सेवा में,
जुगालिया क्लिनिक, नई दिल्ली के पीछे वाली गली में, रात को खड़े होने वाले ऑटो के नीचे बैठने वाला चितकबरा कुत्ता
विगत दिल्ली प्रवास के दौरान मुझे काटने वाले कुत्ते, ये पत्र मैं सिर्फ शिकायत करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ। ये बताने के लिए भी लिख रहा हूँ कि मैंने तुम्हारा नामकरण कर दिया है- टम्पी!
तुम्हारा नामकरण करने के लिए मुझे बहुत माथापच्ची करनी पड़ी। कई दिन तक सोचता रहा- तुम्हारे परिजनों ने तुम्हें नाम दिया होगा। अपनी भाषा में वे तुम्हें उसी नाम से पुकारते होंगे। मैं तुम्हारे परिजनों का नाम-पता नहीं जानता। जानता तो उनसे मिल तुम्हारा नाम पूछता। तुम्हारे नामकरण के पीछे एक मजबूरी है। पत्र में तुम्हारे सम्बोधन के स्थान पर ‘मुझे काटने वाले कुत्ते’ लिखता, तो तुम आहत होते- बार-बार कुत्ता कह रहा है। तुम्हें आहत होने से बचाने के लिए तुम्हारा नामकरण करना पड़ा। नाम तय करने में भी काफी माथापच्ची करनी पड़ी।
तुम्हारा नाम ऐसा रखना था, जो आदम का नहीं रखा जाता हो। कई कुत्तों के ऐसे नाम रखे गए हैं, जिन्हें सुन लगता है, मालिक ने किसी से बदला लेने के लिए रखा हो- तेरे नाम का कुत्ता पालूँ। आदम के नाम वाले कुत्तों के बीच रहते-रहते मैं कुत्तों से भी बात करने लगा हूँ। सोचता हूँ, आदम का नाम है, पता नहीं कब भौंकने की जगह बोलने लगे- आदम के नाम वाला कुत्ता। अभी तक किसी कुत्ते ने भौंकने की जगह बोलना नहीं शुरू किया, पर आदम बोलने की जगह भौंकना शुरू कर चुका है। शायद नाम का असर होगा- कुत्ते के नाम वाला आदम।
टम्पी, तुमने एहसान भी किया है। तुम्हें उस एहसान की याद दिलाने के लिए भी लिख रहा हूँ। दु:ख प्रकट करने के लिए भी लिख रहा हूँ। दु:ख है, तुमने दिल्ली के कुत्तों जैसा व्यवहार नहीं किया था। वो रात शायद तुम भूल गए होगे, जब तुमने मुझे काटा था।
रोज रात की तरह उस गली से होकर मैं अपनी गली की तरफ बढ़ रहा था। रोज की तरह उस गली में घरों के दरवाजे के सामने और गली के बीच कई कुत्ते लेटे हुए थे। सब के सब हृष्ट-पुष्ट। कुत्तों का स्वास्थ्य देख मुझे साँड़ों की याद आई।
बनारस की गलियों में साँड़ मिलते हैं। हृष्ट-पुष्ट। छुट्टा घूमने और कूड़ेदान से बीनकर खाने वालों का स्वास्थ्य देख गौशालाओं में बँधी गायों की भी याद आती है। उनके लिए नियमित चारे की व्यवस्था होती है। फिर कई प्रदेशों में गौशालाओं में सैकड़ों गायें भूख से कैसे मर गयीं? शायद चारा नकली होगा। बोरी पर लिखा रहता हो- असली पशु आहार, पर बोरी के अंदर नकली माल भरा रहता हो।
टम्पी, गौरक्षा का गोरखधंधा करने वाले चारे की बोरी की तरह होते हैं। विकास की बाढ़ में आई गौरक्षा का गोरखधंधा करने वालों की लहर जानलेवा हो गई है। जिंदगियाँ लील रही है। टम्पी, तुम्हें गोरखधंधे की एक पटकथा सुनाता हूँ।
‘‘वे विश्वविद्यालय में विज्ञान के प्रोफेसर थे। सामाजिक जीवन में विज्ञान विरोधी हैं, पेट की मजबूरी उन्हें विज्ञान की दुनिया में ले आई थी। मजबूरी में जैसा पढ़ाया जाता है, वैसा ही पढ़ाते थे। उन्हें पढ़ाने का शौक भी था। शौक पूरा करने के लिए रविवार को अवकाश नहीं लेते थे। रविवार को विशेष कक्षा लेते। विशेष कक्षा के दौरान विश्वविद्यालय की क्लास में मजबूरी में पढ़ाये गए विज्ञान पर अपने सांस्कृतिक विज्ञान की लिपाई करते। कालांतर में उन्होंने कुलपति का पद प्राप्त किया। कुलपति बनने के बाद उन्होंने पढ़ाना कम कर दिया। एक या दो क्लास ही लेते। रविवार की विशेष कक्षा भी बंद कर दी। बचे समय में ‘रिटायरमेंट प्लान’ के बारे में सोचते। उलझन में थे, कौन सा प्लान लूँ?
कुलपति के रूप में उनकी नियुक्ति में सांस्कृतिक राजनीति ने महत्वपूर्ण सहयोग किया था। फिर भी वे राजनीति से अपने संबंध को नकारते थे। कुलपति के रूप में उनकी नियुक्ति प्रक्रिया के गवाह बताते हैं, कुलपति का राजनीति से संबंध वैसा है, जैसा भाजपा का आरएसएस, विहिप, बजरंग दल आदि से है- पुत्रो न पुत्री। पुत्रो के बाद अल्प विराम लिया तो पुत्र हो गए। न के बाद अल्प विराम लिया तो पुत्री। कहीं भी अल्प विराम नहीं लिया, तो न पुत्र हुए न पुत्री। जैसी जरूरत पड़ी, वैसी व्याख्या कर दी।
यहीं से उनको सुरक्षित, शानदार, भरोसेमंद रिटायरमेंट प्लान मिला- धार्मिक राजनीति। राजनीति में गौरक्षकों की चमक देख उन्होंने अपना रिटायरमेंट प्लान तैयार किया। प्लान को अमलीजामा पहनाने के लिए आचार्य का चोला भी धारण किया। विश्वविद्यालय के खेल मैदान को गौरक्षा आश्रम में बदला। आश्रम के प्रवेश द्वार पर चेतावनी लिखवा दी- विज्ञान और वैज्ञानिकों का प्रवेश वर्जित। आश्रम खोलने के बाद विशेष कक्षा प्रतिदिन लेने लगे। कुलपति के रूप में कभी-कभार विश्वविद्यालय की क्लास में विज्ञान पढ़ाते हैं। आचार्य बन आश्रम की विशेष कक्षा में प्रतिदिन गौरक्षा का विज्ञान पढ़ाते हैं। आश्रम में आने वाले भक्त उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं भाँप पाते। राजनीति से दूरी और नजदीकी का उनका समीकरण उनके भक्तों की समझावली में नहीं है।
सुरक्षा की दृष्टि से विदेश से आयातित दो बछड़ाकद कुत्ते आश्रम में चक्रमण करते हैं। कुत्ते आश्रम में बँधे बछड़ों और बछिया से अधिक तंदुरुस्त हैं। उनकी सेवा देख आश्रम के गोवंश सोचते हैं- काश वे भी आचार्य का कुत्ता होते। गौरक्षा के नाम पर जो दान मिलता है, उसका आधा हिस्सा आचार्य और उनकी देह पर ‘तेज’ का मेकअप करने वालों के मेवे में खर्च हो जाता है। एक हिस्सा दोनों कुत्तों की सेवा में खर्च होता है। बचा एक हिस्सा गायों की नाद में रूखा-सूखा बनकर जाता है।
आचार्य का दोनों कुत्तों पर दृढ़ विश्वास है। दोनों कुत्तों को विज्ञान और वैज्ञानिकों की गंध पहचानने में महारत हासिल है। विज्ञान या वैज्ञानिक आश्रम के नजदीक से अपने रास्ते जाते हैं, तब भी कुत्ते भौंकने लगते हैं। एक बार आचार्य से मैंने पूछा-आप तो स्वदेशी वाले हैं। फिर ये विदेश से आयातित कुत्ते क्यों? ये कुत्ते तो देश में भी बनने लगे हैं।
आचार्य ने बताया- देश में बनने वाले विदेशी कुत्तों की नस्ल शुद्ध नहीं होती। कोई न कोई ‘डिफेक्ट’ आ ही जाता है। हम आश्रम की आंतरिक सुरक्षा जैसे संवेदनशील विषय को डिफेक्टिव कुत्तों के भरोसे नहीं छोड़ सकते। तुम तो जानते ही हो, हम शुद्धता का पालन करने वाले हैं।’’
टम्पी, पहले मुझे गली में मौजूद कुत्तों से डर नहीं लगता था। अब लगता है। कारण, बनारस के साँड़ हैं। वे अब जानलेवा हो गए हैं। अपने बल प्रदर्शन की चपेट में लेकर जनहानि करने लगे हैं। कुत्तों से डर का कारण वही साँड़ हैं। साँड़ों की तरह हृष्ट-पुष्ट कुत्ते। दिल्ली प्रवास के दौरान कुत्तों के डर से मुक्त होने के लिए, गली से गुजरते समय मैं प्रार्थना करता हूँ-चुपके से, पीछे से आकर मत काटना। पहले भौंक कर चेतावनी देना ताकि मुझे अपने बचाव की मोहलत मिले। टम्पी, कुत्तों से बचाव के लिए मैं जेब में ‘हड्डी’ रखता हूँ। भौंकते हुए जो कुत्ता मेरी तरफ बढ़े, उसके आगे हड्डी फेंक दूँ।
टम्पी, तुमने ऐसा नहीं किया था। तुमने धोखा दिया था। पूरा दोष तुम्हारा नहीं है। मैं तुम्हारे ‘स्टंट’ के झाँसे में आ गया था। तुम याद करो, उस रात तुम सभी कुत्तों से दूर एक ऑटो के नीचे बैठे थे। तुम याद करो, अन्य कुत्तों के पास से गुजरते समय मैं चौकन्ना था। हड्डी वाली जेब में मेरा हाथ था। तुम्हारी दयनीयता ने मुझे असावधान बना दिया।
बनारस में बंदर भी हैं। कोई बंदर अगर छलाँग लगाते समय गिर जाए, तो उसे बंदरों के समूह से निष्कासित कर दिया जाता है। निर्वासित कर दिया जाता है। मुझे लगा, शायद तुमसे भी कोई चूक हुई हो, जिसके कारण तुम किसी समूह से खदेड़े गए हो। पुराने इलाके से खदेड़े जाने के बाद नए ठिकाने की तलाश में इस गली में आए हो। नहीं, कुत्तों के साथ ऐसा कभी हुआ हो, इसका साक्ष्य नहीं मिलता। फिर मुझे लगा, तुम सबसे अलग हो। यही तुम्हारा स्टंट था। ये दिखाने का कि तुम सबसे अलग हो।
याद करो टम्पी, उस रात जब मैं ऑटो के आगे बढ़ा, तुम बिना भौंके मेरे पीछे आए और मेरी पैंट पकड़ ली। मुझे लगा तुम्हारा कोई साथी नहीं है। तुम मेरे साथ ‘शिकार’ खेलना चाहते हो। तुम्हारी दयनीयता से मेरा मन पहले से ही द्रवित था। तुम अकेले हो, ये सोचकर मैंने तुम्हारा साथ देने का मन बना लिया। मैं तुम्हारे साथ शिकार खेलने की कलाबाजी दिखाऊँ, उससे पहले ही तुम्हारे नुकीले दाँत पैंट को छेदते हुए पैर के माँस में पहुँच गए। तुम्हारे दाँत मन की नाजुक जमीन तक भी पहुँच गए। तब मुझे साक्ष्य मिला, तुम किसी समूह से खदेड़े गए हो। तुम सबसे अलग नहीं हो। तुम दिल्ली के कुत्ते नहीं हो।
दिल्ली के कुत्ते बहुत भौंकते हैं। दिल्ली में, मेरी अस्थायी गली वाले कुत्तों को एकाध दिन कोई नजर नहीं आता, जिस पर वे भौंके, तो वे एक-दूसरे पर भौंकने लगते हैं। उनके भौंकने की अदा देख लगता है, वे एक-दूसरे को काट लेंगे। एक कुत्ता दूसरे की गर्दन अपने जबड़े में फँसा लेता है। पर दाँत नहीं लगाता। वो पूछता है- ‘जब दाँत लगने लगे तो बता देना। छोड़ दूँगा।’ वे शिकार खेल अपना मनोरंजन करते हैं।
टम्पी, तुम्हें दिल्ली की राजनीति के आदर्शों का पालन करना चाहिए। अरविंद केजरीवाल सबूतों का पुलिंदा लेकर शीला दीक्षित पर चीखते थे। लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा सबूतों का पुलिंदा लेकर रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ चीखती थी। सत्ता मिलने के बाद दोनों की आवाज नहीं निकलती। या वे चीखते होंगे, आवाज नहीं निकलती होगी। चीखते-चीखते गला बैठ गया होगा। कपिल मिश्रा को याद करो। अरविंद केजरीवाल के खिलाफ सबूतों की फाइल लेकर चीख रहे थे। फाइल पर लिखा था- अरविंद केजरीवाल के खिलाफ सबूत। सबूत इतने महत्वपूर्ण थे कि चीखते-चीखते उनके दाँत लग गए, बेहोश हो गए, फिर भी हाथ से फाइल नहीं छूटी। तुम्हें समझना चाहिए, वे सबूतों की फाइल के साथ शिकार खेल रहे थे।
संसद में भी वे शिकार खेलते हैं। आरोप-प्रत्यारोप की फाइलों के साथ शिकार खेलकर क्लीनचिट की अपनी फाइलें मोटी कर लेते हैं। देश को शिकार का मनोरंजन दिखाकर अपनी पार्टियों को मिले विदेशी चंदे की फाइल गायब कर दी। उनके मनोरंजन की चपेट में आकर देश रेबीज की चपेट में है। जनता आपस में तू-तू मैं-मैं कर रही है।
टम्पी, तुम जानते होगे, पाले गए कुत्तों का साथी के अभाव में जब शिकार खेलने का मन करता है, वे मालिक के कपड़े पकड़ कलाबाजी दिखाने लगते हैं। कपड़ा फटे, उससे पहले ही मालिक प्लास्टिक वाली हड्डी उन्हें पकड़ा देता है। वे नकली हड्डी के साथ शिकार खेलने में मस्त हो जाते हैं।
टम्पी, तुम्हें भी ऐसा करना चाहिए था। तुम मेरे ऊपर भौंकते। मैं बचाव का उपाय करता। जेब में रखी हड्डी मैं तुम्हारे सामने फेंक देता। हड्डी पाकर तुम्हारी आवाज भी बैठ जाती। तुम्हारी जवान भौं-भौं, नवजात कूँ-कूँ में बदल जाती। तुम्हें फुसलाने की हड्डी बाजार में मिलती है। प्लास्टिक की। जो मैं जेब में रखता हूँ।
टम्पी, मुझे दु:ख है कि तुमने दिल्ली के कुत्तों जैसा व्यवहार नहीं किया। वे शिकार खेलते हैं। एक-दूसरे को काटने का अभिनय करते हैं। सचमुच नहीं काटते। तुम्हें दिल्ली का कुत्ता मान मैं सचमुच शिकार हो गया। हजारों कुशल अभिनेताओं के बीच रहने के बाद भी तुम्हें अभिनय करना नहीं आया। दिल्ली के अभिनेताओं से तुमने कुछ नहीं सीखा, टम्पी।
टम्पी; दिल्ली जो देश की राजधानी का नाम है, मीडिया की टीआरपी के लिए एक बड़े स्टूडियो का नाम है। इस स्टूडियो में स्वांग रचने वाले कलाकार सस्ती दर पर उपलब्ध हैं; जो नित नए स्वांग रचते हैं। दिल्ली नामक स्टूडियो में होने वाले स्वांगों को न्यूज चैनल प्रसारित करते हैं, तो दर्शकों को लगता है कि वो सच्ची घटना देख रहे हैं। स्वांगों से परे दिल्ली और देश में जन-आंदोलन होते हैं। उनकी तरफ मीडिया अपने कैमरे का मुँह नहीं घुमाती। उन आंदोलनों में सस्ती दर वाले कलाकार नहीं होते। इसलिए मीडिया उनका मुँह न देखना चाहती है, और ना ही अपने दर्शकों को दिखाना चाहती है।
टीआरपी के विज्ञापन पर चलने वाली मीडिया, टीआरपी का उपभोग करने वाले दर्शकों के सौंदर्यबोध का बारीक से बारीक ध्यान रखती है। विडम्बनाओं से भरे उनके आराम में खलल नहीं डालना चाहती। माटी के लोगों को अछूत बनाए रखने के लिए टीआरपी, कृत्रिम वैचारिकता के मेकअप से लिपे-पुते चेहरों को मौलिक साबित करती हैं। टम्पी, न्याय उसे मिलेगा, जो टीआरपी की मौत मरेगा।
टम्पी, जन-आंदोलनों के प्रति अविश्वास पैदा करने के लिए हुए आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी वर्ष-दो-वर्ष में ही भाजपा और कांग्रेस के लिए देशव्यापी चुनौती बन गई। सत्तर विधानसभा सीट वाले केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री पद के पहले-दूसरे-तीसरे सबसे बड़े दावेदार बन गए। भाजपा और कांग्रेस के लिए राष्ट्रीय चुनौती बन गए। वहीं तीन-चार सौ विधानसभा सीटों वाले प्रदेशों के लगातार मुख्यमंत्री बनने वाले अपने प्रदेश के बाहर ही नहीं निकलने पा रहे हैं। ‘बनने’ और ‘बनाने’ के खेल में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि चुनौती बनने के लिए अरविंद केजरीवाल ने हार्डवर्क किया है। हार्डवर्क का मुकाबला हार्डवर्क ही कर सकता है। यथा लोहे को लोहा ही काटता है।
जन-आंदोलनों के प्रति अविश्वास पैदा करने के लिए हुए प्रायोजित आंदोलन के सभी जंतर-मंतर अपने सभी उद्देश्यों में कामयाब हुए हैं। अविश्वास के प्रायोजक रिटर्न के रूप में वैश्विक अमीरों की सूची में नित नए पायदान ऊपर चढ़ रहे हैं। प्रायोजित समूह के नए सदस्य, सूखे का शिकार हुई धरती की तरह फटी किसानों की एड़ियों, शरीर पर बनियान की तरह चीथड़े-चीथड़े हुई तलवों की चमड़ी, बलात्कार की बेबस चीखों और निर्दोषों की हत्या के कोहराम को भी प्रायोजित होने का विश्वास दिला रहे हैं।
टम्पी, सूत्रों के अनुसार अरविंद केजरीवाल राजनीति को बदलने की शुरूआत केंद्र शासित प्रदेश अंडमान और निकोबार से करना चाहते थे। अंडमान निकोबार में दिल्ली की मीडिया की टीआरपी काम नहीं करती, इसलिए मजबूरन अरविंद केजरीवाल को राजनीति को बदलने की शुरूआत दिल्ली से करनी पड़ी। अंडमान में अरविंद केजरीवाल अपनी पीड़ा व्यक्त करते-मैं काम करना चाहता हूँ, पर वे करने नहीं दे रहे हैं; तो कौन सुनता? देश, राजनीति और मीडिया की राजधानी दिल्ली में कहते हैं, तब पूरा देश सुनता है। अरविंद केजरीवाल की पीड़ा सुनते-सुनते द्रवित हुई जनता कहेगी-आप हमारे राज्य में आ जाओ। हमारे यहाँ कोई नहीं रोकेगा। हमारा प्रदेश केंद्र शासित नहीं है।
चुनौती बनने के लिए राहुल गांधी भी हार्डवर्क कर रहे हैं। लोहे को काटने के लिए लोहा बन रहे हैं। जंग खा कर जगह-जगह से झर रहे पुराने लोहे पर नया पानी चढ़ा रहे हैं। कांग्रेस का कायाकल्प करने की कोशिश कर रहे हैं। राहुल गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नाम बदलकर कांग्रेस (नरम हिंदुत्व दल) कर देना चाहिए। गरम हिंदुत्व दल की धर्मनिरपेक्षता का पालन भाजपा कर रही है। विकास के बुलडोजर को सरपट दौड़ाने के लिए गुजरात की ऊबड़-खाबड़ जमीन समतल करने के बाद नरेंद मोदी ने धर्मनिरपेक्षता की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली है। मंदिर के साथ-साथ वे किसी मजार पर धर्मनिरपेक्षता की चादर भी चढ़ा देते हैं। वे किसी भाजपा शासित प्रदेश के मुख्यमंत्री को कह सकते हैं-अमुक (बदला हुआ नाम) ने राजधर्म का पालन नहीं किया।
टम्पी, दिल्ली में होने वाला राजनीतिक धर्मयुद्ध न्यूज चैनल की डिबेट में बैठे हिंदू और मुस्लिम धर्मगुरुओं-चिंतकों-रक्षकों के बीच होने वाले स्वांग की तरह हैं-जगह छेक कर रखनी है। इसके लिए एक-दूसरे को गाली ही क्यों न देनी पड़े। इससे टीआरपी देने की जिम्मेदारी भी पूरी हो जाती है।
टम्पी, you know ना, भारत विविधताओं का देश है। यहाँ विभिन्न धर्मों और समुदायों के लोग मिल-जुलकर रहते हैं। जिनका धर्म झूठ है, वे भी घुल-मिलकर रहते हैं। झूठ जिनका धर्म है, वे भी अपने धर्म की रक्षा को धर्मयुद्ध की संज्ञा देते हैं।
अपने-अपने नेताओं के पीछे समर्थकों को आपस में नहीं लड़ना-झगड़ना चाहिए। इससे विश्व-बंधुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश देने वाले विश्वगुरुओं के देश के प्रति दुनिया के अन्य देशों में गलत संदेश जाता है। देश की छवि खराब होती है।
छवि अति-प्रगतिवादियों और रूढ़िवादियों के बीच होने वाली डिबेट से बनती है। जेएनयू में सीट कटौती के बाद दोनों के बीच राष्ट्रद्रोह के स्तर वाली डिबेट नहीं हुई। ना ही तेरह प्वाइंट रोस्टर के खिलाफ डिबेट हुई। दोनों की छवि को लेकर देश और दुनिया में गलत संदेश जा रहा है। कहा जा रहा है- अपने-अपने पक्ष को उत्प्रेरित करते रहने के लिए 9 फरवरी 2016 को जेएनयू में ‘साझा प्रयास’ से तीन उत्प्रेरकों का क्रांतिकारी आविष्कार हुआ था- जिस पदार्थ की उपस्थिति से अभिक्रिया की गति बढ़ जाती है उसे उत्प्रेरक कहते हैं। उत्प्रेरक अभिक्रिया में भाग नहीं लेता, केवल क्रिया की गति को प्रभावित करता है। क्रांतिकारियों की प्लेसमेंट हो गई है। नए आएंगे तो उनकी प्लेसमेंट के लिए नई क्रांति होगी।
पत्र के अंत में तुम्हें धन्यवाद। तुम्हारा आभार टम्पी। तुमने मेरी आँखें खोली हैं। जख्म देने के साथ एहसान भी किया है। नकली भावनाओं की उफनती नदी में बहने से बचने का सबक सिखाया है। मैंने भी अभिनय सीख लिया है टम्पी।
प्रेषक
तुम्हारे शिकार का एक पीड़ित