वर्षों पहले जब अंग्रेजी की पॉपुलर व्यावसायिक पत्रिका इंडिया टुडे ने इसे हिन्दी में अनुवाद करके छापने का फैसला किया था तो जगह-जगह इसके प्रचार-प्रसार के लिए एक विज्ञापन किया गया था, ‘आज से हिन्दी पाठकों की दुनिया बदल जाएगी’। हिन्दी पाठकों की दुनिया बदली या नहीं बदली यह तो शोध का विषय है, लेकिन कोरोना बीमारी ने पिछले डेढ़ महीने में पूरी दुनिया को बदलकर रख दिया है। यह सही है कि उसने भौगोलिक सीमा को नहीं बदला है लेकिन उसने पूरी दुनिया के व्यवस्थित सोच को उलट-पलट दिया है। पूरी दुनिया में विकास के मॉडल पर अलग तरह से चर्चा होने लगी है, हालांकि अपवाद को छोड़कर इस पर अब भी सार्थक बात नहीं हो रही है कि विकास का कौन सा मॉडल ठीक है।
हमारा देश इस तरह की बहस से पूरी तरह दूर है। आज भी हमारे देश के ‘बुद्धिजीवी’ इस बात पर बहस कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी का कोई विकल्प नहीं है या फिर ये, कि राहुल गांधी सरकार से सवाल पूछकर अपनी गलती लगातार दुहरा रहे हैं! वैसे, हमारे देश के अधिसंख्य ‘बुद्धिजीवी’ इसी मोड में हैं कि उन्हें आज भी यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि मोदी जी के नेतृत्व में ही कोरोना से जंग जीती जा सकती है!
वैसे इस समस्या का समाधान खोजना इतना आसान भी नहीं है क्योंकि पिछले छह वर्षों से चल रही पॉपुलर बहस ने, चाहे वह अखबार हो या टीवी चैनल, सरकार के खिलाफ बोलने या लिखने पर अघोषित रूप से प्रतिबंध लगा दिया है। अगर कहीं कुछ लिखा भी जा रहा है तो उसमें कोशिश यही होती रही है कि उसे संतुलित कैसे दिखाया जाए। मोटा-मोटी अखबारों ही नहीं बल्कि समाज से भी चिंतन और बहस को गायब करा दिया गया है।
इस महीने के शुरू में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने अर्थशास्त्री व भारत के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन से बातचीत की। लगभग चालीस मिनट की उस बातचीत में रघुराम राजन ने सुझाया कि कोरोना संकट से लड़ने के लिए सरकार द्वारा लगभग 65 हजार करोड़ रुपये जरूरतमंदों को दिए जाने चाहिए जिससे देश की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ गरीबों को भी बचाने में मदद मिलेगी। वैसे तो कहने को यह सामान्य बातचीत थी लेकिन सरकार समर्थक कारिंदों ने राहुल गांधी पर सवालों की झड़ी लगा दी। जितनी चर्चा होनी थी, उतनी हुई लेकिन मोदी सरकार ने उनके कहे के अनुरूप कोई भी वैसा कदम नहीं उठाया जिससे लगे कि कोरोना संकट से निपटने के लिए सरकार कोई कवायद कर रही है।
कोरोना से उपजे आर्थिक संकट पर राहुल गांधी और रघुराम राजन के बीच हुई पूरी बातचीत यहां पढ़ें
कुछ दिनों के बाद राहुल गांधी ने इस साल के नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी से इसी तरह की बातचीत की। उस बात का लब्बोलुआब भी वही था। पहली बातचीत में रघुराम राजन ने स्प्ष्ट शब्दों में सरकार को 65,000 करोड़ राशि खर्चने की सलाह दी थी जबकि बनर्जी ने सुझाया कि इस तरह के संकट में जनता को सरकार की तरफ से आर्थिक संसाधन मुहैया कराना चाहिए। उनका कहना था कि सिर्फ यही किये जाने से अर्थव्यवस्था को बचाया जा सकता है।
उन्होंने विस्तार से बताया कि ऐसी परिस्थिति में पूरी दुनिया में न सिर्फ गरीबों को बल्कि जरूरतमंदों को कैश मुहैया कराने से ही अर्थव्यवस्था बच पायी है। राहुल गांधी के इस सवाल में- कि आपकी नज़र में कोई ऐसा देश है जिसका मॉडल सबसे बेहतर है और उस मॉडल को अपनाया जा सकता है- अभिजीत बनर्जी ने कहा कि इंडोनेशिया में ऐसा हुआ है कि सरकार ने स्थानीय कम्यूनिटी को सारा कुछ दे दिया जिसे कम्यूनिटी ने जरूरत के हिसाब से आपस में बांट लिया। बनर्जी के इस जवाब पर राहुल गांधी बहुत ही महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हैं। राहुल गांधी कहते हैं कि भारतीय समाज जाति में बंटा हुआ समाज है। अगर यहां ऐसा कुछ कर दिया जाए तो सारी चीजें ताकतवर लोग आपस में ही बांट लेगें न कि जरूरतमंदों को इसमें से कोई हिस्सा मिलेगा!
COVID-19 संकट पर नोबेल विजेता अभिजित बनर्जी से राहुल गांधी की बातचीत यहां पढ़ें
राहुल गांधी की यह बातचीत काफी सार्थक और संवेदनशील मानी जाएगी। राहुल गांधी के साथ बातचीत करते हुए इन दोनों अर्थशास्त्रियों ने वही बात कही थी जो कुछ दिन पहले प्रोफेसर अमर्त्य सेन के साथ मिलकर इन तीनों ने इंडियन एक्सप्रेस में पहले ही कह दी थी। हां, उस लेख में किसी निश्चित आंकड़े का जिक्र नहीं था लेकिन यह बात उन लोगों ने साफ-साफ कही थी कि जब तक गरीबों के हाथ में पैसे नहीं जाएंगें तब तक आर्थिक संकट से नहीं निपटा जा सकता है।
संकट यहीं से शुरू होता है। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि मोदी सरकार ने कोरोना से लड़ने के लिए अभी तक कोई ऐसा सार्थक कदम नहीं उठाया है जिससे साबित हो कि सरकार इस बीमारी से लड़ने को लेकर किसी भी रूप में गंभीर है। जिस हड़बड़ी में बिना किसी तैयारी के पूरे देश को लॉकडाउन में धकेल दिया गया और उसके बाद पूरे देश में जिस तरह मजदूरों को सड़क पर भूखे-प्यासे निकलना पड़ा, देश के हर शहर से प्रवासी मजदूर सैकड़ों किलोमीटर चलकर सड़क पर उतर आये, इसने पहली नज़र में साबित कर दिया कि मोदी सरकार अपनी किसी गलती से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं है। जब 21 दिनों के लॉकडाउन को दूसरी बार बढ़ाया गया तो उसने पहले लॉकडाउन से कुछ नहीं सीखा जबकि तीसरी बार भी उसी गलती को दुहराया गया जिसके लिए यह सरकार बदनाम रही है।
तीसरी बार लॉकडाउन को बढ़ाये जाने से पहले सरकार ने मजदूरों को ट्रेन से अपने गृहराज्य छोड़ने की बात की लेकिन इसमें शर्त यह लगा दिया कि इसके लिए मजदूरों को पैसे भरने होंगे। जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि मजदूरों के पैसे उनकी पार्टी भरेगी, तब केन्द्र सरकार ने अगर-मगर करना शुरू किया, लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात ही निकला। सबसे मजेदार यह है कि एक तरफ सोनिया गांधी मजदूरों के किराये का पैसा देने की बात कर रही थीं तो दूसरी तरफ कांग्रेस शासित राज्य सरकार भी मजदूरों से पैसे लेकर उन्हें ट्रेन में बैठा रहे थे।
सवाल यह है कि अगर कांग्रेस पार्टी केन्द्र सरकार के लिए एक वैकल्पिक मॉडल सुझा रही है तो उसी मॉडल का कांग्रेस-शासित राज्य सरकारें क्यों नहीं पालन कर रही हैं? कांग्रेसनीत चार राज्य सरकारें- राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब और पुद्दुचेरी में वह ऐसा क्यों नहीं कुछ कर पायी है जिसका अनुसरण हर राज्य सरकार करे? कहने का मतलब यह कि सीमित संसाधन के बावजूद जिस तरह कोरोना से लड़ने में केरल की सरकार पूरी दुनिया के लिए श्रेष्ठ मॉडल बनकर उभरी है, उसी तरह का वैकल्पिक मॉडल कांग्रेस शासित राज्य सरकारें क्यों विकसित नहीं कर पायीं?
यहीं इसका उत्तर छुपा हुआ है। आर्थिक अराजकता के चालीस साल के बाद पूरी दुनिया के नीति-निर्माताओं को यह सोचना पड़ेगा कि समेकित विकास का मॉडल ही सफल हो सकता है न कि शोषण पर आधारित लूट का। कांग्रेस पार्टी के साथ दिक्कत यह है कि तीस साल पहले उसके ही बनाये गये आर्थिक लूट के पुराने मॉडल को बीजेपी उग्रतापूर्वक आगे बढ़ाती रही है, जिसमें कभी भी बराबरी की कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी। समेकित विकास का जो सबसे बेहतर मॉडल केरल में उपलब्ध है, उस मॉडल पर आज भी कोई बात करने को तैयार नहीं है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
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