बहस शुरु हुई थी ‘फ्री सेक्स’ के मुद्दे पर एपवा (ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमेन एसोशिएशन) सेक्रेटरी कविता कृष्णन की एक पोस्ट और फिर उस पोस्ट के समर्थन में कविता की मां की समर्थन भरी स्वीकारोक्ति के बाद. जेएनयू विवाद के दौरान कविता ने अपनी एक फेसबुक पोस्ट में बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी समेत जेएनूय के कुछ शिक्षकों की सोच पर सवाल उठाते हुए लिखा कि जिस सेक्स में स्वतंत्रता का अहसास नहीं है, वह रेप के बराबर है. बस फिर क्या था सोशल मीडिया पर सक्रिय भगवाधारी सेना महान भारतीय संस्कृति, वेद-पुराण, परिवार, नैतिकता के हथियारों से लैस होकर उन पर टूट पड़ी. इस प्रक्रिया में कविता की मां का भी नाम भी घसीटा गया लेकिन कविता की मां, लक्ष्मी कृष्णन ने न सिर्फ उनका समर्थन किया बल्कि स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया कि उन्होंने ‘फ्री सेक्स’ का आनंद लिया है. लक्ष्मी कृष्णन की मां के कबूलनामे ने जख्म में नमक डालने का काम किया जिसकी छटपटाहट भगवाधारियों को लंबे समय तक महसूस होगी.
(फ्री) सेक्स विमर्श को यहां से देखो राष्ट्रवादियों!
‘फ्री सेक्स’ के मुद्दे पर ‘राष्ट्रवादियों’ के शुद्धतावादी अभियान का अंत हुए हालांकि कुछ वक्त बीत चुका है, लेकिन इस अंत ने उस गलनशील वैचारिकी के नंगेपन को उधेड़ने की शुरुआत कर दी है जिसे भगवाधारी फासीवादी भारत का ‘स्वर्णिम इतिहास’ कहते हैं. बहस की शक्ल में चलाए गए इस अभियान के खोखलेपन ने यह साबित कर दिया है कि भगवाधारी विचारधारा न सिर्फ राजनीतिक बल्कि ऐतिहासिक-सांस्कृतिक मोर्चे पर भी कूपमंडूक, अवैज्ञानिक और अतार्किक है. इसके अनुगामियों का हाल कुएं के उस मेढक की तरह है जिसे न कुएं की गहराई का अहसास है और न ही कुएं के बाहर के आकाश का अंदाजा है.
सवाल ये है कि आखिर मिथक और पुराणों में दर्ज वो सनातन भारतीयता है क्या जिसके नाम पर इस तरह से बर्बर, मध्ययुगीन नैतिकता वाले सांस्कृतिक अभियान चलाए जाते हैं ? फ्री सेक्स के मुद्दे पर क्या भारतीयता का वही शुचितावादी आख्यान सच है जिसे भगवाधारी पालते-पोषते और प्रचारित करते हैं या फिर इसका कोई और भी रूप है ? इसका ठोस जवाब मिलता है मराठी इतिहासकार विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े की चर्चित किताब ‘भारतीय विवाह संस्था’ का इतिहास में. इसमें कहा गया है –
· तीनों लोक की रचना करने वाले ब्रह्मा ने अपनी बेटी सरस्वती के साथ यौन संबंध स्थापित किया था.
· यम और यमी नाम के भाई-बहन एक दूसरे के साथ पति-पत्नी की तरह रहते थे.
· चंद्रमा अपने गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा के साथ पति की हैसियत से रहता था.
· पाराशर ऋषि ने सुगंधी नाम की मत्स्य कन्या के साथ खुले में संभोग किया था.
· द्रौपदी एक साथ पांच पांडवों के बीच पत्नी धर्म का निर्वाह करती थी. द्रौपदी के साथ जो भाई अंदर सो रहा होता था उसकी निशानी बाहर रखी जाती थी.
· कर्ण की मां कुंती जब किशोरी थी तब उसने सूर्य के साथ संभोग करके गर्भधारण किया था और उसने बिना ब्याह के ही कर्ण को जन्म दिया था.
भारत के पौराणिक ग्रंथों से लिए गए ये चंद उदाहरण ऐसे हैं जो सेक्स के मुद्दे पर भगवाधारी विचारकों की धज्जियां उड़ा देने के लिए काफी हैं लेकिन यह अंत नहीं है. मुद्दा सेक्स, समाज, परिवार के वैज्ञानिक विकास को समझने का भी है.
विकासवाद का सिद्धांत कहता है कि जब मनुष्य ने छोटे-छोटे कबीलों में रहना शुरु किया तब उसके सामाजीकरण की प्रक्रिया शुरु हुई. सामाजीकरण का पहला सोपान था कुनबे का निर्माण. कुनबे से पहिवार बना. परिवार नाम की संस्था के अस्तित्व में आने से पहले इंसान निर्बाध रूप से स्वतंत्र था. परिवार की अवधारणा ने किस तरह मनुष्य की स्वतंत्रता पर पाबंदी लगाई है इस पर विचार करने से पहले कुछ और उद्धरणों का जिक्र जरूरी है.
पवित्र चार वेदों में से एक अथर्ववेद के दूसरे खंड में एक श्लोक का जिक्र किया गया है. इसमें कहा गया है कि पति से संभोग करने से पहले एक स्त्री ने तीन पुरुषों के साथ संभोग किया.
सोमजुष्टमं, ब्रह्मजुष्टमं, अर्यम्णा संभृतं भगम ।
धातुर्देवस्य सत्येन कृणोमि पतिवेदनम ।।
इस श्लोक में जिन तीन पुरुषों के नाम का जिक्र किया गया है वो हैं – सोम, ब्रह्म और अर्यमन. इसमें कहा गया है कि इन तीनों से संपर्क स्थापित करने के बाद स्त्री चौथे पुरुष से पति होने का निवेदन करती है. इससे दो बातें जाहिर हैं. पहली – वैदिक काल में स्त्रियां अपनी मर्जी से कई लोगों से संबंध बना सकती थीं. दूसरी – पति को भी पत्नी के स्वतंत्र यौन संबंधों से कोई दिक्कत नहीं थी. मतलब यह कि पतिव्रता, नारी धर्म की अवधारणा का शायद जन्म नहीं हुआ था. सवाल ये है कि जो लोग वैदिक गणित की पढ़ाई के लिए पाठ्यक्रम बदल देते हैं, आधुनिक विज्ञान के समानांतर वेद-पुराण में दर्ज घटनाओं को वैज्ञानिकता का जामा पहनाते हैं उन्हें ये बात क्यों नहीं दिखाई पड़ती?
यह हास्यास्पद नहीं तो और क्या है कि 21वीं शताब्दी के उत्तरार्ध का भारत निजी स्वतंत्रता के मामले में हजारों वर्ष पुराने समाज से कमतर नज़र आता है. दरअसल विरोधाभास का यही वो चरम बिंदु है जहां तक आते-आते प्रतिक्रियावादी दक्षिपंथी सांस्कृतिक अभियान फुस्स होने लगता है. एक तरफ ये लोग वेद पुराण को अपना आदर्श बताते हैं लेकिन दूसरी तरफ इनके उदार पक्ष को स्वीकार करने में बेइंतहा दिक्कत होती है.कहने को तो यह भी कहा जा सकता है कि अगर यौन संबंधों की आज़ादी वैदिक काल की स्त्रियों के लिए मुमकिन थी तो फिर आज क्यों नहीं ? अगर वैदिक सभ्यता हमसे उन्नत थी तब तो ये उदाहरण और भी अनुकरणीय होने चाहिए.
महाभारत के आदिपर्व में और हरिवंश पुराण में भी फ्री सेक्स या यूं कहें कि यौन संबंधों की स्वतंत्रता से संबंधित कुछ शानदार उदाहरण दर्ज हैं. इसमें लिखा गया है कि ब्रह्मा के बेटे दक्ष ने उनकी बेटी दक्षा यानि अपनी बहन के साथ संभोग किया था और 50 बेटियां पैदा की थी. ब्रह्मा के नाती कश्यप ने अपनी 13 चचेरी बहनों के साथ संभोग किया. ऋग्वेद के दसवे मंडल का यम-यमी संवाद ‘फ्री सेक्स’ की बहस का एक शानदार उदाहरण है. सूक्त में यमी अपने भाई यम से कहती है कि तुम मुझसे पति की तरह व्यवहार करो, संभोग करो और पुत्र पैदा करो. यमी के इस प्रस्ताव से यम डर जाता है और कहता है कि वरुण देवता देख लेंगे. इस पर यमी कहती है कि वरुण देवता इससे नाराज होने के बजाय खुश होंगे.
अगर यमी का भाई के साथ संभोग करने की इच्छा गलत नहीं है तो फिर कविता कृष्णन, उनकी मां या फिर किसी भी दूसरी लड़की का अपनी पसंद के पुरुष के साथ संभोग करने की इच्छा लगत कैसे हो गई ? स्पष्ट है कि उस दौर में स्त्रियों के पास सेक्स के लिए अपने मन के मुताबिक पुरुष के चुनाव का न सिर्फ अधिकार था बल्कि रिश्तों की जकड़न भी इतनी मजबूत नहीं थी. स्त्रियां खुद संबंध बनाने के लिए पहल कर सकती थीं. इतना ही नहीं भाई-बहन, चाचा-मामा और मौसी-मामी जैसे नजदीकी रक्त संबंधियों के बीच भी यौन संबंधों की छूट थी.
ब्रिटिश उपन्यासकार डी एच लॉरेंस ने ‘संस एंड लवर्स’ में मनुष्य की इसी आदिम स्वतंत्रता की चाहत को बारीक तरीक से पेश किया है. यह मजह संयोग नहीं है कि लॉरेंस के ऊपर भी तत्कालीन विक्टोरियाई नैतिकता से ग्रस्त ब्रिटिश समाज ने अनैतिकता को प्रोत्साहित करने और समाज को भ्रष्ट करने का आरोप लगाया था. अपनी रचना में लॉरेंस ने एक मां के उसके बेटों के प्रति यौन झुकाव की बेहद जटिल मानसकिकता को पेश किया है. एक मां के मन में उसके बेटों के प्रति भी यौन झुकाव हो सकता है, नैतिकता के आईने में यह बात कल्पना से परे लगती है लेकिन ऐसा होता आया है और होता भी रहेगा. मशहूर मनोवैज्ञानिक फ्रॉयड के इडिपस कॉम्प्लेक्स सिद्धांत को यहां अलग कोट करने की जरूरत नहीं है.
इस बारे में जर्मन दार्शनिक बाखोफेन की किताब ‘मदर राइट’ का जिक्र बेहद जरूरी होगा. बाखोफेन के निष्कर्षों में राजवाड़े द्वारा इकट्ठा किए गए फ्री सेक्स संबंधी पौराणिक कहानियों के बीच अद्भुत सामंजस्य है. इसका उल्लेख सिर्फ इसलिए किया जा रहा है ताकि पौराणिकता को घृणा की राजनीति का आधार बनाने वाले फ्री सेक्स के मुद्दे पर उसे गल्प मानकर खारिज न कर सकें. बाखोफेन ने कहा कि आरंभ में मानवजाति यौन स्वच्छंदता की स्थिति में रहती थी. उसने इसे हेटरिज्म (Hetaerism) का नाम दिया गया था. इस व्यवस्था के मुताबिक एक स्त्री अपने कबीले के कई पुरुषों के साथ सेक्स संबंध स्थापित कर सकती थी. सवाल ये है कि क्या ये वही प्रचलित (यौन) स्वच्छंदता थी जिसके मुताबिक कृष्ण 16 हजार रानियों से संसर्ग करते थे और कुंती बिना ब्याह के सूर्य के साथ संभोग ?
अगर इसका जवाब ‘हां’ है तो यह कहा जा सकता है कि आज देवता को मनुष्य की तरह जमीन पर उतार लाने की जरूरत है. देवता होने के नाते कृष्ण फ्री सेक्स का आनंद उठा सकते हैं तो फिर फ्री सेक्स के बारे में एक महिला या आम इंसान की चाहत गलत कैसे हो सकती है ? क्या फ्री सेक्स का हक सिर्फ देवताओं को (आज के अर्थ में सुपर एलीट तबके) को ही है ? वैसे देखा जाए तो ये बात सही है क्योंकि सेक्स की उपलब्धता और सेक्सुअलिटी के निर्धारण का सीधा संबंध सत्ता संरचना से रहा है.
एंगेल्स ने अपनी किताब ‘ परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति में’ फ्री सेक्स यानि यौन स्वच्छंतता के मुद्दे पर बात की है. उन्होंने लिखा है, “तो फिर स्वच्छंद यौन संबंध का क्या अर्थ है ? यही कि आजकल यौन-संबंध पर जो प्रतिबंध लगे हुए हैं, या जो पहले ज़माने में लगे हुए थे, तब नहीं थे. ईष्या ने जो दीवार खड़ी की थी उसको हम ढहते हुए देख चुके हैं. अगर कोई बात निश्चित है तो वो यही कि ईर्ष्या की भावना का विकास बाद में हुआ…शुरू में न केवल भाई बहन (यम-यमी, दक्ष-दक्षा) पति पत्नी के रूप मे रहते थे बल्कि अनेक जनगणों में तो आज भी माता-पिता और उनकी संतानों के बीच यौन संबंध की इजाजत है.”
सभ्यता के विकास क्रम में किस तरह फ्री सेक्स के साथ नैतिकता का पहरा जुड़ा, इस पर एंगेल्स ने शानदार विवेचना पेश की है. सार रूप में कहा जा सकता है कि उत्पादन के साधनों पर पुरुषों के एकाधिकार के साथ ही मातृसत्तात्मक समाज का अंत हुआ. इसी के साथ एक विवाह प्रथा और परिवार का विकास हुआ. यह अनायास नहीं है कि एंगेल्स ने मातृसत्तात्मक समाज के अंत को ‘स्त्री जाति की विश्व ऐतिहासिक पराजय’ का नाम दिया था. एंगेल्स के मुताबिक परिवार नाम की संस्था के जन्म के बाद यौन स्वछंदता पर नियंत्रण की कोशिशें हुईं और स्त्री की गुलामी का नया दौर शुरु हुआ. इसी बात को ‘द सेकंड सेक्स’ की लेखिका सिमोन द बोउवार ने थोड़ा दूसरी तरह से निजी संपत्ति की अवधारणा के साथ जोड़कर पेश किया है. इस पर भी बात होनी चाहिए.
“मातृसत्तात्मक व्यवस्था से पितृसत्तात्मक समाज के संक्रमण काल में हम फिर भी स्त्री को कुछ सुविधापूर्ण स्थिति में पाते हैं. वह पति का चुनाव कर सकती थी…पितृ प्रधान समाज के पूर्ण रूप से व्यवस्थित हो जाने के बाद पुरुष अस्तित्व में स्त्री अस्तित्व का विलय हो गया. उसके स्वतंत्र अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं उठता. इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण हम सामंती संरचना प्रधान मुस्लिम समाज में पाते हैं जहां कुरान शरीफ घोषणा करता है कि पुरुष औरत से उन गुणों के कारण श्रेष्ठ है जो अल्लाह ने उसे उत्कृष्ट रूप से दिए और अपनी इस श्रेष्ठता के कारण पुरुष औरत के लिए दहेज जुटा पाता है.”
स्त्रियों की मुक्त यौन संबंधों की मांग पर काबू करने के लिए कुरान के मुताबिक मर्द दहेज (एक तरह की सुरक्षा) जुटाता है तो हिंदुओं में वह सात फेरों के जरिए सात जनम की सुरक्षा की गारंटी लेता है. मजे की बात यह है कि स्त्रियों को संपत्ति में हक देने की बात कोई नहीं करता – न हिंदू, न मुसलमान, न क्रिश्चियन, न यहूदी. यहां एक बात और भी साबित होती है कि हर धर्म अपने मूल में पितृसत्तात्मक है.
यह महज एक संयोग नहीं है कि इतिहास में मुक्त यौन संबंधों की मांग उन्हीं औरतों ने की है जो आर्थिक रूप से सक्षम और आत्ममनिर्भर रही हैं. जब-जब स्त्रियों की बराबरी की बात होगी यौन संबंधों की मुक्ति की अनिवार्यत: होगी क्योंकि यही वो रास्ता रहा है जिसके लिए और जिसके जरिए पुरुष (पितृसत्ता का प्रतीक) ने स्त्रियों को अपने से कमतर माना है.
वाटसन और केय की किताब ‘द पीपुल ऑफ इंडिया’ के हवाले से एंगेल्स ने उत्तर भारत में प्रचलित फ्री सेक्स की परिपाटी का जिक्र किया है. इस किताब में वाटसन और केय ने अवध के ठाकुरों का वर्णन किया है. इसमें कहा गया है कि ‘वो बड़े-बडे समुदायों में बिना किसी भेदभाव के (सेक्स संबंध बनाने में) मिल जुलकर रहते थे और जब दो व्यक्ति विवाहित माने जाते हैं तब उनका विवाह नाममात्र का ही होता था.’ यह बेहद दिलचस्प है कि भगवान राम भी इसी अवध के इलाके के थे और वो भी ठाकुर थे. तो क्या उनके कबीले या वंश में यौन स्वच्छंदता का प्रचलन था ? राम के पिता दशरथ ने खुद चार (??) शादियां की थी. भरत की मां कैकेयी का चरित्र कई मामलों में दूसरी रानियों के मुकाबले मुखर है. हालांकि अपनी शादी से इतर यौन संबंधों को लेकर उनका क्या रवैया था इस पर जानकारी कम ही है. एक संभावना यह भी बनती है कि राम के ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ चरित्र का निर्माण ही इसीलिए किया गया हो क्योंकि उस दौर में मुक्त यौन संबंध ज्यादा प्रचलन में रहे हों. समाज को नैतिक रूप से सुदृढ़ बनाने के लिए राम के चरित्र के जरिए एक समाजिक आचार संहिता तैयार की गई हो.
वाटसन और केय ने जिस विवाह के ‘नाममात्र’ होने की बात की है उसका व्यावहारिक मतलब यही है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे की निजता को स्वीकार कर हुए अपनी-अपनी पसंद से यौन संबंध बनाने के लिए स्वतंत्र हों. आज की विकसित दुनिया में भी यह बात करीब-करीब सच साबित हो चुकी है. जहां व्यक्तिवाद है और स्त्री पुरुष दोनों आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं वहां विवाह एक संस्था के तौर पर बेहद कमजोर साबित हो रही है. कई रिपोर्ट और सर्वे इस बात की तस्दीक करते हैं. ब्रिटेन के मशहूर अखबार “द गार्डियन” ने एक साल पहले एक रिपोर्ट प्रकाशित किया था. इस रिपोर्ट में यूरोप में होने वाली शादियों में “ऐतिहासिक”गिरावट की बात कही गई थी. इटली के National Institute of Statistics से मिले आंकड़ों के आधार पर कहा गया था कि आर्थिक मंदी और दूसरी वजहों के अलावा शादी नाम की संस्था में लोगों का कम होता भरोसा इस इस ऐतिहासिक गिरावट की मुख्य वजहें हैं. इटली में हर एक हजार लोगों में से केवल 3.3 लोगों ने शादियां की. इसे आधुनिक इतिहास की सबसे बड़ी गिरावट कहा गया था. इसका मतलब यह नहीं कि यूरोप या दूसरे विकसित देशों में लोग शादियां ही नहीं कर रहे लेकिन हां, शादी की सत्ता संरचना में जाहिर तौर पर फर्क आ चुका है.
फ्री सेक्स की मांग दरअसल इसी सत्ता संरचना में बराबरी हासिल करने की जंग है जिसे शुद्धतावादी राष्ट्रवादी दिल-दिमाग के लोग शायद ही कभी समझ सकेंगे. ऐसे लोगों के लिए आम तौर पर फ्री सेक्स का मतलब अराजक यौन व्यवहार से हैजबकि इसका सही मतलब दो लोगों का आपसी सहमति और बराबरी के भाव से यौन संबंध स्थापित करना है.
सनातन शुद्धतावादी हैवलॉक एलिस जैसे महान यौनशास्त्री के काम से निश्चित रूप से परिचित नहीं है. (परिचित तो वात्स्यायन के काम से भी नहीं है भारत में पैदा होने की वजह से सिर्फ नाम सुना होगा) अगर होते तो बहुत मुमकिन है कि उनके खिलाफ भी फतवा जारी करते या फिर ट्विटर फेसबुक पर अभियान छेड़ते. एलिस को पश्चिम का वात्स्यायन कहा जाए तो शायद कोई अतिशक्योक्ति नहीं होगी. एलिस के विचार फ्री सेक्स के समर्थन के कई गुना ज्यादा खतरनाक हैं. एलिस ने कहा था कि विवाह में होने वाले बलात्कारों की संख्या दूसरे बलात्कारों से कहीं अधिक हैं.
सिमोन द बोवुआ ने अपनी किताब ‘द सेकंड सेक्स’ में एक तरह से एलिस के विचारों का समर्थन किया है. सिमोन ने लिखा है, “विवाह प्रेम पर आधारित नहीं होता. जैसा फ्रॉयड ने कहा है कि पति प्रेमी का पूरक हो सकता है लेकिन प्रेमी नहीं. प्रेम और विवाह का यह अंतर आकस्मिक नहीं बल्कि विवाह की संस्था में निहित विरोधाभास है. इसका उद्देश्य समाज की स्वार्थ सिद्धि के लिए स्त्री और पुरुष का यौन तथा आर्थिक गठबंधन होता है.”
यौन संतोष और आर्थिक फायदा – विवाह के ये दो अहम स्तंभ हैं. सैकड़ों सालों से ऐसा ही चला आ रहा है लेकिन अब स्थितियां अदृश्य रूप से बदल रही हैं. दरअसल, उत्पादन संबध बदल रहे हैं इसीलिए. तेजी से पसरते हुए मध्यवर्ग का एक तबका फ्री सेक्स के विचार को सैद्धांतिक तौर पर भले ही न माने लेकिन इसकी व्यावहारिकता से शायद ही परहेज करेगा. मीडिया से लेकर टेलिकॉम तक और सॉफ्टवेयर से लेकर सेवा क्षेत्र और फैशन इंडस्ट्री तक में, जहां-जहां स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी है सेक्स के मुद्दे पर पुरुषों के रवैये में बदलाव आया है. बेशक अभी ये संकेत के स्तर पर ही हैं लेकिन इतिहास का पहिया उलटा घूमने लगा है.
बात ये है कि अगर ‘फ्री सेक्स’ की बहस को सही तरीके से अंजाम तक पहुंचाना है तो उसे समाजवाद से जोड़ना होगा. उसे उस सोच से जोड़ना होगा जिसके जरिए पिछली सदी में बराबरी की हर लड़ाई जाती रही है. फ्री सेक्स की लड़ाई भी आखिरकार बराबरी की लड़ाई का एक्सटेंशन है. सिमोन ने ऐसा ही कहा भी था, “औरत का भाग्य और समाजवाद की स्थापना अनिवार्यत: परस्पर सम्बद्ध हैं.” समाजशास्त्री बेबल ने भी कहा था कि औरत और सर्वहारा दोनों ही दलित हैं और दोनों के सामाजिक जागरण की संभावना यांत्रिक सभ्यता में अधिक पाई जाती है. हम हर उस यांत्रिक सभ्यता का समर्थन करते हैं जो समाज में बराबरी का वाहक बन सके.
(मासिक पत्रिका ‘हंस’ के सितंबर 2016 अंक से साभार)