बीते 25 जून 2020 को पुर्तगाली उपनेविशवाद से मोज़ाम्बिया की आज़ादी को पैंतालीस साल हो गए। देश आज़ाद तो हुआ लेकिन क्या सही मायने में आज़ादी मिली? वहां के मौजूदा हालात को बयां करने के लिए कुछ शब्द ही काफ़ी होंगे: राजनैतिक अस्थिरता, गृह युद्ध, हिंसा, घोर ग़रीबी और ग़ैर-बराबरी तथा अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार और वित्तीय संस्थाओं पर आधारित अर्थव्यवस्था। कुल मिलाकर संतोषजनक स्थिति नहीं है।
प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर मोज़ाम्बिया लगभग 1500 से 1950 तक पुर्तगाली निवेशी कम्पनियों के दबदबे में रहा। 1951 के बाद से यह पुर्तगाल राज्य के सीधे शासन में रहा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब यूरोपीय साम्राज्यवादी देशों की हालत ख़राब हुई तो दुनिया के कई हिस्सों में स्वतंत्रता युद्ध शुरू हुए। अफ़्रीका में भी कई देशों में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर गुरिल्ला संघर्ष शुरू हुए। इसमें क्यूबा और USSR जैसे देशों से काफ़ी सहयोग मिला। साठ के दशक में मोज़ाम्बिया में भी मार्क्सवादी संगठन मोज़ाम्बिया लिबरेशन फ़्रंट (FRELIMO) ने लम्बा गुरिल्ला संघर्ष चलाया और आख़िरकार 1975 में आज़ादी हासिल की।
अफ़्रीका के दक्षिण पूर्व में हिंद महासागर के तट पर बसा 3 करोड़ की आबादी वाला यह देश दक्षिण अफ़्रीका, स्वाजीलैंड, ज़िम्बाब्वे, जांबिया, मलावी, तंज़ानिया और मैडगास्कर देशों का पड़ोसी है। यहां की आबादी में ईसाई 50 फीसद, मुसलमान 20 फीसद और शेष अन्य हैं। अफ़्रीका के अन्य देशों की तरह यहां भी भारतीय मूल के लोगों की एक बड़ी तादाद है जो बहुमूल्य भूमिका निभाते हैं।
स्वतंत्रता के बाद से मोज़ाम्बिया एक अत्यंत अस्थिर और अप्रत्याशित राजनीतिक स्थिति में रहा है। आज़ादी के बाद एकदलीय मार्क्सवादी सरकार का गठन FRELIMO के द्वारा किया गया, लेकिन कुछ साल बाद ही मार्क्सवादी विरोधी मोज़ाम्बियन नेशनल रेजिस्टेंस (RENAMO) के सशस्त्र दलों का उभार होता है और उन दो गुटों के बीच 1977 से 1992 तक एक लम्बा और हिंसक गृह युद्ध चलता है। RENAMO को इस संघर्ष में ब्रिटिश समर्थित रोडेशिया यानी आज का जिम्बाब्वे और दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार से ज़बरदस्त सहयोग मिला और यही कारण था कि मोज़ाम्बिया लम्बे समय तक ज़िम्बाब्वे और दक्षिण अफ़्रीका में चल रही सरकार विरोधी गतिविधियों का भी केंद्र रहा। इस लम्बे गृह युद्ध में लगभग 11 लाख लोग मारे गए, 17 लाख पड़ोसी देशों में शरणार्थी बने और क़रीब 40 लाख लोग देश के भीतर विस्थापित हुए। इस दौरान मार्क्सवादी राज्य की केंद्रीय प्लानिंग, विकास की परियोजनाएँ, भूमि सुधार, शिक्षा, स्वास्थ्य और कहें तो हरेक मोर्चे पर पूरी तरह विफल रही। मापुटो, मोज़ाम्बिया की राजधानी और दक्षिण के बड़े शहरों को छोड़ पूरी तरह कभी भी FRELIMO का शासन नहीं रहा।
1992 के समझौते के साथ गृह युद्ध समाप्त हो तो गया, लेकिन पूरी शांति आज भी स्थापित नहीं हुई है। दोनों दलों के बीच हिंसा हर बार फिर से जीवित हो उठी है, जैसा कि 2012-16 के बीच हुआ था और आज भी कुछ हिस्सों में जारी है। फिर भी 1992 के समझौते के साथ देश में सामान्य स्थिति बहाल हुई और उसके साथ ही विस्थापित आबादी और शरणार्थियों की घर वापसी। आज भी प्रो-रेनमो और प्रो-फ्रेलिमो आबादी के बीच का विभाजन, देश को उत्तर और दक्षिण के बीच विभाजित करता है।
शांति समझौते के साथ ही देश में नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों का दौर भी शुरू हुआ, हालाँकि 80 के दशक के मध्य से आर्थिक और राजनैतिक बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। 1992 की संधि के आधार पर एक नया संविधान भी बना और 1994 में पहली बार बहुदलीय लोकतांत्रिक चुनाव हुए, जिसमें FRELIMO एक बार फिर से जीती। आज तक हुए सभी आम चुनावों में FRELIMO की ही सरकार बनी है, जो कि विवाद की एक मुख्य जड़ है और राजनैतिक अस्थिरता का कारण भी है। नये संविधान के तहत 1998 में पहली बार स्थानीय चुनाव हुए, जिसने यह सुनिश्चित किया कि उत्तर में RENAMO के क़ब्ज़े के क्षेत्रों में उनकी जीत हुई।
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, बढ़ती ग़रीबी और ग़ैर-बराबरी
इसमें कोई संदेह नहीं है कि स्वतंत्र होने के बाद से देश ने लगभग सभी क्षेत्रों में प्रगति की है, लेकिन इसका पूरा फ़ायदा कुछ ख़ास राजनैतिक वर्ग के बीच सिमट कर रह गया है। आर्थिक रूप से खनिज संपदा, कृषि भूमि, जल स्रोतों और जैव-विविधता से समृद्ध देश में पूंजीवादी, पितृसत्तात्मक और साम्राज्यवादी ताक़तों का बोलबाला है। यहां की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और देशों पर निर्भर है, उदाहरण के लिए बजट का लगभग 50 फीसद हिस्सा इन स्रोतों पर निर्भर करता है। इस विकास के ढाँचे ने प्राकृतिक खनिजों, वनों, मत्स्य संसाधन, कृषि आदि को कुछ मुट्ठीभर पूँजीपति घरानों और कम्पनियों में केंद्रित कर रखा है। देश की बड़ी आबादी फिर भी प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है और किसी भी तरह अपना पोषण कर रही है। विकास का सभी लाभ न मिलने के कारण पिछले बीस साल में बड़े पैमाने पर गरीबी और असमानता बढ़ी है और एक भ्रष्ट कुलीनतंत्र का विकास हुआ है। सरकारों और निजी क्षेत्र ने अर्थव्यवस्था में विविधता लाने के बजाय, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन वाले क्षेत्रों के विकास पर ध्यान केंद्रित किया है।
आज़ादी के बाद सभी के हितों का ध्यान देने के बजाय सत्ता पक्ष ने एक ख़ास राजनैतिक अभिजात वर्ग की सेवा की है, जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ गहरे संबंध विकसित करते हुए सत्ता में बने रहने के लिए भ्रष्टाचार, हेरफेर, जबरदस्ती और दमन का उपयोग करने में संकोच नहीं करता है। यह वर्ग किसी भी तरह प्राकृतिक संसाधनों पर अपना नियंत्रण बनाए हुए है। लोगों के लिए रोज़गार और विकास की दलील के नाम पर लायी गयीं अंतर्राष्ट्रीय पूँजी आधारित विकास की ये परियोजनाएँ हमेशा विफल हुई हैं। कुछ नौकरियों को छोड़कर, जो मध्यवर्ग को मिलती हैं, ज़्यादातर श्रमिक वर्ग के हिस्से हाड़तोड़ मेहनत और मज़दूरी वाले काम ही आते हैं, जो वहां की असुरक्षित खदानों में मरते हैं और प्रदूषण व विस्थापन झेलते हैं। मजबूत पर्यावरणीय, जवाबदेही और अधिकार कानूनों के अभाव में, बिना किसी जवाबदेही और बिना किसी बाधा के अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियां ससोल, रियो टिंटो, मोंटेपुएज़ रूबी माइनिंग, वेले आदि, तेल, गैस, कोयला, कीमती पत्थरों के खनन में बेधड़क अपना मुनाफ़ाख़ोरी जारी रखे हुए हैं।
मोजाम्बिया ने 2004 से 2014 के बीच 7.9% की औसत वार्षिक वृद्धि दर दर्ज की, फिर भी देश 2016 में मानव विकास सूचकांक में 188 देशों के बीच 181वें स्थान पर था और वहां की अर्थव्यवस्था 2016 के बाद से तीव्र मंदी का सामना कर रही है। भयंकर आर्थिक मंदी, बेरोज़गारी और बढ़ती महंगाई के बीच बार-बार आने वाले चक्रवाती तूफ़ानों, जैसे इडाई और केनेथ, जो मार्च और अप्रैल 2019 में आए, ने स्थिति को और अधिक भयावह बनाया है। इन तूफ़ानों में 1,000 से अधिक लोगों की मौत हुई और बीस लाख को इसने प्रभावित किया।
इनके अलावा देश में हैजा, मलेरिया और कुपोषण की एक सतत पृष्ठभूमि है और कुछ खास शहरों को छोड़ दें तो पूरी तरह नगण्य स्वास्थ्य व्यवस्था पसरी हुई है।
2016 में 2 बिलियन डॉलर के ऋणों के खुलासे के बाद से बनी गंभीर वित्तीय संकट की स्थिति ने उधार देने वाले देशों और आइएमएफ द्वारा निर्धारित शर्तों का दबाव और बढ़ाया है। आज देश पूरी तरह से क़र्ज़ और अंतर्राष्ट्रीय पूँजी की गिरफ़्त में है।
नये गैस क्षेत्र बने युद्ध का मैदान
2010-13 के बीच देश के उत्तरी तटों पर काबो डेलगाडो प्रांत में ज़ाहिर हुए भारी मात्रा में प्राकृतिक गैस की उपलब्धि ने माहौल को और पेचीदा बनाया है तथा सत्ता और पूँजी के लिए एक नया संघर्ष का मैदान खोला है। काबो डेलगाडो प्रांत में विकसित होने वाले नए गैस क्षेत्र दुनिया के 9वें सबसे बड़े गैस भंडार होंगे और उम्मीद है कि लगभग 60 बिलियन डॉलर के निवेश को आकर्षित करेंगे। यह निवेश और विकास वहां की आबादी के लिए अभिशाप साबित हो रहा है, खासकर स्थानीय समुदायों के लिए जो तेजी से हिंसक संघर्ष में फंस गया है। इस कारण से इस क्षेत्र में शोषण और भ्रष्टाचार में वृद्धि, मानवाधिकारों का उल्लंघन, तेज़ी से सैन्यकरण और अचानक ही इस्लामी आतंकवादी हिंसा का जन्म हो गया है। कुल मिलाकर कैबो डेलगाडो प्रांत विभिन्न खिलाड़ियों के बीच के युद्ध के मैदान में तब्दील हुआ विध्वंस की ओर बढ़ रहा है।
गैस की खोज के साथ ही साम्राज्यवादी शक्तियों का हस्तक्षेप और भी बढ़ गया है। फ़्रान्स, जो पहले यहां बहुत सक्रिय नहीं था,उसने अचानक इस क्षेत्र में अपनी गतिविधि बढ़ा दी है। फ्रांस ने तेल और गैस के अवशोषण से जुड़े भ्रष्टाचार और घोटाले में मुख्य भूमिका निभायी है, जो कि 2016 के ऋण घोटाले से जनित गहरे आर्थिक और वित्तीय संकट का अहम कारण है, जिसका ज़िक्र हमने ऊपर किया है। फ्रांस का पूरा राजनयिक तंत्र आज फ्रांसीसी हथियारों, नौसेना रक्षा कंपनियों और टोटल नाम की तेल की बड़ी कम्पनी के समर्थन में लगा है। इतना ही नहीं, फ़्रान्स के चार सबसे बड़े निजी बैंक भी इसमें गहराई से शामिल हैं: क्रेडिट एग्रीकोल और सोसाइटे जेनरल प्रमुख खिलाड़ी हैं, जो गैस ऑपरेटरों के वित्तीय सलाहकार के रूप में कार्य करते हैं और गारंटी और ऋण प्रदान करते हैं।
अक्टूबर 2017 से उत्तरी मोज़ाम्बिया में अचानक इस्लामिक विद्रोही हमले भी बढ़ गये हैं। इस हिंसा में कम से कम 1100 लोगों की मौत हुई है, मुख्यतः स्थानीय समुदायों के बीच। एक लाख से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं। कथित तौर पर आइएसआइएस और अल-शबाब से जुड़े विद्रोह ने सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक तनावों को और बढ़ा दिया है। कुछ लोगों का मानना है कि इनका सम्बंध अरब देशों और तेल उद्योग से भी जुड़ा है। इस स्थिति से जूझते हुए सरकार ने विदेशी शक्तियों और अंतरराष्ट्रीय निगमों के हितों की प्राथमिकता को ध्यान में रखते हुए और स्थानीय समुदायों के हितों को नज़रंदाज़ करते हुए सैन्यीकरण की रणनीति का विकल्प चुना है। प्रमुख गैस ऑपरेटरों ने भी सशस्त्र बलों की संख्या को बढ़ाया है, असलहों की बढ़ोतरी आदि के लिए मोज़ाम्बिया सरकार को भुगतान भी किया है और कई देशों की रक्षा कम्पनियों के लिए एक नया बाज़ार तैयार हो गया है। इस्लामिक विद्रोह के पीछे छुपे मूल राजनीतिक और सामाजिक कारणों पर कार्रवाई करने के लिए कुछ उपाय नहीं किए जा रहे हैं।
इस कारण से क्षेत्र में मानवाधिकारों का उल्लंघन बढ़ा है। अगर कोई इस स्थिति के बारे में लिखता या बोलता भी है तो उसे भयानक तकलीफ़ झेलनी पड़ती है, जैसे कि पत्रकार और सामुदायिक कार्यकर्ता सरकारी बलों द्वारा भयभीत किए जा रहे हैं और उनमें से कुछ तो गायब भी हो गये हैं। उदाहरण के लिए, पत्रकार इब्राहिमो अबू मार्बुको 7 अप्रैल 2020 से लापता हैं। आख़िरी बार उन्होंने अपने एक सहयोगी को यह बताया था कि सुरक्षा बल के लोग उनकी ओर आ रहे हैं।
जस्टिस एंबिएंटल, एक पर्यावरण संस्थान, जो पर्यावरण विनाश के खिलाफ अभियान चला रहा है, उसने अपनी हालिया रिपोर्ट (फ्रेंड्स ऑफ द अर्थ इंटरनेशनल के साथ) में इस योजना से जुड़े पहलुओं को उजागर किया है। उन्होंने आग्रह किया है कि सरकार और सांसदों के लिए जलवायु इमर्जेन्सी और मानवाधिकारों का जायजा लेने का समय है, न की तेल और गैस के खनन और उपयोग को बढ़ावा देने का, जो जलवायु परिवर्तन के लिए पूरी तरह से ज़िम्मेदार हैं। उनका कहना है कि 2021 से तेल और गैस क्षेत्र के लिए सभी सब्सिडी को सरकार समाप्त करे क्योंकि वे सभी पर्यावरणीय कानूनों और पैमानों के उल्लंघनों का समर्थन करते हैं। निजी कंपनियों और ख़ास कर टोटल जैसी फ्रांसीसी ऊर्जा कंपनियों को तुरंत मोज़ाम्बिया में गैस परियोजनाओं में अपनी भागीदारी को समाप्त करना चाहिए और इस परियोजना को दुनिया के भविष्य के हित में रद्द कर देना चाहिए।
क्या आगे कोई रास्ता है?
आज़ादी के बाद भले ही देश में लोकप्रिय लोकतांत्रिक संगठन, जन आंदोलनों, महिला संगठनों, मानवाधिकार संगठनों, स्वतंत्र मीडिया और अन्य संस्थानों की छिटपुट वृद्धि हुई है, फिर भी उत्तर में इस्लामी आतंकवाद, FRELIMO और RENAMO के बीच एक नाजुक शांति, विदेशी कर्ज और निवेश पर पूरी तरह निर्भर अर्थव्यवस्था के कारण मोज़ाम्बिया आज पूरी तरह से अराजकता के बीच है।
कुछ लोगों का मानना है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि मोजाम्बिया में शांति देश की प्रमुख राजनीतिक ताकतों की राजनीतिक इच्छाशक्ति पर निर्भर करती है, और विशेष रूप से सत्ताधारी पार्टी FRELIMO पर। इसके लिए ज़रूरी है कि अगर देश में पूरी तरह से विकेंद्रीकरण किया जाए और एक माहौल तैयार हो कि अन्य राजनैतिक ताक़तें उभर पाएं, तब शायद FRELIMO का एकछत्र राज ख़त्म हो पाए, जो कि सत्ता पक्ष के हित में नहीं है। दूसरी ओर दो राजनैतिक शक्तियों के बीच के समझौते में RENAMO के गुरिल्ला लड़कों का सरकारी सैन्य सुरक्षा बलों में विलय भी कारगर सिद्ध हो सकता है। कुछ पहल इस दिशा में की गयी है और शायद कुछ सफलता भी मिले।
जो सबसे बड़ी कमी है वह है एक तीसरी राजनैतिक शक्ति का अभाव। देश में अनेक राजनैतिक दलों की अनुपस्थिति को छोड़ दें तो प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर किसान और अन्य समुदाय ही देश की सबसे बड़ी सामाजिक और श्रम शक्ति है। और शायद यह एकमात्र सामाजिक श्रेणी है जिसने तीन दशकों से अधिक समय से राष्ट्रीय स्तर पर एक कार्यात्मक अभिव्यक्ति पर जोर दिया है, विरोध की सीधी कार्रवाइयों को अंजाम दिया है और कई मायने में सार्वजनिक नीतियों को प्रभावित भी किया है लेकिन किसानों के राष्ट्रीय संघ का यह प्रयास पूर्ण नहीं है।
विगत कई वर्षों में कई संगठनों द्वारा एक तीसरा राजनीतिक विकल्प बनाने की असफल कोशिश भी हुई है- जो कई क्षेत्रों में मौजूद और बिखरे हुए सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों को जोड़ कर बने; लोकप्रिय आंदोलनों, शिक्षाविदों, यूनियनों और गैर-संगठनात्मक संस्थाओं को साथ लाए; देश को नवउदारवाद से बचाने के विकल्पों पर विचार करे और इससे बचाव करे। अब तक कोई सफलता हाथ नहीं लगी है। ऐसी स्थिति में फिलवक्तथ तो फ्रेलिमो का सत्ता पर एकाधिकार बना हुआ ही दिखता है।