गुलाबो सिताबो 12 जून को रिलीज़ हुई बहुचर्चित और बहुप्रशंसित फिल्म है जो प्राइम वीडियो पर दर्शकों के लिए उपलब्ध है। इसमें एक आलसी, लालची, काइयाँ किस्म का व्यक्ति है मिर्ज़ा (अमिताभ बच्चन) जो हवेली के बाहर कठपुतलियों का प्रोग्राम करवाता रहता है और उससे जुटे पैसे इकट्ठा करता है। थोड़ा बहुत पैसा वो कठपुतली वाले को देता है।
वो अपनी हवेली में कई साल से रह रहे किरायेदारों से परेशान है क्योंकि वे हवेली का किराया नहीं बढ़ाते और अब भी 30 रुपया मासिक किराये पर रहते हैं। वो किसी तरह उनसे छुटकारा पाना चाहता है।
किरायेदार भी कम नहीं हैं। वो ये मान चुके हैं कि अब उनका भी हक़ इस हवेली पर है। इस सूरत में मिर्ज़ा हवेली को बेचने का ही मन बना लेता है। इस राह में हालांकि उसकी बेग़म और हवेली की असली मालकिन सबसे बड़ा रोड़ा हैं। वो उन्हें धोखा देकर उनकी उँगलियों के निशान पॉवर ऑफ अटॉर्नी के पेपर्स पर करवाने की कोशिश करता है।
बेग़म को माजरा समझ में आ जाता है और वो उस हवेली को किसी तरह बचा लेती है। यह लालची मिर्ज़ा खाली हाथ रह जाता है। उसे तोहफे में एक कुर्सी और एक छोटा घर देकर बेग़म चली जाती हैं। इसे उस कुर्सी की कीमत का भी अंदाज़ा नहीं होता जिसकी कीमत लाख रुपए से ऊपर होती है उसे वह 250 रुपये मात्र में बेच देता है। कुर्सी और हवेली दोनों पुरातात्विक महत्व की हैं इसलिए उनकी कीमत को एक फर्जी पुरातत्व अधिकारी ज्ञानेश शुक्ला (विजय राज) ‘बहुमूल्य’ कहता है।
इस बहुमूल्य संपदा की कीमत इस लालची, स्वार्थी और आत्म-केन्द्रित मिर्ज़ा को समझ नहीं आती। अंत में वह हर तरफ से ठगा जाकर सड़क पर आ जाता है और तांगा चलाने लगता है। जो किरायेदार हैं वो भी हवेली छोडने के एवज़ में अपने लिए पुख्ता इंतज़ाम करने की हर कोशिश करते हैं। हवेली को बेचने की तिकड़मों में वो भी बिल्डर और नेताओं के यहाँ चक्कर लगाते हैं। अंत में उन्हें भी कुछ हासिल नहीं होता और मिर्ज़ा के साथ-साथ उन्हें भी हवेली छोड़ कर जाना पड़ता है।
इस फिल्म के रिलीज़ होने से एक दिन पहले यानी 11 जून को ही देश के कोयला मंत्री एक विज्ञापननुमा भौंडा सा पोस्टर ट्वीट करते हैं जिस पर देश के प्रधानमंत्री का आधिकारिक फोटो चिपका है। यह प्रचारनुमा भद्दा सा पोस्टर बताता है कि 18 जून 2020 को व्यावसायिक उद्देश्य से कोयला खदानों की नीलामी होगी। इससे देश आत्मनिर्भर बनने की दिशा में आगे बढ़ेगा। अपने ट्वीट में वो यह भी बताते हैं कि देश के प्रधानमंत्री भी अपनी गरिमामयी उपस्थिति से इस “UNLEASHING COAL, New Hope for Aatmnirbhar Bharat” कार्यक्रम में चार चंद लगाएंगे।
कोयला एक बहुमूल्य संपदा है। आप कोयले को एक बार गुलाबो सिताबो की हवेली मान लें। बेचना कौन चाहता है? देश के प्रधानमंत्री यानी मिर्ज़ा। रोड़े कौन अटका रहा है? किरायेदार यानी राज्य सरकारें क्योंकि वो भी इस पर अपनी हकदारी जताना चाहती हैं और उनका हक़ भी बनता है। ऐसा फिल्म में भले ही हल्के ढंग से कहा गया हो पर देश के सर्वोच्च न्यायलाय ने कोयले के संबंध में यह बात अपने बहुचर्चित फैसले में कही थी और जिसका अनुपालन किए बगैर कोयले की नीलामी नहीं हो सकती। अब सवाल है कि हवेली है किसकी?
ज़ाहिर सी बात है बेग़म की यानी ग्राम सभाओं की क्योंकि जिस तरह बेग़म को ये हवेली पुश्तैनी रूप में मिली थी उसी तरह जंगल जिनके अंदर कोयला दबा पड़ा है! वो उन जंगलों में रहने वाले समुदायों को पीढ़ियों से मिला है।
गुलाबो सिताबो के मिर्ज़ा की कोई सांस्कृतिक अभिरुचियाँ नहीं हैं। बेमकसद टाइप का जीवन जीते हैं। धन कमाते हैं पर उसका करते क्या हैं पता ही नहीं चलता। एक कठपुतलियों का खेल करवाकर, दूसरे चोरी के बल्ब बेचकर। खुदा न खास्ता अगर मिर्ज़ा देश का प्रधानमंत्री होता तो जरूर पीएम केयर फण्ड बनाकर भी पैसे लूटता। इसे किसी की सलाह पसंद नहीं आती बल्कि जब बाँके रस्तोगी (आयुष्मान खुराना) बुढ़ऊ को समझाता है कि उसे गोद ले ले, तो वो उसको फटकार देता है। और तो और, उसी की चादर चुरा लेता है, और जब आयुष्मान अपना चादर मांगता है तो बड़े ही फूहड़ अंदाज़ में बोलता है-दिन भर पादे हैं इसमें!!!
बड़ा काइयाँ है कसम से। बेग़म के मामले में तो खैर जनता सब जानती ही है। लगता है निर्देशक ने थोड़ी शरारत की है यहाँ। इसकी कोई बार्गेनिंग नहीं है। जो मिले वही ले लेता है।
12 जून को दो एक सी कहानियों का दिलचस्प समानान्तर रचा गया है, हालांकि निर्देशक शूजित सरकार ने यह नहीं सोचा होगा पर दर्शकों का क्या है भाई! वो तो अपने ढंग से इस फिल्म को देखेंगे और उसमें दर्शकों का आस-पास और इर्द-गिर्द भी आ ही जाएगा।
कहानी का सबक क्या है?
सबक ये है कि कुछ चीज़ें बहुमूल्य होती हैं, उनकी कीमत नकदी में नहीं लगाई जा सकती। दूसरा सबक है कि किसी की स्वाभाविक मिल्कियत में सेंध नहीं लगाना चाहिए, इससे कुछ हासिल नहीं होता। बेग़म को कमजोर नहीं समझना चाहिए! तब तो और नहीं, जब वो अपनी बहुमूल्य संपदा की कद्र करती हो। जब बेगम ने ठान लिया कि अपनी विरासत इस लालची और स्वार्थी मिर्ज़ा को नहीं देना जो इसका मूल्य ही नहीं समझता, तो आखिर उन्होंने उसे बचा लिया और जो बेहतरीन उपयोग ऐसी विरासत का हो सकता है वो किया। यानी उसे अक्षुण्ण रखा। मौके-मौके पर उसमें आना-जाना लगा रहा।
तीसरा सबक यह है कि किरायेदारों को लालची मिर्ज़ा के नहीं बल्कि उस हवेली की मालकिन के साथ होना था। अगर ऐसा होता तो उन्हें किरायेदार की हैसियत से ही सही, पर वहाँ बने रहने का अधिकार होता। चौथा और अंतिम सबक यह है कि संपत्ति हड़पने वाले बिल्डरों, पूँजीपतियों और इसमें सहयोगी नौकरशाहों के प्रभाव में आकर बहुमूल्य संपदा की कीमत को कम नहीं आंकना चाहिए।
क्या हमारे देश के प्रधानमंत्री को यह फिल्म देखनी चाहिए? ज़रूर। आखिर उनके गुजरात मॉडल के ब्रांड एम्बेस्डर ने इसमें अहम किरदार निभाया है। समानता का जो रूपक यहाँ रचा गया है, उसमें तो उन्हें शायद अपना ही अक्स दिख जाय।
एक बात जो बहुत महत्वपूर्ण है कि इस फिल्म में मिर्ज़ा हवेली की मालकिन की मौत की कामना बहुत शिद्दत से करता है ताकि वो हवेली निष्कंटक ढंग से उसकी हो जाय। आप कहीं ये तो नहीं समझे कि हमारे देश के प्रधानमंत्री जंगलों पर पीढ़ियों से मिले अधिकारों और मिल्कियत रखने वाले आदिवासी व अन्य परपरागत समुदायों की मृत्यु की कामना करते होंगे? कदापि नहीं! लेकिन कौन जाने? स्वार्थ और लालच जो न कराये? धोखे से कागजों पर उँगलियों के निशान तो लिए ही जाते रहे हैं!
अभी बस्तर में नंदराज पहाड़ के मामले में ऐसा ही वाकया तो पेश्तर हुआ था कि ग्राम सभाओं के फर्जी प्रस्ताव ले लिए गए कि ग्राम सभाओं को कोई आपत्ति नहीं है और यह पहाड़ कंपनी को दिया गया। बाद में पकड़ा गया जब ग्राम सभाएं बाहर निकल कर आ गईं। आखिर बचा लिया न अपनी बहुमूल्य संपदा को।
एक और सबक है जिसके बारे में और लोग भी कहते हैं कि जब कोई फिल्म देखो तो उसके रिलीज़ होने की तारीख और वर्ष पर नज़र रखो। फिर उस समय हुईं कुछ राजनैतिक घटनाओं को भी देखो। अद्भुत साम्य मिलता है। ऐंवें ही थोड़े कहा जाता है कि सिनेमा, समाज और राजनीति का प्रतिविम्ब होता है।
क्या पूछा? गुलाबो सिताबो कौन हैं? अरे, वही कठपुतलियाँ जिनका खेल मिर्ज़ा करवाता है और दूसरों के पैसे हड़पता है, कुछ उन्हें भी देता है, जनता खेल में मस्त रहती है और मिर्ज़ा हवेली बेचने की सोचता रहता है। मतलब मीडिया? और नहीं तो क्या?
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं
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बहुत ही सटीक और सरल शब्दों में आपने कोयला की राजनीति को समझाया। और यह भौंडा विज्ञापन लोगों के संघर्षों और कोयले से हो रहे क्षति को पूरी तरह नकारता है। कोयला क्षेत्र में रह रहे सभी लोग जानते हैं की वहाँ की हवा, पानी, ज़मीन सब ज़हर बन चुके हैं। रोज़गार तो है लेकिन बाहर के लोगों के लिए, लोकल केवल मज़दूरी करते हैं।
जब विश्व भर में कोयला उद्योग पतन की ओर है तो वैसे में भारत में कोयला तो बढ़ावा देना किसी में दृष्टिकोण से सही नहीं हैं। कोयला से पैदा हुई बिजली की क़ीमत ६ से ८ रुपए प्रति यूनिट है वहीं सौर ऊर्जा अभी २ रुपए यूनिट, तो फिर क्यों कोयला को बढ़ावा दिया जा रहा है। यह सिर्फ़ कुछ ख़ास लोगों को देश की बहुमूल्य संपती को लूटाने और फ़ायदा पहुँचाने का क्रम है।
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