मजदूर संकट के इस ऐतिहासिक दौर में केंद्रीय श्रम मंत्री की गुमनामी का सबब क्या है?

हैरानी इस बात की है कि वे ख़बरों से ग़ायब क्यों हैं. वह भी उस वक़्त में जब देशभर में करोड़ो श्रमिक कोरोना से ज़्यादा भूख से तड़प रहे हैं

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हफ़्ता वसूल: साहेब के पैकेज के जश्न में गुम हो गयीं मजदूरों की सिसकियां…

सरकार के प्रति ‘सकारात्मक’ सुर्खी लगाने में अंग्रेजी अख़बार हिंदी समाचारपत्रों से बहुत पीछे नहीं थे

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काफ़िरोफोबिया: इस्लामोफ़ोबिया के आरोप के खिलाफ़ RSS की राजनीति का नया औज़ार

हिंदुत्व की ताकतों ने ‘हिन्दूफोबिया’ और ‘काफिरोफोबिया’ जैसे शब्द गढ़ लिए हैं जिनका इस्तेमाल वह एक “शस्त्र” की तरह कर रही हैं!

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एक आवाज़, जिसके सामने कट्टर हिंदुत्व के चेहरे भी लिबरल नज़र आते हैं!

महाराष्ट्र के पालघर में साधुओं की मॉब लिंचिंग और सोनिया गांघी की तथाकथित “चुप्पी” वाले विवाद में तो उन्होंने पत्रकारिता की सारी मर्यादाओं को तार-तार कर दिया है

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करोड़ों प्रवासी भारतीयों की रोज़ी-रोटी को खतरे में डाल रही है घरेलू साम्प्रदायिकता

भारत का कितना आर्थिक और राजनीतिक नुकसान होगा यह तो अभी विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता मगर देश की बदनामी हो रही है, जिसके लिए सिर्फ वे लोग ज़िम्मेदार हैं जिनको लगता है कि मुसलमान को नीचा दिखा कर उनका स्थान ऊंचा हो जाएगा.

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तसलीमा नसरीन हिंदुत्व का काम कैसे आसान कर देती हैं?

यह बयान अल्पसंख्यकों के खिलाफ जल रही आग में घी डालने का काम तो नहीं करेगा और जाने अनजाने हिंदुत्व के लिए मददगार साबित हो जायेगा?

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