चीन में मानवाधिकार की बात करना या फिर एकदलीय शासन के अंत और लोकतंत्र की स्थापना की बात करना जुर्म है, राजद्रोह है और इसलिए आज भी हज़ारों बुद्धिजीवी, पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता, वकील आदि वहां की जेलों में क़ैद हैं, यातना झेल रहे हैं या फिर अन्य देशों में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उनकी जानकारी यदा कदा ही बाहर आ पाती है, जैसे बड़े अंतर्राष्ट्रीय दबाव के बाद नोबेल शान्ति पुरस्कार 2010 से सम्मानित लिउ जिआबो जो कई वर्षों से जेल में बंद थे और आखिर में जिन्हें उपचार के लिए मौत से कुछ महीने अस्पताल में भर्ती कराया गया। आज इसी कड़ी में आगे बढ़ते हुए दूसरे भाग में गत दस वर्षों में लोकतंत्र के लिए हुए आंदोलनों और राज्य दमन की चर्चा करेंगे।
संपादक
चार्टर 08 : चीनी संविधान को लागू करने की मांग
घोर दमन के बावजूद चीन में संवैधानिक सरकार की मांग बार-बार किसी न किसी सिरे से उठती रहती है। अगस्त 2008 ओलिम्पिक के ठीक बाद उसी वर्ष दो घटनाएं हुईं- एक, मानवाधिकार दिवस के दिन 350 चीनी बुद्धिजीवियों द्वारा चार्टर 08 का प्रकाशन और दूसरा 26 अगस्त को वकीलों के एक समूह द्वारा बीजिंग लॉयर्स एसोसिएशन के सीधे चुनाव के लिए अपील जारी करना। दोनों घटनाओं की जड़ में चीन का संविधान और उसका पालन था। दरअसल डेंग जिओपिंग के दौर में चीन के आर्थिक विकास को केंद्र में रखते हुए और जरूरी सुधारों के मुताबिक पहली बार वर्ग संघर्ष की लाइन से हट कर 1982 का संविधान तैयार किया गया।
संविधान के 138 अनुच्छेदों में कम्युनिस्ट पार्टी का कोई ज़िक्र नहीं हुआ, सिर्फ़ शुरुआती प्रस्तावना में एक छोटे से उल्लेख के सिवाय जहां पार्टी की भूमिका चीन के सभी राष्ट्रीयताओं के नेतृत्व में मानी गयी। उल्टा नये संविधान में पिछले संस्करणों के मौजूद उदारवादी तत्वों को और बढ़ाया गया। अनुच्छेद 2 में माना गया कि “जिन माध्यमों से जनता राज्य की शक्ति का उपयोग करेगी, वहां नेशनल पीपुल्स कांग्रेस केंद्र में और विभिन्न स्तरों पर चुनी हुई स्थानीय कांग्रेस होंगी।” अनुच्छेद 35 आगे “बोलने की, मीडिया की, सभा की, संघ की, जुलूस की और प्रदर्शन की स्वतंत्रता की बात भी मानता है” और अनुच्छेद 36 “धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता” की रक्षा करता है। इस कारण से संविधान को लागू करना और कानून का शासन वहां के आन्दोलनों, असंतुष्टों, वकीलों, बुद्धिजीवियों आदि की हमेशा से मांग रही है।
चार्टर 08 अपने आप में एक साहसिक कदम था, जो सोवियत-विरोधी चार्टर 77 से प्रेरित था और एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जारी किया गया था। यह वर्ष सिर्फ़ चीन के संविधान का 100वां वर्ष और लोकतंत्र की दीवार/डेमोक्रेसी वाले मूवमेंट की 30वीं वर्षगांठ ही नहीं थी बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा की 60वीं वर्षगांठ और चीन के द्वारा नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय कोवेनेंट पर हस्ताक्षर के दस साल भी थे। इस मौक़े पर चार्टर 08 ने संवैधानिक सरकार, चुनावी लोकतंत्र और एपक्षीय शासन के अंत की मांग की, जो फ़ौरन राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गया। उसके साथ ही सरकार का दमन भी, इसके लेखाकारों में से एक, 1989 आंदोलन के वेटरन लियू जिआबो को गिरफ्तार किया गया और राजद्रोह के मामले में 11 साल की सज़ा सुनाई गयी।
कई अन्य लोगों की भी गिरफ़्तारी हुई। इस घटना की गूँज विश्व स्तर पर गूंजी, भर्तस्ना भी हुई और 2010 में लियू जिआबो को नोबेल शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया, लेकिन वह जेल में ही रहे। 2017 में भारी दवाब के बीच उन्हें जेल से कैंसर के इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती किया गया लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका।
चार्टर 08 के तर्ज पर ही, “राजनैतिक सुधारों पर सहमति के लिए प्रस्ताव” 25 दिसंबर 2012 को कानूनी विद्वान झांग कियानफान लिखित और 70 से अधिक प्रमुख उदार बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं द्वारा समर्थित जारी किया गया। बहुत ही सावधानीपूर्वक तैयार किए गए इस प्रस्ताव में चीनी संविधान को लागू करने, पार्टी और सरकार के बीच संबंधों की उचित परिभाषा, पार्टी के अंदर लोकतंत्र, प्रशासनिक मामलों में अधिक पारदर्शिता और खुलेपन और एक स्वतंत्र न्याय व्यवस्था लागू करने की बात की गयी। इसे झांग ने अपने ब्लॉग पर पोस्ट किया था जो तुरंत सोशल मीडिया में फ़ैल गया लेकिन फ़ौरन इसे न सिर्फ हटा दिया गया बल्कि अधिकारियों द्वारा सेंसर भी कर दिया गया। इन सबके ख़िलाफ़ दमन के साथ-साथ सरकार अपना काउंटर प्रॉपगैंडा भी हर माध्यम से करती है ताकि एक नियंत्रित बहस दिख सके।
ऐक्टिविस्ट वकीलों का आंदोलन और स्वतंत्र बीजिंग लॉयर्स एसोसिएशन की माँग
इसी कड़ी में जब 26 अगस्त को वकीलों के एक समूह द्वारा बीजिंग लॉयर्स एसोसिएशन के सीधे चुनाव के लिए एक अपील जारी की गयी तो उसे सिर्फ वकीलों के संघ के चुनाव तक सीमित न रख उसे देश में राजनैतिक चुनाव से जोड़कर चीनी राज्य ने सभी शामिल वकीलों, लॉ फर्म और अन्य कानूनी संस्थाओं को न केवल प्रतिबंधित किया बल्कि कई को गिरफ्तार किया और उनके वकालत करने के लाइसेंस को रद्द कर दिया। इस तरह से गोंगफेंग/ओपन कंस्टीटूशन इनिशिएटिव, मानवाधिकार वकीलों के समूह को 2009 में प्रतिबंधित कर दिया गया।
दरअसल मामले की जड़ यह थी कि 2000 के शुरूआती काल से वकीलों ने रोजमर्रा के मुकदमों से हटकर जनता के शोषण, कानून के उल्लंघन, प्रताड़ना, भेदभाव, ज़मीन के हक़, विस्थापन आदि के मुद्दे उठाने शुरू कर दिए। इनमें से कुछ मुद्दे देशव्यापी चर्चा के मुद्दे बने और उस कारण से कई बदलाव भी आये, जैसे हुको व्यवस्था और सूं जेगांग केस (2003), उच्च शिक्षा में प्रवेश को लेकर आवास के आधार पर होने वाला भेदभाव, जनसँख्या नियंत्रण के लिए एक बच्चा नीति (2005), मेलमीन मिल्क पाउडर घोटाला (2009), लाओजीओ व्यवस्था/तांग हुई केस, इल्हाम तोहती केस (2009), आदि। इन सभी मुद्दों में सफलता तो मिली, लेकिन हज़ारों ऐसे मामले थे जिनमें उन्हें विफलता मिली और साथ ही कई वकील न सिर्फ गिरफ़्तार हुए बल्कि और प्रताड़नाओं का सामना भी करना पड़ा।
वैसे में बार एसोसिएशन कभी भी वकीलों के हक के हिफाजत के बजाय सरकार का पक्ष हमेशा सामने रखता या फिर उन्हें ऐसे मुद्दे उठाने से मना करता। बार एसोसिएशन की मेम्बरशिप फी सभी देते, लेकिन सरकार द्वारा चुने गए वकील ही उनके अध्यक्ष और उपाध्यक्ष होते और असली ताकत जस्टिस ब्यूरो द्वारा नामित सचिव के हाथ में होती। इसलिए कुछ वकीलों ने काफी बहस के बाद और हिम्मत से जनतांत्रिक चुनाव और इस व्यस्वथा की खात्मे की बात की ताकि बार एसोसिएशन वकीलों के हक़ों की रक्षा कर सके, तो मानो अचानक तूफ़ान उठ गया।
भले ही सरकार ने कई लोगों को गिरफतार किया लेकिन सरकार के हरेक दमन ने एक नयी पीढ़ी को जन्म दिया और उन विचारों को फ़ैलाने में मदद की।
एक आदर्श नागरिक की कल्पना करता न्यू सिटीज़न मूवमेंट
इसी कड़ी में 2010 से शुरू हुआ न्यू सिटीज़न मूवमेंट, जिसकी पूरी रूपरेखा गोंगफेंग के संस्थापक मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता और कानूनविद जू ज़िह्योंग ने 11 जुलाई 2012 को प्रकाशित लेख में प्रस्तुत की। इस आंदोलन की कल्पना एक नए चायनीज़ नागरिक की कल्पना पर आधारित था जो आज़ाद, न्यायप्रिय, शांति और प्रेम करने वाला होगा। आगे वह लिखते हैं, “इस आंदोलन की जड़ सभी प्रकार के वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलनों में निहित है। आज चीन को एक पूर्ण राजनीतिक परिवर्तन की जरूरत है, एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक चीन की स्थापना जहां कानून का शासन (रूल ऑफ़ लॉ) कायम हो। इस आंदोलन से बड़े पैमाने पर व्याप्त भ्रष्टाचार, गैर-बराबरी, असंतुलित शिक्षा आदि समस्याओं का हल तो होगा लेकिन इसके लिए सिर्फ राज्य ही नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार भी करने होंगे।”
इस आंदोलन ने हुको व्यवस्था के ऊपर प्रश्न खड़े तो किये ही, साथ ही साथ सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी पहल को देखते हुए सरकारी अधिकारियों की सम्पति का ब्योरा पब्लिक करने की मांग की। एक नागरिक शपथ-पत्र भी जारी किया जिसमें एक आदर्श नागरिक के कर्तव्यों और मूल्यों की व्याख्या की गयी। पूरे देश में इसे लोगों ने चर्चा की और अपनाया और अपने शपथ पत्र दाखिल किये। इस नागरिक आंदोलन ने एक और प्रक्रिया शुरू की- वह था प्रमुख शहरों में महीने के आखिरी शनिवार को एक साथ रात्रिभोज और चर्चा। वह काफी सफल भी हुआ और एक समय में लगभग 30 शहरों में यह आयोजित भी हुआ।
जैसे ही इस आंदोलन ने थोड़ी हवा पकड़ी, सरकार ने तुरंत दमन का रुख अपनाया और जू ज़िह्योंग को पहले घर में नज़रबंद किया, बाद में गिरफ़्तार और आख़िर में 26 जनवरी 2014 को चार वर्षों की सज़ा दी। 2020 में दोबारा रिहा होने के बाद, चीन सरकार की कोविड-19 पर नियंत्रण में विफलता के ऊपर सोशल मीडिया में लिखने के बाद फिर से गिरफ्तार किया गया।
दमन का नया दौर जी जिंपिंग काल
आंदोलन और दमन की इस पूरी प्रक्रिया में एक बात साफ़ है कि जहां एक तरफ वहां के नागरिक अपनी आवाजें उठा रहे हैं, वहीँ दूसरी ओर दुनिया के अन्य देशों ने न सिर्फ चीन के साथ अपने सम्बन्ध बदस्तूर जारी रखे हैं उल्टा कुछ घटनाओं को छोड़ मानवाधिकारों के उल्लंघन को नज़रअंदाज़ किया है। ऐतिहासिक रूप से तिब्बत के बौद्धों का मसला हो या फिर उत्तर में उइग़ुर मुस्लिमों के अपने स्वशासन का मामला हो। दोनों समुदायों ने कड़ा दमन झेला है और साथ ही साथ उनके साथ खड़े होने वाले चीनी बुद्धिजीवियों, वकीलों, पत्रकारों और संस्थाओं को भी उसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ा है।
आज चीन में संविधान और कानून के शासन के लिए संघर्ष करने वालों की तादाद काम हुई है क्योंकि 2012-13 में जी जिंपिंग के आने के बाद उन्होंने पार्टी और राज्य सभी पर अपना एकछत्र राज्य कायम किया है। 2013 में पहले भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के तहत उन्होंने चायनीज़ कम्युनिस्ट पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत की और विरोध की हरेक आवाज़ को कुचल डाला और उसके बाद नागरिक समाज पर।
शुरुआत 2015 में उन्होंने 6 मार्च को विश्व महिला दिवस के दो दिन पहले 5 युवा फेमिनिस्ट कार्यकर्तों की गिरफ़्तारी से की। उनका जुर्म था चीन के दस शहरों में एक साथ पब्लिक यातायात के साधनों में महिलों से हो रही छेड़छाड़ के खिलाफ कार्यक्रम के आयोजन की तैयारी करना क्योंकि उनकी गिरफ़्तारी बीजिंग महिला सम्मेलन की बीसवीं वर्षगाँठ के साल हुई थी। भारी अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण 37 दिनों बाद उन्हें छोड़ा गया, लेकिन आज भी वह आज़ाद होते हुए भी आज़ाद नहीं हैं क्योंकि उनके ऊपर लगातार 24 घंटे पहरा और पुलिस की नज़र है।
इस घटना के तुरंत बाद 9 जुलाई को वांग यूं नाम की महिला वकील की गिरफ़्तारी हुई और कुछ सप्ताह के अंदर करीब 300 वकीलों की और गिरफ़्तारी हुई। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। जो वकील उनके केस की पैरवी के लिए था, उन्हें भी गिरफ़्तार किया गया। वकीलों की गिरफ़्तारी 709 के नाम से मशहूर है और और आज भी कई वकील जेल में कैद हैं। जो कुछ छूट गए हैं, उन्हें सरकार से टेलीविज़न पर सार्वजनिक माफ़ी माँगना, राजद्रोह का जुर्म कबूल करना, जेल में भीषण यातनाओं का सामना आदि करना पड़ा। आज इस घोर दमन की कहानी धीरे-धीरे दुनिया के सामने उनके लिखे संस्मरण, पत्रों, इंटरव्यू आदि से आ रही है, जो बेहद जोखिम भरा है क्योंकि वह आज़ाद होते हुए भी आज़ाद नहीं हैं और उनके परिवार और उनसे मिलने-जुलने वालों के ऊपर भी पुलिस का पहरा और कड़ी निगरानी हर समय रहती है।
महिलाओं और वकीलों के बाद सरकार ने भेदभाव विरोधी संगठनों को निशाना बनाया और आखिरकार 2015-16 में रूस की तर्ज पर देशी NGOS पर शिकंजा कसने के बाद विदेशी NGOs जो चीन में काम रहे थे उनके लिए फॉरेन NGO मैनेजमेंट लॉ लेकर आया जिसके तहत हरेक NGO जो किसी विदेशी NGO से सम्बद्ध है या उनके साथ या उनसे संसाधन लेकर काम करता है उन्हें पंजीकरण करना अनिवार्य होगा लेकिन पंजीकरण की जो शर्तें है वह किसी भी NGO को पूरा करना नामुमकिन होगा। ऐसे में कानूनन कोई भी संस्था न पंजीकृत होगा न कोई काम कर पाएगी। आज जब हांगकांग जो एक ‘स्वतंत्र’ क्षेत्र था वह भी ख़त्म हो गया, वैसे में कोई भी सूरत नज़र नहीं आती कि संगठित तौर पर कैसे जनता के मामलों को लेकर कोई भी संस्था काम कर सके? आज कई संस्थाएँ दोबारा काम कर रही हैं, लेकिन मानवाधिकार जैसे मुद्दों और संवेदनशील मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाएँ उनके लिए आज भी कोई रास्ता नहीं है।
इस तरह से 2015 के बाद चीन के सभी मुखर संस्थाएं और व्यक्ति एक-एक कर या तो चुप हो गए या उन्हें चुप करा दिया गया या फिर वह खुद किसी तरह अपनी जान बचा कर दुनिया के अन्य देशों में निर्वासित जीवन जीने को मजबूर हैं। आज की मौजूदा स्थिति में चीन में कोई भी स्वतंत्र संस्था नहीं जो संगठित तौर पर जनता के मुद्दे उठा सके। जनता के प्रदर्शन तो आज भी हो रहे हैं, मुद्दे आज भी हैं और पार्टी से जुड़े जन संगठन भी हैं और लोकल सरकार समर्थित NGOs भी लेकिन उन्हें स्वतंत्र तौर पर उठाने वाले लोग नहीं हैं। जिस तरह से चीन के राष्ट्रपति ने संविधान बदल कर सभी शक्ति अपने भीतर समाहित कर ली है वैसे में कई वर्षों तक एक विपक्ष के उभरने या किसी मतभेद की आवाज़ के आने के आसार कम ही दीखते हैं। इन सबके बीच जिस तरह पिछले पांच साल से हांगकांग के युवा लोगों ने चीनी राज्य को चुनौती दी है और अभी भी विरोध की आवाज़ को बुलंद कर रखा है। वैसे में अपनी जान पर खेल कर कई कार्यकर्ता आज भी सरकार के खिलाफ अपनी आवाज़ चीन के भीतर और बाहर उठा रहे हैं।
आख़िर में लू पिन, मशहूर महिलावादी नेता जो 2015 से अमेरिका में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रही हैं, निराशा की इस घड़ी में भी कहती हैं, “इस वक़्त में आप रुक नहीं सकते, आपको सोचते रहना होगा: हम और क्या कर सकते हैं? मुझे लगता है कि आंदोलन कैसे आगे बढ़ सकता है, इसका जवाब किसी को नहीं पता। पहले मैं सोचती थी मैं आंदोलन की दिशा जानती हूँ, लेकिन मैं गलत थी। और इसलिए लगता है कि इस अज्ञात भविष्य के प्रति खुद को प्रतिबद्ध करना होगा और घोर अनिश्चितता के बावजूद सुनहरे भविष्य में अपना विश्वास बनाए रखना होगा ताकि हम आगे बढ़ते रह सकें। जहाँ सरकार की हर कोशिश है जनता से दूर करने की, वैसे में लोगों के बीच संबंध और संवाद बनाने की हरसंभव कोशिश करनी होगी और इसके अलावा, हमें प्रतिरोध के वैकल्पिक उपायों को सुदृढ़ करना होगा क्योंकि सालों के नारीवादी आंदोलन ने यही तो हमें सिखाया है।”
नोट: इस लेख के लिए मैं चीन मामलों के विशेषज्ञ और स्वतंत्र लेखक ज़िल टें का आभारी हूँ, जो कई साल तक फ़्रेंच वेबसाइट मीडियापाथ के चीन संवाददाता रहे हैं।