देश में ऐसे मामले कम ही हैं जहां सरकार ने अपनी गलती मानी हो और पीड़ित को किसी तरह का मुआवजा दिया हो। अपनी गलती को मान लेना सदा ही से उत्कृष्ट मानवीय गुण माना गया है, हालाँकि ऐसा व्यवहार में बहुत कम देखने में आता है। हाल में छत्तीसगढ़ सरकार ने इस मामले में एक मिसाल पेश की है।
छत्तीसगढ़ पुलिस ने 2016 में जिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और शोधकर्ताओं को क़त्ल और आतंकी गतिविधियों जैसे झूठे इल्जामों में फंसाया था, उन्हें छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकार ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के निर्देश पर प्रत्येक को रुपये एक लाख का मुआवजा अदा किया है। आरोपितों में से एक इंदौर निवासी विनीत तिवारी ने बताया कि एक लाख रुपये की राशि बैंक में जमा होने का सन्देश सोमवार को मिला, हालाँकि राशि शनिवार को ही सुकमा कलेक्टर कार्यालय द्वारा बैंक में अंतरित कर दी गयी थी। उन्होंने कहा कि उन्होंने पूरी राशि बेगुनाह होने के बावजूद क़ैद में पिस रहे ग़रीब आदिवासियों की मदद के लिए दान करने का फैसला किया है।
दरअसल, मई 2016 में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो. नंदिनी सुंदर, प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी, जेएनयू की प्रो. अर्चना प्रसाद और माकपा नेता संजय पराते के नेतृत्व में 6 सदस्यीय शोध दल ने बस्तर के अंदरूनी आदिवासी इलाकों का दौरा किया था और सरकार और नक्सलवादियों के बीच हो रहे संघर्ष में पिसते बेगुनाह आदिवासियों पर हो रहे दमन और उनके मानवाधिकारों के हनन की सच्चाई को सामने लाया था। जैसे ही तत्कालीन भाजपा सरकार को इस शोध दल के दौरे का पता चला, तत्कालीन आइजी एसआरपी कल्लूरी के इशारे पर बस्तर पुलिस द्वारा नंदिनी सुंदर, विनीत तिवारी और शोध दल के अन्य सदस्यों के पुतले जलाए गए और एसआरपी कल्लूरी द्वारा “अब की बार बस्तर में घुसने पर पत्थरों से मारे जाने” की धमकी दी गई थी।
पूरे छह महीने बाद 5 नवम्बर 2016 को सुकमा जिले के नामा गांव के शामनाथ बघेल नामक एक व्यक्ति की हत्या के आरोप में इस शोध दल के सभी छह सदस्यों के खिलाफ आइपीसी की विभिन्न धाराओं, आर्म्स एक्ट और यूएपीए के तहत फर्जी मुकदमा गढ़ा गया। बताया गया था कि शामनाथ बघेल की पत्नी ने इन लोगों का नाम लेकर नामजद रिपोर्ट की थी लेकिन जब शामनाथ बघेल की पत्नी से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मैं इनमे से किसी को नहीं जानती। ज़ाहिर है कि बदले की भावना से शोध दल के सदस्यों के नाम रिपोर्ट में शामिल किये गए थे और उन पर इतनी भयंकर धाराएं लगाईं गईं मानो ये दुर्दांत आतंकवादी हों। तब सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर छत्तीसगढ़ पुलिस को चेतावनी दी थी कि बिना सुप्रीम कोर्ट की आज्ञा लिए इन लोगों से कोई पूछताछ न की जाये और और अगर इन लोगों के खिलाफ कोई सबूत हों तो पहले सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश किये जाएं। तब कहीं जाकर दल के सदस्यों की गिरफ्तारी पर रोक लग पायी थी।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ही गठित वर्ष 2019 में एक एसआईटी जांच में इन्हें निर्दोष पाया गया और एफआइआर में से सभी छह सदस्यों के नाम निकाल दिए गए थे। उल्लेखनीय है कि मानवाधिकार हनन के इस मामले में राष्ट्रीय आयोग द्वारा समन किये जाने के बावजूद कल्लूरी आयोग के समक्ष उपस्थित नहीं हुए थे और बीमारी की वजह बताकर एक अस्पताल में भर्ती हो गए थे। विनीत तिवारी ने कहा कि मानवाधिकार आयोग और छग सरकार का शुक्रिया लेकिन मुआवजा पूरा इन्साफ नहीं है।जब तक अपराधी को सजा न मिले, इन्साफ मुकम्मल नहीं होगा। उन्होंने कहा कि हम लोगों की तो आवाज़ सुन ली गयी लेकिन न जाने कितने ही गरीब और अनपढ़ आदिवासियों को झूठे मामलों में फंसाया गया, फर्जी मुठभेड़ों में मारा गया और महिलाओं के साथ ज़्यादतियां की गईं। उनके अपराधियों को भी सजा मिलनी चाहिए। कल्लूरी ने अपने पद और अधिकारों का दुरुपयोग किया है। उनके कार्यकाल में हुए ऐसे मामलों की गंभीर जांच हो और उन्हें जिन्होंने राजनीतिक संरक्षण दिया, उन पर भी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
तिवारी ने मीडिया के लिए एनएचआरसी के मुआवजा सम्बन्धी आदेश की प्रति जारी करते हुए कहा है कि मुआवजा भुगतान का आदेश जारी करके राज्य सरकार ने स्पष्ट तौर पर यह मान लिया है कि बस्तर में राज्य के संरक्षण में मानवाधिकारों का हनन किया गया है। मानवाधिकार आयोग के इस फैसले से स्पष्ट है कि भाजपा के राज में बर्बर तरीके से आदिवासियों के मानवाधिकारों को कुचला गया था और संघ की विचारधारा से असहमत व भाजपा की नीतियों के विरोधी जिन मानवाधिकार और राजनीतिक कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों ने बस्तर की सच्चाई को सामने लाने की कोशिश की थी, उन्हें राजनीतिक निशाने पर रखकर प्रताड़ित किया गया था और उन पर ‘देशद्रोही’ होने का ठप्पा लगाया गया था।
उन्होंने कहा कि मानवाधिकार आयोग के निर्देश पर राज्य सरकार के अमल से मुआवजा देने से उन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के संघर्षों को बल मिलेगा, जो बस्तर और प्रदेश की प्राकृतिक संपदा की कॉर्पोरेट लूट के खिलाफ लड़ रहे आदिवासियों पर हो रहे राजकीय दमन को सामने ला रहे हैं और यह काम करते हुए वे खुद भी राजकीय दमन का शिकार हो रहे हैं। यही हाल कवि वरवर राव, सुधा भारद्वाज, आनंद तेलतुंबड़े, जी. एन. साईंबाबा, गौतम नवलखा, शोमा सेन आदि मानवाधिकार के कार्यकर्ताओं के साथ हुआ है। मानवाधिकार आयोग को इन मामलों का भी संज्ञान लेना चाहिए।
विनीत तिवारी ने बताया कि इस संघर्ष को इस मुकाम तक लाने में पीयूसीएल (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) की विशेष भूमिका है जिन्होंने इस मामले को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष रखा वर्ना तो आम तौर पर लोग बरी हो जाने को ही काफी समझते हैं कि जान बची तो लाखों पाए। इस मामले में जान भी बची और एक लाख रुपये भी पाए। उन्होंने कहा कि इस एक लाख रुपये की पूरी राशि को ऐसे ही बेगुनाह गरीब आदिवासी लोगों के लिए न्याय दिलाने की लड़ाई लड़ने के लिए खर्च किया जाएगा, जिन्हें झूठे इल्जामों में फंसाया गया है और जो वर्षों से जेलों में बंद हैं।