटकाय’ कर तोड़ दिया है- रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय। इज्जत के बोझ तले दबाकर रीढ़ की हड्डी बदल दी है। रीढ़ की हड्डी का पानी बदल दिया है। रीढ़ की हड्डी के पानी (जल) को निकाल, वहाँ इज्जत का पानी भर दिया है। शब्दों के हत्यारों ने साबित कर दिया है कि इज्जत वाला पानी चला गया तो ‘मानुष’ उबर नहीं पाएगा। ऐसा होता भी है। आखिर क्यों न हो, जब रीढ़ की हड्डी के जिस जल का संबंध मस्तिष्क की कार्यक्षमता से होता है, वही बदल दिया जाए, तो पानी का अर्थ इज्जत क्यों न बन जाए? कभी शब्द रीढ़ की हड्डी का पानी सूखने से, कम होने से, बुढ़ापा लाते थे। जिस बुढ़ापे से मानुष उबर नहीं पाता- पानी गए न ऊबरे, मोती मानुष चून। और अब?
कैंसर, एड्स जैसी बीमारियों को लाइलाज कहा जाता है। ये साधारण बीमारियां हैं। लाइलाज महामारी का नाम है इज्जत। बचपन के बाहर कदम रखते ही ये महामारी अपने शिकंजे में लेती है और मरने के बाद भी नहीं छोड़ती। हिंदू है तो जलाओ, नहीं तो धर्म भ्रष्ट होगा। इज्जत चली जाएगी। मुसलमान है तो दफनाओ, नहीं तो धर्म भ्रष्ट होगा। इज्जत चली जाएगी। इज्जत ने दहेज जैसी हत्यारी कुप्रथा को प्रतिष्ठा के रूप में स्थापित कर दिया है।
लड़के-लड़की ने अपनी मर्जी से शादी कर ली, या शादी ही नहीं की, तो कई पीढ़ियों की इज्जत चली जाती है। तीन चार पीढ़ी पहले जो मर चुके हैं, वे भी इज्जत की महामारी से पीड़ित हैं! तीन चार पीढ़ी बाद जो पैदा होने वाले हैं, वे भी! और कौन सी महामारी या बीमारी के हाथ-पैर इतने लम्बे हैं?
ऐसा नहीं है कि शब्दों के हत्यारों ने सिर्फ अर्थों का लोप ही किया है। सुखी रहने के नए दर्शन की खोज भी की है। नए अर्थों की स्थापना की है। उनकी खोज गागर में सागर है। उनकी खोज एक शब्द की है- छोड़िए। छोड़िए, सुखी और चिंतामुक्त जीवन का सबसे आसान मंत्र है। छोड़िए का जाप करिए और तरक्की करिए। व्यंजना और लक्षणा शक्ति का लोप हो चुका है, इसलिए इस शब्द की व्याख्या से सभी परिचित नहीं हैं।
‘छोड़िए’, तीन अक्षरों के इस शब्द में महात्मा गांधी के तीनों बंदर हैं- बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो। तरक्की की रेस में शामिल प्रतिभागियों के पास समय का अकाल है। रेस जीतने के लिए नैनो सेकेंड का वक्त भी जाया नहीं होना चाहिए। बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो कहने में कई सेकेंड का वक्त लगता है। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। तो प्रतिभागियों ने समय बचाने के लिए छोड़िए की खोज की।
ग्राहक अधिकतम मूल्य पर मोल-भाव कर सकता है। छोड़िए, ग्राहक को चिरकुट समझ रखा है क्या! किराया अधिक वसूला जा रहा है। छोड़िए, कौन इनसे बहस करे! सड़क पर दुर्घटना हुई। घायल सड़क पर पड़ा कराह रहा है। छोड़िए, कौन पुलिस के पचड़े में पड़े! मोहल्ले में मवाली आ गया। छोड़िए, शरीफ मवालियों के मुँह नहीं लगते!
शरीफों के मोहल्ले में अन्याय करने वाला बदमाश आता है, तो शरीफ अपने घरों के दरवाजे खिड़कियां बंद लेते हैं। कुछ शरीफ रोशनदान पर दफ्ती लगाकर रोशनदान का रास्ता भी बंद कर देते हैं। डर लगा रहता है, बदमाश रोशनदान के रास्ते भी घर में घुस सकता है। शरीफ बनने के लिए अन्याय सहना पड़ता है! अन्याय सहने की क्षमता जितनी अधिक होती है, शराफत को उतनी अधिक प्रसिद्धि मिलती है! रोशनदान का रास्ता बंद कर अन्याय को रोकने वाले उच्चतम दर्जे के शरीफ होते हैं। शरीफों की आबादी अधिक हो जाने पर मोहल्ले का नाम देश हो जाता है।
तरक्की की रेस में शामिल प्रतिभागियों के पास ये सोचने का भी वक्त नहीं है कि बुराई नहीं देखने के लिए बुराई रोकनी पड़ेगी। बुराई रुक गई तो बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो स्वत: अमल में आ जाएंगे। पर क्या करिए, आँख पर पट्टी बाँध अंधे होने की परम्परा सिद्धांतों पर भारी पड़ जाती है। हम तो अंधे हैं जी। हमें तो कुछ दिखाई ही नहीं देता। आँख पर पट्टी बाँध अंधे होने के नाटक से छोड़िए की खोज हुई।
तरक्की की रेस धनवान बनने की दौड़ है। रेस में शामिल प्रतिभागी आश्चर्यजनक रूप से अपने पैसों को ही नजरंदाज कर रहे हैं! आर्थिक रूप से बड़ा बन चुका आदमी दान करता है, तो अखबार और टीवी में उसकी दानवीरता और दयालुता के चर्चे छा जाते हैं। आर्थिक रूप से छोटे आदमी छोड़िए के माध्यम से आए दिन कई तरीकों से दान कर रहे हैं; पर इसकी चर्चा कहीं नहीं होती। तरक्की की रेस में अंधाधुंध भाग रहे प्रतिभागी उल्लू बनाए जा रहे हैं- लक्ष्मी को ढो-ढोकर मेरे पास लाओ।
मात्र दर्जन भर व्यक्तियों पर डेढ़ लाख करोड़ से अधिक का आयकर बकाया! छोड़िए, देश के जिम्मेदार नागरिक बनिए। समय से आयकर जमा करिए। क्योंकि देश आपके पैसों से ही चल रहा है।
बिजली का कनेक्शन लिया। दो हजार रुपए धरोहर राशि के रूप में जमा किया। सात साल बाद कनेक्शन कटवाया। वापस मिले दो हजार रुपए ही। दो हजार का सात साल का ब्याज कहां गया? छोड़िए, देश के जिम्मेदार नागरिक बनिए। समय से आयकर जमा करिए। क्योंकि देश आपके पैसों से ही चल रहा है।
विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। दो हजार रुपए धरोहर राशि के रूप में जमा किया। सात साल बाद टीसी कटवाई। वापस मिले दो हजार रुपए ही। दो हजार का सात साल का ब्याज कहां गया? छोड़िए, देश के जिम्मेदार नागरिक बनिए। समय से आयकर जमा करिए। क्योंकि देश आपके पैसों से ही चल रहा है।
ब्रॉडबैंड कनेक्शन लिया। दो हजार रुपए धरोहर राशि के रूप में जमा किया। सात साल बाद कनेक्शन कटवाया। वापस मिले दो हजार रुपए ही। दो हजार का सात साल का ब्याज कहां गया? छोड़िए, देश के जिम्मेदार नागरिक बनिए। समय से आयकर जमा करिए। क्योंकि देश आपके पैसों से ही चल रहा है।
रसोई गैस का कनेक्शन लिया। दो हजार रुपए धरोहर राशि के रूप में जमा किया। सात साल बाद कनेक्शन कटवाया। वापस मिले दो हजार रुपए ही। दो हजार का सात साल का ब्याज कहां गया? कहां गया? डेढ़ लाख करोड़ का बकाया आयकर समायोजित करने में चला गया।
प्राइवेट कोचिंग में प्रवेश लिया। दो हजार रुपए धरोहर राशि के रूप में जमा किया। सात साल बाद नाम कटवाया। वापस मिले दो हजार रुपए ही। दो हजार का सात साल का ब्याज कहां गया? क्या ये भी डेढ़ लाख करोड़ का बकाया आयकर समायोजित करने में चला गया?
प्राइवेट यूनिवर्सिटी/ स्कूल में प्रवेश लिया। दो हजार रुपए धरोहर राशि के रूप में जमा किया। सात साल बाद नाम कटवाया। वापस मिले दो हजार रुपए ही। दो हजार का सात साल का ब्याज कहां गया? क्या ये भी डेढ़ लाख करोड़ का बकाया आयकर समायोजित करने में चला गया?
छोड़िए की सूची बहुत लम्बी है। खैर… छोड़िए…
छोड़िए के माध्यम से सरकार को लाखों करोड़ को दान देने वाले दानदाता किसी को हजार-दस हजार रुपए कर्ज दे दें, तो इतनी बार तगादा करेंगे कि कर्ज लेने वाला परेशान होकर आत्महत्या भी कर लेता है। आयकर के बड़े बकायेदारों का आयकर समायोजित करने और और कर्ज नहीं लौटाने वालों को बचाने के लिए सरकार ने भी धरोहर राशि की खोज कर ली। छोड़िए, कौन वसूली करने जाए।
छोड़िए तीन पीढ़ियों के गबद्दूपन का सार है। 2G, 3G और 4G की आँख पर बँधी पट्टी है। फिफ्थ, सिक्स्थ, सेवेंथ जनरेशन में तरक्की की रेस में प्रतिस्पर्धा और कड़ी होगी। वैज्ञानिक नैनो सेकेंड से छोटी इकाई की खोज करेंगे। छोड़िए वाला दर्शन छोड़िए के नैनो संस्करण की खोज करेगा। छोड़िए बोलकर सेकेंड बर्बाद करने की जगह मुँह बिचका लेगा। होंठ टेढ़ा कर लेगा। गहरी सांस ले लेगा या छोड़ देगा। गहरी सांस छोड़ने को छोड़िए के नैनो संस्करण की खोज के रूप में शायद ही मान्यता मिले? इसमें भी तो छोड़ना है।
छोड़िए की इसी परंपरा के कारण धर्म का भी क्षय हो रहा है। लोभ, लालच से दूर रहने के कारण ही उन आविष्कारकों के नाम कोई नहीं जानता, जिन्होंने करोड़ों आविष्कार किए- छोड़िए, श्रेय की इच्छा हम नहीं रखते। अगर उन आविष्कारकों का नाम ज्ञात रहता, उनके आविष्कार उनके नाम से पेटेंट रहते, तो कोई हमारी वैज्ञानिक योग्यता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगा पाता।
प्राचीन काल की घटना है। एक आविष्कारक कहीं जा रहे थे। चलते-चलते थक गए तो सुस्ताने की सोची। रास्ते में एक पेड़ नजर आया। उसी के नीचे सुस्ताने बैठ गए। आविष्कारक पानी साथ लेकर चलते थे। पानी पी लिया। पानी पी लिया तो प्यास और बढ़ गई। सोचने लगे कुछ खाने को मिल जाता तो सोने पर सुहागा हो जाता। प्यास पूरी तरह तृप्त हो जाती। तभी ऊपर से पका हुआ आम गिरा। खाने की इच्छा हुई तो आम गिरा! आइंस्टीन ने कहा है- सोचा जाय तो हर वस्तु चमत्कार है।
आम गिरने के चमत्कार से आविष्कारक अभिभूत हुए। न्यूटन सेब के पेड़ के नीचे बैठे थे। पेड़ से एक सेब गिरा तो न्यूटन ने सोचा सेब ऊपर क्यों नहीं गया? नीचे क्यों आया? और न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण बल के नियम की खोज कर दी। आविष्कारक ने भी यही सोचा और कंकड़-पत्थर जोड़ तुरंत पेड़ के नीचे लंगड़ा देव की खोज कर दी।
कालांतर में लंगड़ा देव का विस्तार हुआ। आम का पेड़ गिर गया। लंगड़ा देव आमकद हो गए। ऐसी मान्यता है कि लंगड़ा देव मनोवांछित फल देते हैं। इतिहासकार आज तक लंगड़ा देव के खोजकर्ता का नाम नहीं खोज पाए हैं। पेटेंट संस्था के अनुसार उसके पास भी इस खोज के पेटेंट का कोई आवेदन नहीं है। संस्था के अनुसार पेटेंट सिर्फ दानपेटी का कराया गया है।
आधुनिक काल में भी एक खोज हुई। राष्ट्रीय राजमार्ग पर एक यू टर्न के पास अक्सर दुर्घटनाएं होतीं। जान-माल का नुकसान होता। राजमार्ग प्राधिकरण ने वाहन चालकों को सावधान करने के लिए यू टर्न के दोनों छोरों पर बोर्ड लगवा दिया- दुर्घटना बाहुल्य क्षेत्र। कृपया धीरे चलें। इसके बाद भी दुर्घटनाएं पूरी तरह नहीं रुकीं। दुर्घटना रोकी एक आविष्कारक ने। आविष्कारक ने यू टर्न के ठीक बीच सड़क से पांच हाथ की दूरी पर तीन ईंटों के त्रिभुज में एक्सीडेंट बाबा को बैठा दिया। फलस्वरूप राजमार्ग से गुजरने वाले वाहनों की गति यू टर्न के पास पहुंचते ही कम होने लगती। एक्सीडेंट बाबा के सामने पहुंचते-पहुंचते वाहनों के पहिये पूरी तरह थम जाते। अपना वाहन रोक चालक बाबा को रुपये-दो रुपये चढ़ाते। फिर आगे बढ़ते। ईंट लेकर जाने वाले वाहन दो-चार ईंटों का चढ़ावा चढ़ा देते।
आविष्कार ने जल्द ही अपना चमत्कार दिखाया। एक्सीडेंट बाबा का विस्तार हुआ। बाबा सड़क तक आ गए। अब एक्सीडेंट बाबा के दोनों तरफ कई किलोमीटर का जाम लगा रहता है। राजमार्ग प्राधिकरण ने जिस इलाके को दुर्घटना बाहुल्य क्षेत्र घोषित किया था, वो पूरी तरफ दुर्घटनामुक्त हो गया। एक्सीडेंट बाबा की खोज करने वाले खोजकर्ता का नाम भी अज्ञात है। माना जाता है कि लंगड़ा देव और एक्सीडेंट बाबा की खोज करने वाले खोजकर्ताओं के डीएनए में समानता है।
एक्सीडेंट बाबा के पास वाहनों के पहिये थमने से रोजगार के चक्के को गति मिली है। यू टर्न पर जाम लगने से आयोजित रोजगार मेले से लाभान्वित होने वाले लाभार्थी गले में गुटखे का हार पहने, बेल्ट में सिगरेट का पैकेट दबाए, चाय्ये गरम चाय्ये करते हैं। लाभार्थी अज्ञात खोजकर्ताओं को उचित सम्मान नहीं दिए जाने के कारण नाराज भी रहते हैं। उनकी शिकायत है कि शून्य लागत असीमित मुनाफे वाली रोजगार नीति को अब तक योजना आयोग ने मान्यता क्यों नहीं दी?
एक सर्वे के अनुसार भारत में प्रति दस हजार श्रमशक्ति (लेबर फोर्स) पर सिर्फ चार साइंटिफिक रिसर्चर हैं जबकि यही आँकड़ा अमेरिका और ब्रिटेन में अस्सी है। विकासशील देशों में चीन और ब्राजील भी इंडिया से चार गुना आगे हैं। भारत में रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर जीडीपी का मात्र 0.9 प्रतिशत ही खर्च किया जा रहा है। भारत में स्नातक स्तर पर एडमिशन लेने वाले तीन सौ छात्रों में से सिर्फ एक छात्र ही पीएचडी तक की पढ़ाई कर पाता है जबकि यही आँकड़ा चीन के मामले में ग्यारह है और अमेरिका में चौंतीस है।
सर्वे के माध्यम से हमारी खोज कला पर सवालिया निशान लगाने वाले नहीं जानते कि जब धरती पर इंसानों का अस्तित्व नहीं था, तभी धर्मगुरु इंजीनियरिंग ने करोड़ों विज्ञान देव खोज लिए थे। विज्ञान देवों की खोज करने वाले एक और खोज में लगे हुए हैं। देश में धर्म के नाम पर हिंदू और मुसलमान आपस में लड़ रहे हैं। वे खोज कर रहे हैं- जिस भगवान और अल्लाह के नाम पर हिंदू और मुलसमान एक-दूसरे से लड़ रहे हैं, उस अल्लाह और भगवान के बीच धर्म के नाम पर भीषण युद्ध कब हुआ था? धर्म के नाम पर झगड़े बंद हो जाएं, उसके पहले ही धर्मगुरु इंजीनियर्स की संयुक्त टीम भगवान और अल्लाह के बीच हुए भीषण युद्ध की दास्ताँ खोज लेगी।
भगवान और अल्लाह के बीच हुए भीषण संघर्ष की अफवाह का सारांश ‘लीक’ हो चुका है, जिसके अनुसार- भगवान और अल्लाह के बीच हुए भीषण धर्मयुद्ध के दौरान ही धरती से डायनासोर का अस्तित्व समाप्त हो गया था। खोज का निर्देश ये है कि भगवान और अल्लाह के बीच धर्मयुद्ध हुआ था, तो इनके अनुयायियों को भी युद्ध जारी रखना चाहिए।
अफवाहों का युद्ध सदियों से अनवरत चला आ रहा है। हमारे यहां अगर किसी ने ये अफवाह उड़ा दी कि स्वर्ग में सुंदरता की कमी हो गई है, तो स्वर्ग की इच्छा रखने वाले अपनी अंतिम इच्छा बताएंगे- मेरी चिता के साथ सुंदर-सुंदर सामान भी जलाना। स्वर्ग में अपने साथ लेकर जाऊँगा। और अगर किसी ने ये समझा दिया कि सुंदरता की कमी का अर्थ अप्सराओं की कमी से है, तो स्वर्ग की इच्छा रखने वाले फिर से सती प्रथा शुरू करा देंगे। अपनी बहू-बेटियों को जिंदा जलाने वाली परम्परा भी स्वर्ग एलाट करती है! आदमी को बुद्धि एलॉट हुई थी; स्वर्ग की अफवाह ने आदमी की बुद्धि ले ली। धर्मगुरु इंजीनियर्स अपनी जड़ों को खोजते नहीं, खोदते हैं। हमारे यहां उपद्रव फैलाने वाली खोजों के विशेषज्ञ हैं जिनका अनुपात प्रति सौ पर नब्बे है। सर्वे के माध्यम से हमारी खोजों की वैज्ञानिकता पर सवालिया निशान लगाने वाले किस देश में साइंटिफिक रिसर्चर का प्रतिशत हमसे बढ़िया है?
पेड़ से सेब गिरा तो न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण बल की खोज की। पेड़ से आम गिरा तो हमारे अज्ञात आविष्कारकों ने लंगड़ा देव की खोज कर दी। कौन बड़ा आविष्कारक? हमने इतनी बड़ी-बड़ी खोजें की हैं, तो उपचार, तकनीकी, लोहा लक्कड़ जैसी तुच्छ खोजें क्यों करें? विदेशी ऐसी तुच्छ चीजें खोजें। हम उनका आयात करेंगे। डीएनए बदलने की खोज में भी विदेशी हमारी बराबरी नहीं कर पाएंगे। विदेशी सिर्फ धर्म लेकर पैदा होते हैं। हमारे यहां पैदा होते ही धर्म के साथ जाति का डीएनए भी ट्रांसप्लांट कर दिया जाता है। मानव उत्थान के लिए नि:स्वार्थ भाव से की गई इस खोज के खोजकर्ता का भी नाम अज्ञात है।
वैज्ञानिक दो भिन्न नस्लों का संयोग कर उन्नत बीज तैयार कर देते हैं। धर्म की प्रयोगशाला चलाने वाले नहीं चाहते थे कि आदमी की उन्नत नस्ल तैयार हो, तो उन्होंने जाति व्यवस्था का भी आविष्कार कर दिया। उन्नत बनाने वाले आदमी को भले ही हमारे यहां गोली मार दी जाती हो, पर अवनति की तरफ ले जाने वालों के पाँव पखारे जाते हैं।
विदेशी हमें कितना भी अवैज्ञानिक बता लें, रहेंगे हमसे पीछे ही। हम विश्वगुरु थे। हैं। विदेशी हमारी बराबरी कभी नहीं कर पाएंगे। सरकार पर वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा न देने का आरोप लगाने वाले नागरिक भी अपने गुप्त कान खोल लें। वे हमारी सरकारों के नुमाइंदों द्वारा आए दिन की जाने वाली खोजों से संबंधित बयान सुन लें। शिकायत दूर हो जाएगी।