“मोदी जी, जेपी के विचारों से आप कितनी दूर चले गए हैं, कृपया इस पर विचार करें”!


प्रिय मोदी जी,

8 अक्टूबर जयप्रकाश नारायण की पुण्यतिथि थी और 11अक्टूबर उनकी जयंती है; वही जयप्रकाश नारायण जो जेपी नाम से लोकप्रिय हैं. अगर महात्मा गाँधी भारत को 1947 में मिली स्वतंत्रता के वास्तुकार थे, जो इमरजेंसी के कारण 25/26 जून, 1975 को बुझ सी गयी, वो जेपी थे जिन्होंने उसे 1977 में पराजित कर हमें हमारी दूसरी स्वतंत्रता दिलाई. उनकी प्रशंसा में भारत की जन ने उन्हें ‘लोकनायक’ एवं ‘दूसरा महात्मा’ कह कर पुकारा. क्या आपको वो जेपी याद है, श्रीमान मोदी?

द्वितीय सहस्राब्दि के अंतिम क्षणों में, वाशिंगटन डीसी में लिंकन मेमोरियल के प्राचीर पर खड़े हो, ‘स्वतंत्रता’ के बारे में बात करते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने घोषणा की थी:

बीसवीं सदी की कहानी स्वतंत्रता की जीत है. हमें कभी भी, स्वतंत्रता के मायने या उन सभी लोगों के भेंट को, जिन्होंने काम किया और कूच किया, जिन्होंने स्वतंत्रता की जीत के लिए संघर्ष किया और उसी के लिए जान भी गँवा दी, को भूलना नहीं होगा.

मैं आपसे इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि जेपी ने भारत के लिए सिर्फ एक बार नहीं, बल्कि दो बार ऐसा किया – एक ज्वलंत योद्धा की तरह वे लड़े, पहले गाँधी जी के अधीन विदेशी शासन से स्वतंत्रता के लिए और बाद में अपने नेतृत्व में एक देशी ‘दरबार’ से उसी स्वतंत्रता को वापस जीतने के लिए. इस प्रक्रिया में उन्होंने अपना सब कुछ बलिदान कर दिया – अपनी जवानी, अपना परिवार, अपना स्वास्थ्य, अपना जीवन. ऐसे देशभक्त का आपको जश्न मनाना चाहिए. क्या कम से कम आपको वो याद हैं, श्रीमान मोदी?

आपको कुछ बातें और याद दिलाना चाहूँगा. जन संघ को करीब-करीब विलुप्त हो जाने से बचाने और उसे सरकार का भाग बनाने के लिए, आपके गुरु एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गहन आभार व्यक्त करते हुए 1978 में कहा था:

जेपी मात्र एक व्यक्ति का नाम नहीं, बल्कि मानवता का प्रतीक था. जब श्रीमान नारायण को याद किया जाये, तो दो तस्वीरें ज़हन में आती हैं. पहली बाणों की शैय्या पर लेटे भीष्म पितामह की याद दिलाती है. भीष्म पितामह और श्रीमान नारायण में मात्र एक ही अंतर था; जहाँ पहले ने कौरवों के लिए लड़ाई की, दूसरे ने इंसाफ की लड़ाई लड़ी. दूसरी तस्वीर क्रूस पर क्राइस्ट की, और श्रीमान नारायण की ज़िन्दगी क्राइस्ट के बलिदानों की याद दिलाती है”.

क्या आपको वो निःस्वार्थ बलिदान का अवतार याद है, श्रीमान मोदी?

मैं थोड़ा और आगे जाता हूँ. मेरा मानना है प्रधानमंत्री बनने के पूर्व आपने यह उद्घोषित किया था कि जेपी आपके नायक और आइकॉन हैं और आप स्वयं उस महान क्रांतिकारी के नेतृत्व में हुए व्यापक युवा और विद्यार्थी आन्दोलनों के उत्पाद हैं. आपने उनकी विरासत का भी दावा किया था। कम से कम क्या अब आपको वो याद आए श्रीमान मोदी?

अफ़सोस की बात है कि ऐसा लगता तो नहीं है क्योंकि पिछले छः वर्षों में और ख़ास कर के हाल में आपने जो किया है, वो जिन मूल्यों और सिद्धांतों के लिए जेपी जिये और मरे, उनके ठीक विपरीत है.

जेपी के साथ देवसहायम, साभार आउट्लुक

लीजिए, मैं आपके लिए उन सिद्धांतों और मूल्यों को बयां कर दूँ, जो जेपी अपनी विरासत के रूप में आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ गए थे:

लोकतंत्र

“संप्रभुत्व स्वतंत्र भारत की पूर्ण ताकत और प्राधिकार, इसके घटक भाग और सरकार के अंग जनता से हैं . . . ये जनता ही है जो देश और समुदाय के हित में प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग का नियंत्रण करेगी.” ‘जनता को ताकत’ जेपी का लोकतंत्र का मन्त्र हुआ करता था.

स्वतंत्रता

“स्वतंत्रता मेरे जीवन की एक किरण बन गई है और यह तब से अब तक बनी हुई है … सबसे महत्वपूर्ण, इसका अर्थ है मानव व्यक्तित्व की स्वतंत्रता, मन की स्वतंत्रता, आत्मा की स्वतंत्रता। यह स्वतंत्रता मेरे जीवन का जुनून बन गई है और मैं इसके साथ, भोजन के लिए, सुरक्षा के लिए, समृद्धि के लिए, राज्य के गौरव के लिए या किसी अन्य चीज के लिए, समझौता होते नहीं देखूँगा।”

साम्प्रदायिकता

“हालांकि लगभग हर धार्मिक समुदाय के पास सांप्रदायिकता का अपना ब्रांड था, लेकिन हिंदू सांप्रदायिकता दूसरों की तुलना में अधिक खतरनाक थी क्योंकि हिंदू सांप्रदायिकता आसानी से भारतीय राष्ट्रवाद का रूप ले सकती है और इसके सभी विरोधों को राष्ट्र-विरोधी बताया जा सकता है”।

विकास

“विकास की अवधारणा स्वतंत्र भारत को अद्भुत अद्वितीय परिकल्पित करती है, एक समाज अन्य सभी से भिन्न, स्वयं की ही एक श्रेणी में, जो मेगा औद्योगीकरण, शहरीकरण और व्यक्तिगतकरण के पश्चिमी पद्धति का पालन नहीं करेगा। भारत की एक कृषि-आधारित जन की अर्थव्यवस्था होगी जो आर्थिक विकास का एक मानचित्र तैयार करेगी, जो कि आवश्यकता-आधारित, मानव-स्केल एवं संतुलित होगी और साथ ही साथ प्रकृति और आजीविका का संरक्षण करेगी। इस तरह की ‘विकास’ प्रक्रिया लोकतांत्रिक और विकेंद्रीकृत होगी।

हिंदुत्व

“. . . जो लोग भारत के साथ हिंदुओं और भारतीय इतिहास के साथ हिन्दू इतिहास की बराबरी करने का प्रयास करते हैं, वे केवल भारत की महानता और भारतीय इतिहास और सभ्यता की महिमा को भंग कर रहे हैं। इस तरह के व्यक्ति, हालांकि यह विरोधाभास लग सकता है, वास्तव में हिंदू और स्वयं हिंदुत्व के दुश्मन हैं। न केवल वे इस नेक धर्म को नीचा दिखाते हैं और उसकी कैथोलिकता, सहिष्णुता और सौहार्द की भावना को नष्ट करते हैं, बल्कि वे राष्ट्र के ताने-बाने को कमजोर और तहस-नहस करते हैं, जिसमे हिंदू इतना विशाल बहुमत बनाते हैं।”

हिंदू राष्ट्र

“राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए चले लंबे संघर्ष में एक एकल, समग्र, गैर-संप्रदायवादी भारतीय राष्ट्रीयता की स्पष्ट अवधारणा सामने आई। वे सभी जो विभाजनकारी और संप्रदायवादी राष्ट्रवाद के बारे में बात करते थे – हिंदू या मुसलमान, वे इस राष्ट्रवाद की भावना से बाहर थे, जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विकसित हुई। आज जिस शत्रुतापूर्ण और अलगाववादी राष्ट्रवाद के बारे में हम सुनते हैं, वह स्वतंत्रता संग्राम के लोकाचार के खिलाफ है और उन सभी लोगों के विश्वास के खिलाफ है जिन्होंने इसे विकसित करने में मदद की।”

आरएसएस

“जब गांधीजी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खतरे में था, तो इसके पूरी तरह से एक सांस्कृतिक संगठन होने के बारे में कई विरोध प्रदर्शन हुए, लेकिन स्पष्ट रूप से धर्मनिरपेक्ष ताकतों की कमज़ोरी के कारण इसने अपना घूंघट हटा दिया है और भारतीय जनसंघ के पीछे की असली ताकत और नियंत्रक के रूप में सामने आ गया। जनसंघ के धर्मनिरपेक्ष विरोधों को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया जाएगा, जब तक कि वह अपने आरएसएस मशीन से मजबूती से बांधने वाले बंधन को नहीं तोड़ देता। न ही आरएसएस को एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में माना जा सकता है जब तक वह एक राजनीतिक दल का संरक्षण और प्रभावी जोड़तोड़ करता रहेगा।” (1968)

“आरएसएस को खुद को भंग कर देना चाहिए और जनता पार्टी के युवा और सांस्कृतिक संगठनों के साथ विलय करना चाहिए और मुसलमानों, ईसाइयों और अन्य समुदायों के सदस्यों को स्वीकार करना चाहिए। आरएसएस को हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को छोड़ देना चाहिए और उसकी जगह भारतीय राष्ट्रवाद को अपनाना चाहिए, जो एक धर्मनिरपेक्ष अवधारणा है और भारत में रहने वाले सभी समुदायों को अपनाता है।” (1977)

[इस बात को याद करना ज़रूरी है कि 1977 में केंद्र में सत्ता में आने के अवसर पर आरएसएस और जनसंघ के शीर्ष नेताओं – बालासाहेब देवरस, एबी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने जेपी की मौजूदगी में सांप्रदायिक राजनीति को पूरी तरह से छोड़ने और आने वाले समय में आरएसएस-जनसंघ की ‘दोहरी सदस्यता’ को समाप्त करने का संकल्प लिया था।। उन्होंने जेपी को यह भी आश्वासन दिया था कि अगर इसमें कोई बाधा आती है, तो वे आरएसएस को समाप्त करने में भी संकोच नहीं करेंगे। इस प्रतिज्ञा का पालन नहीं किया गया।]

कश्मीर

“यह हमारी आत्मा की आत्महत्या होगी, अगर भारत ने कश्मीरी लोगों को बलपूर्वक दबाने की कोशिश की… इसका मतलब होगा कि उनके लिए पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करना। यदि, कश्मीर में हम बलपूर्वक शासन करते हैं और इन लोगों को दबाते हैं और कुचलते हैं या राज्य के नस्लीय या धार्मिक चरित्र को बदलते हैं उपनिवेशण या किसी अन्य ज़रिये से, तो मेरा मानना है कि इसके मायने होंगे राजनीतिक रूप से एक सबसे भद्दा काम करना। यह सोचना कि हम अंततः लोगों को थका कर उन्हें बलपूर्वक यूनियन को अपनाने पर मज़बूर कर देंगे, स्वयं को धोखा देने जैसा है।”

आप गौर कर रहे होंगे कि मैं ये सब कैसे जानता हूँ. मैं सत्तर के दशक में चंडीगढ़ के तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट के रूप में इमरजेंसी जेल में कैद जेपी का उस दौरान संरक्षक था। इस अवधि के दौरान हमारी कई विषयों पर गहन बातचीत हो पाई और हमारे बीच एक मानवीय मित्रता और संबंध विकसित हुआ जो अक्टूबर, 1979 में उनके निधन होने तक जारी रहा। इस महान देशभक्त द्वारा एक ‘मित्र’ एवं ‘वो पुत्र जो उनके पास नहीं था’, कहलाने का दुर्लभ गौरव प्राप्त हुआ.

1975 में, एम. जी. देवसहायम एक युवा और गतिशील अफसर जो उपायुक्त और ज़िला दण्डाधिकारी, चंडीगढ़ के पद पर कार्यरत थे। मैं उन्हें तब से जानता हूँ, जब वे लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय अकादमी, मसूरी में परिवीक्षाधीन थे. वे भ.प्रा.से. में भारतीय सेना से आये थे, अपने नेतृत्व के गुणों को विकसित करके… सत्तर के दशक में चंडीगढ़ के मुख्य आयुक्त के मेरे कार्यकाल के दौरान मैंने देवसहायम को एक मेहनती, समर्पित, रचनाशील और कुशल अधिकारी के रूप में पाया, जिन्होंने कानून के शासन को बरकरार रखा और सभी के साथ अपने व्यवहार में निष्पक्ष थे, चाहे कोई कितना ही उच्च या निम्न हो। इस युवक की ज़िम्मेदारी बनी जेपी का जेलर होना. . . एक सिविल सेवक होने के नाते अपने कर्तव्यों के अलावा देवसहायम ने कुछ और भी किया। उन्होंने जेपी से लगभग दैनिक आधार पर मुलाकात की और उनके साथ गहनता से बातचीत की। उन्होंने जेपी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में माना, जिन्होंने लाखों भारतीयों को अपने अधिकारों के लिए कुदाल उठाने के लिए प्रेरित किया था। उन्होंने जेपी को उन विचारों और आदर्शों के जीवंत स्वरूप में देखा जिन्हें महात्मा गांधी ने उन लोगों में उजागर किया था, जिन्होंने हमारी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था। उन्होंने जेपी को वो सम्मान दिया जिसके वो हक़दार थे … एक नीचे पड़ाव से उभर कर जेपी ने धीरे-धीरे अपने पुराने स्वयं को फिर से प्राप्त किया और स्वयं अपने बुरे स्वास्थ्य के बावजूद वे भारत के साथ हुए गलत को सही करने के लिए अडिग रहे, यानी कि आपातकाल को हराया। देवसहायम जेपी की ईमानदारी की गरिमा, नैतिक उत्साह और सभी बाधाओं के खिलाफ लड़ने की प्रतिभा में जीवन फूँक देते थे। देवसहायम सिर्फ एक जेलर ही नहीं थे, बल्कि एक वार्ताकार भी थे, और फिर जेपी और इंदिरा गांधी के बीच तालमेल के एक अथक सूत्रधार…

चंडीगढ़ के पूर्व चीफ कमिश्नर टीएन चतुर्वेदी

ऐसा मेरा कहना नहीं है, बल्कि मेरे बॉस, चंडीगढ़ के पूर्व चीफ कमिश्नर टीएन चतुर्वेदी का कहना है, जो आगे चल कर सीएजी, संसद सदस्य और कर्नाटक के गवर्नर बने थे. जेपी ने स्वयं तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री और हरियाणा के मुख्यमंत्री को हिंदी में लिखे पत्र (03-11-1977) में इस मित्रता का ज़िक्र किया था:

जब मैं चंडीगढ़ में एक कैदी था, श्री देवसहायम अपने आधिकारिक कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का सख़्ती से पालन करने के साथ साथ, मेरे प्रति बेहद मानवीय तरीके से पेश आए। मेरे प्रति दयालुता के उनके कई कृत्यों के लिए मैं सदैव आभारी रहूँगा। इस व्यक्तिगत स्नेह के अलावा, मैं उनके प्रशासन और शासन के अनुकरणीय गुणों से बहुत प्रभावित हुआ। वे एक अत्यंत देश-भक्त, दृढ़निश्चयी और समर्पित अधिकारी हैं।

जेपी

जैसे भी यह संभव हो, श्री मोदी, जेपी के इन विचारों से आप कितनी दूर चले गए हैं- वो विचार जो भारत और इसकी संवैधानिक नैतिकता के विचार हैं- इस पर कृपया आत्मनिरीक्षण और विचार करें।

आज के भारत में, लोकतंत्र का पतन हो रहा है; स्वतंत्रता चरम खतरे में है; सांप्रदायिकता को आधिकारिक रूप से बढ़ावा दिया जा रहा है; विकास शिकारी बन चुका है; हिंदुत्व एक पंथ बन गया है; हिंदू राष्ट्र-राज्य की नीति है; आरएसएस सरकार चला रही है और कश्मीर के प्रति अमानवीय क्रूरता है और उसे सैन्यीकृत कर दिया गया है। सत्ता और प्राधिकरण की अटूट एकाग्रता के साथ, फेडेरलिज़्म और लोकतांत्रिक शासन के संस्थान/उपकरण नष्ट होते जा रहे हैं। निरपवाद रूप से, भारत का लोकतंत्र डरावने रूप से एक निरंकुश राज्य शासन का आकार ले रहा है। जेपी की विरासत को धूल में मिलाया जा रहा है.

जैसा कि मेरी दिनचर्या का भाग था, 21 जुलाई, 1975 को मैं जेपी से मिला। हमेशा की तरह हमने संसद के कामकाज सहित कई बातों पर चर्चा की, जहां आपातकाल के समर्थन का प्रस्ताव पारित किया गया था। वे बहुत परेशान थे। जब मैं निकल रहा था, उन्होंने पिछले कई दिनों में लिखे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को संबोधित एक पत्र मुझे दिया। काँपते हुए हाथों के साथ, उन्होंने कहा: “श्री देवसहायम, शायद मुझे इस पत्र को लिखने के लिए दंडित किया जाएगा, लेकिन ठीक है। मैंने अपना कर्तव्य निभा दिया।”

यह 15 पृष्ठ का हाथ से लिखा एक दस्तावेज़ था। मैंने इसे पीएमओ को भेजने से पहले पढ़ा था। यह एक काफी विस्फोटक राजनैतिक सन्देश था, जिसने प्रधानमंत्री को भी हिला कर रख दिया, जैसा मुझे बाद में ज्ञात हुआ।

अब मैं निष्कर्ष करता हूँ. आप अभी-अभी 70 वर्ष के हुए हैं और कुछ ही हफ्तों में मैं 80 वर्ष का हो जाऊँगा और अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में कदम रखूँगा। फ़िर भी, मैं सोचता हूँ कि क्या मैं आपको सलाह देने के काबिल हूँ! इसलिए, मैं यह उन शब्दों में करूँगा जो जेपी ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जुलाई 21, 1975 को लिखा था:

मैंने अपना सारा जीवन, शिक्षा खत्म करने के बाद, देश को दिया है और बदले में कुछ नहीं माँगा… क्या आप ऐसे आदमी की सलाह सुनेंगे? कृपया उस नींव को नष्ट न करें जो राष्ट्रपिताओं ने रखी थी। आपके द्वारा चुने गए मार्ग में विग्रह और पीड़ा के अलावा कुछ नहीं है। आपको एक महान परंपरा, महान मूल्य और एक कार्यशील लोकतंत्र विरासत में मिली है। उस सब का एक घिनौना मलबा पीछे मत छोड़िए। यह सब फिर से करने में एक लंबा समय लग जाएगा, लेकिन सब पुनः स्थापित किया जाएगा, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है। वे लोग जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मुकाबला किया, वे अधिनायकवाद के अपमान और शर्म को अनिश्चितता तक स्वीकार नहीं कर सकते। मनुष्य की भावना को कभी भी खत्म नहीं किया जा सकता है, चाहे वह कितनी भी गहरी रूप से कुचली क्यों न गयी हो…

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जुलाई 21, 1975 को लिखा जेपी का पत्र

मैं यहीं पर रुकता हूँ क्योंकि जो कहना था वह कह दिया गया है.


रिटायर्ड आईएएस मेजर एम. जी. देवसहायम

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