हफ़्ता वसूल: ‘एरियल सर्वे’ में जुटे अख़बार मज़दूरों पर अदालत की टिप्पणी तक दबा गये


इस संकट के समय में भी अख़बारों ने राजनीति को ताक़ पर नहीं धरा है. 

शुक्रवार (22 मई) के समाचारपत्रों ने 190 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ने वाला चक्रवाती तूफ़ान ‘अम्फान’ की तबाही का भयानक मंज़र पेश किया. ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ (दिल्ली) के प्रथम पृष्ठ की सुर्खी कुछ यूँ थी: “तूफान से तबाही, 72 की मौत”. अपनी रिपोर्टिंग में वह आगे लिखता है कि इस तूफ़ान में पश्चिम बंगाल के हज़ारों मकान “नष्ट” हो गये हैं, जबकि 6.5 लाख लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया गया है.

अगले दिन सभी अख़बारों के पहले पन्ने पर प्रमुखता से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीरें छपीं. जहां बहुत सारे अख़बारों की तस्वीरों में प्रधानमंत्री पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ हेलीकॉप्टर में बैठकर ‘एरियल सर्वे’ करते नज़र आये, वहीं ‘दैनिक जागरण’ (राष्ट्रीय) में प्रकाशित छाया में सिर्फ मोदी जी ही नज़र आये. “जागरण” ने इसके साथ यह भी ख़बर लगायी कि प्रधानमंत्री ने पश्चिम बंगाल को 1,000 करोड़ और ओडिशा को 500 करोड़ की “राहत” दी है.

यह सब देखकर विपक्षी दलों के दिलों में यह भाव पैदा होना लाज़मी है कि मीडिया हर बात के लिए ‘सारा क्रेडिट’ एक ही नेता को दे रहा है. उनको डर है कि यह सब भगवा शक्तियों के स्वार्थ के लिए किया जा रहा है. पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव अब बहुत दूर नहीं है.

इस बीच दिल्ली से प्रकाशित होने वाले हिंदी समाचारपत्र “हरि भूमि” (मई 23) ने ममता बनर्जी पर जमकर हमला किया. “आपदा में राजनीति कर रहीं ममता बनर्जी” शीर्षक से उसने एक सम्पादकीय लिखा, जिसको पढ़कर ऐसा लगता है कि मोदी जी से सवाल करना, जैसा कि बंगाल की मुख्यमंत्री ने किया, कोई अपराध हो गया है. सम्पादकीय की कुछ पक्तियां आपके सामने पेश हैं.

“हर मुश्किल घड़ी में हर भारतवासी के साथ खड़े रहने वाले मोदी 83 दिन बाद प्रधानमंत्री निवास से बाहर निकले और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ तूफ़ान से हुए नुक़सान का जायज़ा लिया. इसके बाद पीएम ने पश्चिम बंगाल के लिए 1,000 करोड़ रुपये की तात्कालिक मदद का ऐलान किया… इसके बावजूद ममता बाज़ नहीं आयीं. जैसे ही प्रधानमंत्री प. बंगाल से  निकलकर अम्फान से प्रभावित ओडिशा का हाल जानने के लिए रवाना हुए तो ममता ने केंद्र सरकार पर आरोपों की झड़ी लगा दी. उन्होंने प्रधानमंत्री के दौरे और राहत पैकेज पर अपनी राजनीति शुरू करते हुए आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री ने 1000 करोड़ रुपये के आपात फंड को जारी करने की घोषणा की है, मगर यह नहीं स्पष्ट है कि यह अडवांस होगा या राहत पैकेज होगा.”

जहां “हरि भूमि” और “दैनिक जागरण” पत्रकारिता में संतुलन बनाये रखने में नाकाम रहे, वहीं दूसरे अख़बारों ने भी उसी दिन डंडी मारी. उसी दिन 22 विपक्षी पार्टियों की कोरोना संकट से सम्बंधित मीटिंग की ख़बर को दबा दिया गया, फिर उसे किसी कोने में छाप कर आँखों से ओझल कर दिया गया.

विडंबना देखिए कि “पायनियर” (हिंदी) ने इस न्यूज़ को ‘लीड’ बनाया है, मगर उसने शीर्षक ऐसा दिया है गोया विपक्षी दलों को देश की कोई चिंता नहीं है. वे तो सिर्फ सुबह से शाम तक राजनीति करते हैं और विकास की राह में रोड़े डालते हैं. “पहली बार लामबंद विपक्ष ने तरेरी आँखें” शीर्षक से इसने ख़बर लगायी.

ज़रा सोचिए, अगर विपक्ष सरकार से सवाल नहीं करेगा और सुझाव नहीं देगा तो देश में लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाएगा. मीडिया की भी ज़िम्मेदारी सवाल करने की है, मगर वह दुर्भाग्य से सवाल करने वालों पर ही सवाल उठा रहा है.

हिंदी अख़बारों के मुकाबले “इन्केलाब” (मुंबई) ने विपक्षी दलों की मीटिंग की ख़बर को प्रमुखता से जगह दी. “वज़ीर-ए-आज़म (पीएम) का आर्थिक पैकेज अवाम के साथ ज़ालिमाना मज़ाक़” के शीर्षक से उसने खबर लगायी.

जहां एक तरफ देश का ज़्यादातर मीडिया पीएम की आलोचना सुनना नहीं चाहता है, वहीं मद्रास हाइ कोर्ट ने पिछले दिनों एक बहुत ही अहम फैसला सुनाया है. इस फैसले को भी मुख्यधारा के अख़बारों ने दबा दिया. 17 मई के रोज़ “जनसत्ता” ने इसे अन्दर के पेज (2) पर छापा जिसका शीर्षक थाः “प्रवासी श्रमिकों की बहुत उपेक्षा हुई: हाइ कोर्ट”.

अपनी ‘रूलिंग’ में कोर्ट ने यह कहा कि मज़दूरों का ध्यान रखना उन प्रदेशों की ज़िम्मेदारी है जहां वे काम करते हैं. इसके साथ-साथ अदालत ने 22 मई तक केंद्र और राज्य सरकारों से इस बाबत रिपोर्ट पेश करने को कहा है. न्यायमूर्ति एन. किरूबाकरन और आर. हेमलता की पीठ ने कहा कि “पिछले एक महीने से मीडिया में प्रवासी मजदूरों की दिख रही दयनीय स्थिति को देखकर कोई भी अपने आसुंओं को नहीं रोक सकता है…यह मानवीय त्रासदी के अलावा और कुछ नहीं है”.

कुछ ऐसी ही बात कर्नाटक उच्य न्यायालय ने भी कही है, मगर यह खबर भी दबा दी गयी. “इंडियन एक्सप्रेस” (19 मई) ने इसे पेज 6 पर ज़रूर छापा है मगर इसे एक कॉलम में ही समेट दिया जबकि उसी पेज पर इस अंग्रेज़ी दैनिक ने गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपानी का इंटरव्यू ‘बोल्ड’ सुर्खी के साथ चार कॉलम में छापा है.

दुर्भाग्य देखिए कि जब कोर्ट ने राज्य की सरकारों के ऊपर सवाल उठाया है कि वे प्रवासी मजदूरों के लिए रेलवे टिकट क्यों नहीं खरीद सकते, उस ख़बर को उचित अहमियत नहीं दी गयी, वहीं गुजरात के भाजपा मुख्यमंत्री के ‘अपने मुंह मियां मिट्ठू’ वाले साक्षात्कार को पेज की सबसे महत्पूर्ण खबर बना कर पेश किया गया.

दो दिन बाद हालाँकि “इंडियन एक्सप्रेस” ने सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील और संविधान मामलों के जानकार फली एस. नरीमन का “जस्टिस मोर कम्पैशनेट” के शीर्षक से एक लेख छापा है. इसमें उन्होंने कर्नाटक हाइ कोर्ट के फैसले की अहमियत पर रोशनी डाली. नरीमन लिखते हैं कि “मैं कर्नाटक उच्य न्यायालय के जजों को सलाम पेश करता हूं, जिन्होंने इस मामले को मानवीय तरीक़े से देखा”.

उसी दिन जे.एन.यू. में राजनीतिशास्त्र की प्रोफेसर एमिरेट्स ज़ोया हसन ने भी “हिन्दू” अख़बार में एक लेख लिखकर इस मसले को उठाया. उन्होंने इस बात पर मायूसी ज़ाहिर की कि कोरोना संकट से निपटने के लिए सरकार लोक कल्याणकारी नीति अपनाने के बजाय तेज़ी से निजीकरण की पॉलिसी थोप रही है.

यह कड़वी सच्चाई है कि कोरोना त्रासदी के बीच सरकार तथाकथित आर्थिक सुधार के नाम पर पब्लिक सेक्टर को निजी और विदेशी कंपनियों के लिए हवाले कर रही है. इस ‘प्राइवेटाज़ेशन’ को मीडिया देश के विकास के लिए ज़रूरी बताकर बेच रहा है.  

मीडिया यह सवाल नहीं करता कि कोरोना की माहमारी में प्राइवेट अस्पतालों का क्या रोल रहा है? असल में जो कुछ भी सेवा हो रही है वे सरकारी हॉस्पिटल ही कर रहे हैं और प्राइवेट अस्पताल पूरे ‘सीन’ से ग़ायब हैं.

फिर भी रक्षा क्षेत्र के मैन्युफैक्चरिंग में एफ.डी.आई. को 49 प्रतिशत से बढ़ा कर 74 प्रतिशत करने के सरकार के फैसले को मीडिया देशहित में मान रहा है. इसके अलावा बिजली को भी निजी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है.

लॉकडाउन की हालत में एक के बाद एक ग़रीब और मजदूर विरोधी नीति थोपी जा रही है. अगर इसके खिलाफ विरोध भी होता है तो वह मीडिया में जगह नहीं बना पाता, मिसाल के तौर पर जम्मू और कश्मीर में बिजली के निजीकरण के खिलाफ हो रहे विरोध पर ज़्यादातर समाचारपत्र खामोश हैं. यह खबर हिंदी पट्टी में तो कहीं नहीं दिखती.

“कश्मीर उज़मा” (मई 22) ने इस ख़बर को कवर करते हुए लिखा है कि “बिजली विभाग के मुलाज़मीन (कर्मचारियों) ने श्रीनगर और जम्मू में एक साथ मरकज़ी (केन्द्रीय) हुकूमत की तरह से नये मज़दूर कानून की घोषणा के खिलाफ़ एहतेजाज (विरोध) किया”.

यह सब देखकर ऐसा लगता है कि कोरोना संकट सत्ता वर्ग और उससे जुड़े मीडिया के लिए ‘बम्पर’ अवसर ले कर आया है.


अभय कुमार जेएनयू से पी.एच.डी. हैं. इनकी दिलचस्पी माइनॉरिटी और सोशल जस्टिस से जुड़े सवालों में हैं. आप अपनी राय इन्हें debatingissues@gmail.com पर भेज सकते हैं


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *