जब देश संविधान दिवस मनाने में व्यस्त था, एक दलित की हत्या कर दी गई…


आज 27 नवंबर है। रात का एक  बजा है। मैं अमेरिका के बेहद खूबसूरत शहर में एक बेहद आरामदायक बिस्तर पर लेटा हूं, लेकिन नींद नहीं आ रही। मेरी आँखों से नींद गायब है, लेकिन ऐसा नहीं है कि मेरी आँखों में कोई क्रांति जाग गई है या सुनहरे भविष्य का कोई सपना मुझे सोने नहीं दे रहा। मुझे नींद इसलिए नहीं आ रही क्योंकि मुझे डर लग रहा है।

मैं सारा दिन काम से थक-हार कर घर आया था। बस सोने ही वाला था कि सोचा, थोड़ा ट्विटर (जो अब X कहलाता है) देख लूं। सबसे पहले एक नामी अमेरिकी विश्वविद्यालय में हो रही साउथ एशिया कॉन्फ्रेंस के बारे में पढ़ा। मैंने उसकी जानकारी एक दोस्त को भेजी कि यह उसके काम का हो सकता है। फिर एक भारतीय प्रोफेसर का फलस्तीनी छात्रों के समर्थन में दिया बयान पढ़ा। वह पढ़कर अच्छा लगा और खुशी हुई कि कोई तो अन्याय के खिलाफ बोल रहा है। मैंने फोन बंद कर के सोने की कोशिश की, तभी मेरी नजर एक वीडियो पर पड़ी।

वीडियो में तीन-चार लोग एक आदमी को लाठी-डंडों से पीट रहे थे। मेरे लिए यह कोई नया वीडियो नहीं था। हर रोज देश के किसी न किसी कोने से ऐसे वीडियो सामने आते रहते हैं। एक कॉमन पैटर्न है- एक भीड़ होती है जो किसी निहत्थे और बेसहारा व्यक्ति को मार रही होती है। मार खाने वाला हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रहा होता है या ऐसी हालत में पहुंच चुका होता है कि विरोध भी नहीं कर पाता। मेरी बेचैनी इस बात से है कि खुद दलित होने की वजह से मेरे जीवन में ऐसी न जाने कितनी घटनाएं घटी हैं जो आज भी मेरी नींद उड़ाने कि लिए काफ़ी हैं। पानी का घड़ा किसी ऊंची जाति वाले के घड़े से छू भर देने से कितनी बार गालियां तो मैंने खायी हैं। हां, मुझे किसी ने पीट-पीट कर जान से नहीं मारा यह मेरी अच्छी किस्मत है, मगर आगे भी कोई नहीं मारेगा इसकी गारंटी नहीं है।


https://twitter.com/VipendraManav/status/1861645913925840921

आज का वीडियो मध्य प्रदेश से था। तीस साल के एक युवक को तीन-चार लोग लाठी-डंडों से पीट रहे थे। वह युवक चमार समुदाय से था और मारने वाले- जो सोशल मीडिया के अनुसार गांव के सरपंच और उनके भाई-बंधु बताए जा रहे हैं और धाकड़ समुदाय से हैं- शायद मध्यप्रदेश में ओबीसी श्रेणी में आते हैं।

वीडियो देखने के बाद मेरे पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई, हालांकि हम रोजमर्रा की हिंसा देखने के इतने आदी हो चुके हैं कि हमें फर्क नहीं पड़ता। हां, कोई मार रहा है, कोई मर गया है। भीड़तंत्र ने हिंसा को इतना सामान्य बना दिया है कि लगता है हमारी सारी संवेदनाएं मर चुकी हैं। मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या महसूस कर रहा हूं, लेकिन उस 30 साल के युवक की लाठी-डंडों से पीट-पीट कर हत्या कर देने का कारण किसी पानी के ट्यूबवेल को लेकर झगड़ा बताया जा रहा है।

पानी को लेकर झगड़ा, उससे संबंधित हिंसा और दलितों का जीवन कोई नई बात नहीं है। पानी, जिसने हमें जीवन दिया है, हमारे अस्तित्व का अभिन्न अंग है। उस तक पहुंच के लिए लोगों को जान से हाथ धोना पड़ रहा है। यह अंबेडकर के महाड़ सत्याग्रह के समय भी था, 1927 में, और आज 2024 में भी है जब हम विकसित भारत का दावा कर रहे हैं।

भारत में जातिगत हिंसा एक आम बात है। मेरी बात पर यकीन नहीं होता तो गूगल पर जाइए, “दलित किल्ड” या “दलित किल्ड ओवर वाटर” टाइप कीजिए। आपको कितनी ही खबरें मिल जाएंगी इसी महीने की, इसी सप्ताह की, या शायद आज-कल-परसों की। जैसा मैंने कहा, इसमें एक पैटर्न है- बिल्कुल पूर्वानुमानित। कुछ मारने वाले, एक मरने वाला। कहानी का एक हिस्सा लगभग तय है- मरने वाला 100 में से 100 प्रतिशत दलित होगा। मारने वाला कोई सवर्ण हो, कोई बहुजन हो, या कोई अल्पसंख्यक, लेकिन जातिगत हिंसा में मरने वाला दलित ही होगा।


दिल्ली के 200 दलित परिवारों का राष्ट्रपति को खुला पत्र- हमें इच्छामृत्यु दे दीजिए!


क्या आपने कभी सुना है कि पानी के घड़े को छूने पर किसी ब्राह्मण युवक की पिटाई हुई हो? किसी ठाकुर, बनिया, जाट, राजपूत, अहीर, या देश की किसी अन्य प्रभावशाली जाति के व्यक्ति की? मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आपने ऐसा कुछ शायद ही कभी सुना होगा। अगर हजार में एक अपवाद हो तो पता नहीं।

जिस अमेरिकी विश्वविद्यालय की साउथ एशिया कॉन्फ्रेंस की मैंने बात की, उसमें एक बड़े इतिहासकार हैं। उनका तर्क है कि अंग्रेजों के आने के बाद भारत में जाति व्यवस्था मजबूत हुई। उनके अनुसार, अंग्रेजों ने जाति को एन्यूमरेटिव मोडालिटीज़ के माध्यम से मजबूत किया। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हूं।

एक और प्रोफेसर हैं, जिनकी किताब के बारे में मैंने आज अपने एक अच्छे दोस्त से बात की। उनका तर्क है कि उत्तर प्रदेश के चमार केवल चमड़े का काम नहीं करते थे। वे व्यापार करते थे और मूल रूप से वे किसान थे। फिर अंग्रेज आए, एक संस्थागत साजिश के तहत उनकी जमीनें छीन ली गईं और उनकी एक एसेंशियलाइज्ड आइडेंटिटी निर्मित की गई।

यह अकादमिक दृष्टि से बिल्कुल सही और प्रामाणिक तर्क है। उन्होंने जिला कृषि रिपोर्टों का हवाला देकर इसे साबित किया है। मेरा सिर्फ एक सवाल है- अगर चमार इतने ही समृद्ध थे तो उनके प्रति यह घृणा भारतीय समाज में कहां से आई? क्या ये सब अंग्रेज विरासत में दे गए हैं या कुछ और मामला है?


डॉ. आंबेडकर का सामाजिक सुधार और आज का परिदृश्य


मैं यहां उन सैकड़ों हिंसक घटनाओं की सूची बनाने नहीं बैठा जो खासकर चमारों और आम तौर पर दलितों के खिलाफ हुईं- उनके घर जलाने से लेकर उन्हें पीट-पीटकर मार देने तक।

कल ही भारत में संविधान दिवस मनाया गया। लोग अखबारों में लेख लिख रहे थे- हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में। भारत की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के प्रमुख संविधान की प्रति अपनी चुनावी रैलियों में लहराते हुए बताते हैं कि देश का संविधान खतरे में है! प्रधानमंत्री चुनावी रैलियों में बड़े ही नाटकीय अंदाज में कहते हैं कि “मैं बाबा साहब के संविधान को आंच नहीं आने दूंगा।”

लेकिन उधर, एक चमार को सरेआम लाठी-डंडों से पीट-पीट कर मार दिया जाता है। ठीक उसी दिन, जब संविधान दिवस मनाया जा रहा था,  खूबसूरत भाषा में लेख लिखे जा रहे थे।


(लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ ओरेगॉन, अमेरिका में इतिहास के शोधार्थी हैं)


About रविंदर कुमार

View all posts by रविंदर कुमार →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *