कोरोना महामारी में आख़िर मजदूरों की स्थिति इतनी बदतर क्यों हैं?


कोरोना महामारी से पूरी दुनिया के लोग सन्न हैं और दुनिया के सारे कारोबार बंद पड़े हैं। आज तक दुनिया के किसी घटना ने पूरी दुनिया के लोगों को एक साथ नहीं डरा पाई थी। इतिहास में बड़े-बड़े महामारी और युद्ध के प्रमाण मौजूद हैं जिसने मानव इतिहास को पूरी तरह बदलकर रख दिया। यहां तक कि अतीत में प्लेग महामारी में यूरोप की आधी आबादी ख़त्म हो चुकी थी। उन दिनों भी दुनिया का बड़ा हिस्सा संभवतः प्लेग जैसी महामारी से इतना प्रभावित नहीं था जितना आज पूरी दुनिया कोरोना वायरस से है, हालाँकि इस कोरोना वायरस द्वारा इतनी जल्दी वैश्विक रूप अख़्तियार कर लेने का मुख्य कारण गति के क्षेत्र में अप्रत्याशित विकास है। जहां हाल के कुछ वर्षों पहले ही, किसी भी सूचना या व्यक्ति को दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचने में काफी वक़्त लगता था, वहीं आज मानव-संबंधी संसाधनों की यात्रा महज़ चंद घंटों की बात हो गई है। इस दुनिया भर के कोरोना वायरस जनित लोकडाउन के बीच सारी शैक्षणिक या चिंतन प्रणाली और संस्थाओं के बंदी के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आए वेबिनार के बाढ़ इस तकनीकी क्षेत्र के अप्रत्याशित विकास के मौजूदा उदाहरण हैं। 

बहरहाल, यह आलेख कोरोना काल के दौरान विस्थापन और विस्थापित मजदूरों के जीवन में उपजी समस्या एवं उनके कारणों को समझने पर केंद्रित हैं। मेरी चिंता विशेषकर भारत की उस बड़ी आबादी को लेकर है जिसे प्रधानमंत्री ने “आत्मनिर्भरता की राजनीति” के नाम पर मौत के मुँह में धकेल दिया है एवं जिसकी सुध इतिहास में शायद कभी ली जा सके। भारत में मजदूरों के साथ सरकारों द्वारा जो नीतिगत हिंसा की जाती रही है, उन असंख्य अमानवीय अपराधों के लिए भविष्य में न्याय की उम्मीद के लिए इतिहास में कोई उदाहरण नहीं मिलते। 

मजदूरों की स्थिति को बयाँ करते कारुणिक एवं भयावह चित्र

इन दिनों भारत के मुख्यधारा मीडिया में निरंतर अजीबोगरीब तस्वीरें, साक्षात्कार और रिपोर्टिंग की जा रही है। भारत के मजदूरों की स्थिति को समझने के लिए चंद तस्वीरों, साक्षात्कारों एवं रिपोर्टिंग का उल्लेख अतिआवश्यक है। यहां यह बता देना लाज़िमी होगा कि भारतीय मुख्यधारा मीडिया का अचानक से व्यापक विकास हुआ माना जा सकता है। इसकी चर्चा अलग से करने की आवश्यकता होगी, जो इस आलेख में बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं जान पड़ता। 

पहली तस्वीर में, एक छोटा बच्चा, करीब पाँच-छह साल का, कई किलोमीटर पैदल चलने के बाद चल नहीं पा रहा है। उसके नन्हें पांव सूज कर हाथी के बच्चे के से पांव हो रखे हैं। चप्पल न होने के कारण उसे पॉलीथिन पहनाया गया है। उसकी माँ, जिसके कंधे पर एक छोटा बच्चा है, बड़ी मुश्किल से चली जा रही है और रिगरिगाते दूसरे बच्चे को फुसला रही है कि थोड़ी देर बाद उसे भी गोद में उठा लेगी। उसकी माँ के पैरों से खून बह रहा है। पिता पूरे परिवार का बोझ सिर पर लादकर एक सुर में चला जा रहा है। दूसरी तस्वीर में, एक मजदूर अपनी एकदम बूढ़ी माँ को गोद में उठाकर न जाने कितने किलोमीटर से पैदल चला आ रहा है। तीसरी तस्वीर है, जिसमें नौजवान मजदूर एक फल से लदे ट्रक के उलटने पर सड़े हुए केलों में से खाने लायक केले चुनकर खाने की फ़िराक़ में है।

एक ख़बर छपी कि एक छोटा लड़का कई सौ किलोमीटर पैदल चलकर घर पहुंचने वाला था मगर महज पचास किलोमीटर पहले दम तोड़ दिया। दूसरी ख़बर छपी कि एक भरा-पूरा मजदूर परिवार पैदल घर को चला, मगर रास्ते में घर के मुखिया की मौत हो गई। पत्नी अपने बच्चों के मुँह को देखकर और अनजाने राजमार्गों के डर से रो भी न सकी और चल पड़ी। पति के लाश का क्या किया, पत्रकार ने इसका उल्लेख नहीं किया। एक और ख़बर छपी कि दिल्ली से इंदौर के लिए चले पति-पत्नी में से उनके अपने राज्य मध्यप्रदेश के राजमार्ग पर तड़के सुबह एक तेज गाड़ी धक्का मारकर चल दी। पति का शरीर छह फीट हवा में उड़कर सिर के बल गिरा और उसकी मौत हो गई। उसकी पत्नी अपने बच्चों की कसम देकर रोती रही कि ऐसे अकेले छोड़कर मत जाओ लेकिन मरने वाला कहां लौटता है!

सोलह मजदूरों का मालगाड़ी से सुबह-सुबह कट जाना याद ही है। उन कटने वाले संभवतः अशिक्षित या अल्पशिक्षित मजदूरों को तो यही पता रहा होगा कि कोई रेल नहीं चलने वाली है। अतः, जंगल के साँप-कीड़ों से जिंदा बचकर रेल की पटरी पर सोना ज्यादा सुरक्षित होगा! नतीजा पता ही है। इस घटना के बाद मोदी सरकार जागी और उसने रेल भी चलवायी लेकिन इतने महँगे दामों पर कि उसमें मजदूर या तो चढ़ न सकें या चढ़ें तो सरकार को नाजायज़ पैसे दें। 

मजदूरों के इन बदतर हालात की उतनी ही कहानियां होंगी, जितनी उनकी जनसंख्या। मतलब ऐसी हृदयविदारक यथार्थ घटनाओं की संख्या करोड़ों में है, लेकिन इसकी कौन परवाह करता है। प्रधानमंत्री ने तो अपने आधा घंटे के लॉकडाउन 4.0 उद्बोधन में 29 बार “आत्मनिर्भर” शब्द पर जोर देकर साफ़ कर दिया है कि भारत सरकार को भारत के नागरिकों से कोई मतलब नहीं है। भारत के नागरिक आत्मनिर्भर हो जाएं का यहां सीधा अर्थ है कि भारत के नागरिक अपना देख लें क्योंकि सरकार को सिर्फ जनता के पैसों और अमीरों की चिंता है, गरीब और आम जनता से नहीं।  

बहरहाल, मजदूरों के त्रासद दृश्यों को देखकर मन में कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल उभरते हैं जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल है कि आखिर मजदूरों की स्थिति अचानक इतनी ज्यादा बदतर कैसे हो गई? क्या उनकी ये स्थिति अचानक हुई है या जारी थी जिसे जानबूझ कर लंबे-समय तक अनदेखा किया जाता रहा?

आख़िर मजदूरों की स्थिति इतनी बदतर क्यों हैं?

कोरोना वायरस जैसी वैश्विक आपदा के फलस्वरूप, भारत के मजदूर दुनिया के सबसे क्रूर प्रशासनिक असफलता के शिकार हो गए हैं। आश्चर्य है कि भारत के जिस लोकतंत्र की नींव मजदूरों एवं किसानों से हैं आज उनकी सहायता के लिए कोई भी सरकारी तंत्र काम नहीं आ रहा है। उल्लेखनीय है कि मजदूर, मजलूम एवं किसानों को जो भी थोड़ी बहुत राहत पहुँचाने की खबरें आ रही हैं वे निस्वार्थ भाव से लोगों द्वारा संगठन बनाकर किया जा रहा है जिनकी संख्या प्रतिशत में नगण्य है। हां, भारत के विभिन्न राज्यों में विपक्षी पार्टी के कुछ नेतागण व्यक्तिगत स्तर पर उनकी मदद करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन मजदूरों की भारी तादाद को देखते हुए ऐसी तमाम कोशिशें पर्याप्त नहीं हैं। तब सवाल है कि कोरोना काल में आख़िर मजदूरों की स्थिति इतनी बदतर कैसे हो गई? यह एक बड़ा सवाल है।

ऐसा नहीं है कि मजदूरों की स्थिति पहले बहुत अच्छी थी और आज अचानक ख़राब हो गई लेकिन मौजूदा समय उनकी जितनी दुर्गति हो रही है उतना पहले कभी नहीं हुई थी। यह भी सत्य है। सबसे दिलचस्प बात है कि यह सब अचानक नहीं हुआ है। मजदूरों की इस बुरी स्थिति को समझने के लिए हाल के दिनों में सरकार द्वारा उठाये गए बस एक कदम का ज़िक्र ही पर्याप्त होगा।

मोदी सरकार के श्रम एवं रोजगार केन्द्रीय मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने भारत के सभी ट्रेड यूनियनों के नेताओं के साथ ऑनलाइन बैठक की जिसकी ख़बर ‘द हिन्दू’ समेत तमाम राष्ट्रीय अख़बारों ने 6 मई को दी। अख़बारों के सूचनानुसार, इस बैठक में केन्द्रीय मंत्री गंगवार ने ट्रेड यूनियन के नेताओं से अपील कर मजदूरों को भरोसा दिलाने की बात कही। जिसपर यूनियन के नेताओं ने केंद्र सरकार द्वारा मजदूरों को आर्थिक सहायता देने की बात पर जोर दिया। लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होती, बल्कि शुरू होती है।

अब सवाल है कि जिस सरकार के गठन होते ही मजदूरों के पूरे संरचनात्मक प्रतिनिधि प्रणाली को कुचल दिया गया, उस सरकार में मजदूरों की हालत कैसे ठीक हो सकती है? ध्यान रहे कि पूर्ववर्ती सरकारें भी छोटे-छोटे स्तर पर मजदूरों के अधिकार और उनके मुद्दों को प्रखरता से उठानेवाले विद्यार्थियों, कार्यकर्ताओं एवं स्थानीय नेताओं पर निरंतर हमले करती रही हैं। लेकिन मोदी सरकार के गठन के बाद मजदूर एवं किसानों के मुद्दों को उठानेवालों पर तो जैसे सरकार ने वज्रपात ही कर दिया।

मोदी सरकार में मजदूर एवं किसान के मुद्दों पर संघर्षरत बुद्धिजीवियों, छात्रों, प्रोफेसरों, शोधकर्ताओं, पत्रिकाओं या तमाम संस्थाओं का वीभत्स रूप में दानवीकरण कर दिया गया। उन्हें देशद्रोही, पाकिस्तानी, मुल्ले की औलाद, अर्बन नक्सल इत्यादि सब कह दिया गया। बड़े-बड़े पूँजीवादी मीडिया द्वारा उन्हें न सिर्फ इन विशेषणों के नाम से प्रचारित करवाया गया, बल्कि रैलियों में भाजपा एवं आर.एस.एस के छोटे बड़े नेता समेत स्वयं प्रधानमंत्री ने सामाजिक चिंतन करनेवाले बुद्धिजीवियों को ‘अर्बन नक्सल’ तक कहा। परिणामस्वरूप, पूरे भारत में मजदूरों एवं किसान के मुद्दों को उठानेवाले कार्यकर्ताओं, स्थानीय नेताओं एवं जनवादी पत्रकारों की अप्रत्याशित गिरफ्तारियां एवं निर्मम हत्याएँ की गई। उन हत्यारों का कभी पता नहीं चल पाया और जो पकड़े भी गए उन्हें सरकार के संरक्षण में सम्मानित किया जाता रहा। सुधा भारद्वाज, आनंद तेलतुम्बडे, गौतम नवलखा जैसे चर्चित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां तो कुछ गिने चुने नाम हैं जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर अन्यान्य कारणों से जाना जाता है। जबकि ज़मीनी स्तर पर संघर्षशील लोगों को तो आसानी से कुचल दिया जाता है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश के एक स्थानीय पत्रकार पवन कुमार जायसवाल ने जब सरकारी स्कूलों में चल रहे मध्याह्न भोजन में व्यापक भ्रष्टाचार का विडियो चलाया तो उल्टा उसे ही आपराधिक धाराओं के अंतर्गत जेल में डाल दिया गया।

सौ बात की एक बात यह कि विगत छः वर्षों से जनमुद्दों के लिए संघर्षरत लोगों या संस्थाओं पर जो सरकारी तंत्रों द्वारा या संरक्षणों में भीषण हमले हुए, दरअसल वो हमले किसपर हुए? इस देश में किसके अधिकारों का हनन हो रहा है? किसके बच्चे को सरकारी स्कूल में मध्याह्न भोजन में दाल की जगह दाल का पानी दिया जा रहा है? किसके हिस्से की अनाज चोरी हो रही है? किसके ज़मीन का बलपूर्वक अधिग्रहण किया गया? किसकों घर से बेघर कर दिया गया? किसको विस्थापित होने पर मजबूर किया गया? गाँव के छोटे-छोटे खेतिहर मजदूर क्यों और कैसे हो गए? और जब इतना कुछ हो रहा था तो किसी ने आवाज़ क्यों नहीं उठाई?

सारे सवालों का एक छोटा-सा उत्तर है कि अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठानेवालों को बड़ी तेज़ी से कुचल दिया गया। सारे ट्रेड यूनियनों को खरबों रूपये खर्च कर बदनाम किये गए उनके नेताओं की हत्या और गिरफ्तारी अनवरत जारी है। मतलब साफ़ है कि जब मजदूरों के प्रतिनिधि को ही ख़त्म कर दिया गया, तो अलग-अलग भाषा, क्षेत्र, परिवेश एवं पृष्ठभूमि से आनेवाले बिखरे मजदूरों की आवाज़ कोई भी सरकार कब और क्यों सुने!

निष्कर्ष के रूप में, भारतीय लोकतंत्र के शुरुआती चरण में एक ऐसा भी काल था जब मजदूर एवं किसान विरोधी सरकारें गिरा दी जाती थीं या उन्हें मजदूर एवं किसान के मुद्दों के अनुरूप काम करना पड़ता था। एक दौर वो भी था जब जॉर्ज फर्नांडिस जैसा युवा मजदूर नेता एवं ट्रेड यूनियन नेता एक साथ रेलवे के पंद्रह लाख कर्मचारियों के साथ हड़ताल पर जाने की हिम्मत रखते थे। ट्रेड यूनियन की राजनीति तो वामपंथी पार्टियों के लिए जैसे ऑक्सीजन का काम करती थी। लेकिन दुखद है कि इन संगठनों का एक बड़ा हिस्सा पूँजीवादी तंत्रों के चपेट में आकर धीरे-धीरे नष्ट होता चला गया एवं शेष हिस्से को क्रूरतापूर्वक नष्ट कर दिया गया।

ऐसे में, मजदूरों पर केंद्र या राज्य सरकारों की असफल, जनविरोधी नीतियों और प्रशासन की मार को रोक पाना फिलहाल असंभव है। भविष्य के लिए, छात्र और स्थानीय कार्यकर्त्ता एकजुट होकर जनविरोधी नीतियों का डटकर सीधे-सीधे मुक़ाबला करे तो शायद कुछ सामान्य तस्वीरें आएं।              

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से पीएचडी कर चुके हैं एवं समसामयिक मुद्दों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं


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One Comment on “कोरोना महामारी में आख़िर मजदूरों की स्थिति इतनी बदतर क्यों हैं?”

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