नरम हिन्दुत्व या ‘सेकुलर’ दलों की लड्डू पॉलिटिक्स?


सियासत भी अजीब होती है। अकसर इस बात का अंदाजा भी नहीं लग पाता कि कैसे वह शैतानों के सन्त में रूपांतरण को मुमकिन बना देती है और कैसे अन्य समुदायों के जनसंहारों को अंजाम देने वालों को ‘अपने लोगों’ के हृदयसम्राट या रक्षक के तौर पर स्थापित कर देती है।

शायद इसी विचित्रता की यह निशानी है कि अमेरिका के पूर्व राष्‍ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प  द्वारा हैती से आए आप्रवासियों को लेकर फैलायी जा रही झूठी ख़बरें कि वे कुत्तों का भक्षण करते हैं, अमेरिका की आबादी के अच्छे-खासे हिस्से को अविश्वसनीय नहीं लग रही- जिनका लगभग अस्सी फीसदी हिस्सा साक्षर है। इन झूठी और नफरती ख़बरों को लेकर हैती से जुड़े समूहों को ही अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है।

जहां दुनिया का सबसे ताकतवर जनतंत्र कुत्तों को लेकर पैदा किए गए एक विवाद में उलझा दिखता है, वहीं खुद को दुनिया में डेमोक्रेसी की माता कहलाने वाले भारत में लड्डू के इर्द-गिर्द खड़े किए गए इसी किस्म के एक फर्जी विवाद में पिछले दिनों लचीले हिन्दुत्व की राजनीति के नए रणबांकुरे उलझे दिखे।

एक अलसुबह आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने यह आरोप लगाकर सभी को चौंका दिया कि तिरुपति मंदिर में तैयार हो रहे लड्डुओं में न केवल मिलावट है बल्कि उसमें पशुओं के वसा के तत्व भी शामिल हैं। बिना किसी जांच की घोषणा के ऐसे विवादास्पद आरोप लगाने के पीछे नायडू का मकसद क्या रहा होगा, यह जानना मुश्किल नहीं था। यह तथ्य भी संदेह के घेरे में आ गया कि जिस रिपोर्ट का नायडू हवाला दे रहे थे, वह गुजरात की किसी प्रयोगशाला की थी और उसने जुलाई में ही नायडू सरकार के पास इसे भेजा था।

जुलाई की रिपोर्ट के चुनिंदा अंश हरियाणा आदि राज्यों में हो रहे चुनावों के ऐन पहले सार्वजनिक करने की बेचैनी इस बात की तरफ साफ इशारा कर रही थी कि मामला इतना आसान नहीं है। जानकारों ने इस बात पर भी सवाल उठाया कि तिरुपति मंदिर के खाद्य पदार्थों को हैदराबाद स्थित एनडीआरआइ (नेशनल डेयरी रिसर्च लैब) में भेजने की परम्परा को अचानक क्यों तिलांजलि दी गई और उसके स्थान पर गुजरात की एक नामालूम प्रयोगशाला कैसे फिट की गई।

विश्लेषकों ने फिलवक्त केन्द्र में भाजपा सरकार के इस अनन्य सहयोगी द्वारा उछाले गए इन आरोपों को कई स्तरों पर परखा। उनका यह भी आकलन था कि एक साथ वे कई निशाने साध रहे हैं:

एक, कुछ राज्यों के आसन्न चुनावों के ऐन पहले ऐसे आरोप लगा कर वे एक किस्म से ध्रुवीकरण की राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं ताकि उसके सीनियर पार्टनर की मदद हो; दूसरे, राज्य के स्तर पर उनके ‘चिर वैरी’ जगन रेड्डी, जो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं तथा जो ईसाई हैं, उन्‍हें भी बचाव का पैंतरा अख्तियार करने के लिए मजबूर कर रहे हैं क्योंकि इन कथित मिलावट भरे लड्डुओं को बनाने का जिम्मा एक तरह से उन पर ही मढ़ा जा सकता था; तीसरी अहम बात थी कि वह आंध्र प्रदेश के लोगों को भी यह समझाना चाह रहे थे कि वक्त़ आने पर वह ‘बहुसंख्यकों की भावनाओं’ को लेकर उतने ही संवेदनशील रहेंगे और उन्हें भाजपा जैसी ‘बाहरी ताकतों’ की तरफ आकर्षित होने की आवश्यकता नहीं है।



नायडू की कही इन बातों को उनके कनिष्ठ  सहयोगी आंध्र प्रदेश के उपमुख्यमंत्री पवन कल्याण ने हाथों हाथ लिया, जो जन सेना पार्टी से जुड़े हैं। एक तरफ जहां नायडू लड्डू में मिलावट को लेकर आरोप उछाल रहे थे, जांच का ऐलान तक नहीं कर रहे थे, वहीं पवन कल्याण एक कदम आगे जाकर इस प्रसंग को अखिल भारत के स्तर पर हिन्दुओं की आस्था से जोड़ रहे थे और यह मांग करते दिखे थे हिन्दू आस्था समूचे देश में खतरे में है और उसे बचाने के लिए सनातन धर्म रक्षा बोर्ड बनाने की जरूरत है।

आंध्र प्रदेश के समाज में ही नहीं बल्कि शेष भारत में ‘लड्डू में मिलावट’ की बात करते हुए सामाजिक ध्रुवीकरण को हवा देने की इन बदहवास कोशिशों पर मुल्क की आला अदालत ने कड़ा रुख अख्तियार किया। चंद्रबाबू नायडू और उनकी सरकार को फटकार लगाते हुए उसने कहा कि एक धर्मनिरपेक्ष मुल्क में ‘धर्म और राजनीति का घालमेल नहीं किया जा सकता।’  कोर्ट ने कहा, ‘’आप एक संवैधानिक पद पर हैं और जब आप ने मामले की जांच के आदेश दिए तो फिर मीडिया में पब्लिसिटी की क्या जरूरत थी… ईश्वर को राजनीति से दूर रखना होगा।’

अपने आप को सेक्युलर कहलाने वाले चंद्रबाबू नायडू या पवन कल्याण – जो कभी वाम पार्टियों के साथ मिल कर काम करते थे – का यह रूपांतरण (मुलायम या लचीले हिन्दुत्व की सियासत के नए प्रमोटर के तौर पर उनका यह पदार्पण) अब छिपा नहीं है। पवन कल्याण, जिन्होंने कभी चे गेवारा की हिमायत की थी और अपने लाल स्कार्फ को प्रदर्शित करते थे, इन दिनों प्रायश्चित यात्रा पर हैं, अलग-अलग मंदिरों की यात्रा कर रहे हैं और अब इनके स्कार्फ का रंग भी बदल गया है – वह केसरिया हो गया है। यह अकारण नहीं कि एक वेबपत्रिका ने पवन कल्याण पर केन्द्रित एक आलेख का शीर्षक ही दिया ‘गेवारा से गोलवलकर तक – हिन्दुत्व की ओर बढ़ते कदम’।

दक्षिण एशिया के इस हिस्से के सियासतदानों में ‘हिन्दुत्व लाइट’ अर्थात मुलायम हिन्दुत्व की सियासत के प्रति सम्मोहन आश्चर्यजनक नहीं है। विगत एक दशक से केन्द्र में तथा कई राज्यों में हिन्दुत्व की वर्चस्ववादी ताकतों के चलते विपक्ष के ही नहीं बल्कि सत्ताधारी खेमे के अब तक आधिकारिक तौर पर सेक्युलर माने जाते रहे दलों में भी ‘नरम हिन्दुत्व’ का मामला अधिकाधिक आकर्षक लग रहा है।

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अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब हिमाचल प्रदेश में सत्तासीन कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के मंत्री विक्रमादित्य सिंह ने – जो पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के बेटे हैं – यह कह कर हंगामा खड़ा कर दिया था कि प्रदेश के दुकानदारों को अपने नाम प्रदर्शित करने होंगे। तय बात है कि उत्तर प्रदेश में योगी राज में जिस बात को वैधता दी गई है और जिसके चलते धार्मिक आधार पर प्रताडना और हमले की संभावना बढ़ती है, उसी किस्म का यह कदम था। इस कदम का विरोध हुआ और कांग्रेस हाईकमान के आदेश पर विक्रमादित्य ने इस मामले की तुरंत सफाई पेश की।

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने प्रदेश में विधानसभा चुनावों (2023) के पहले इसी किस्म की कवायद की थी जिसमें उन्हें बुरी तरह शिकस्त मिली थी। कमलनाथ द्वारा धार्मिकता का सार्वजनिक प्रदर्शन या जगह-जगह ईश्वर की मूर्तियां खड़ा करने की यह कोशिश,यहां तक कि कांग्रेस के प्रदेश तथा अन्य जिला कार्यालयों में धार्मिक उत्सवों पर पूजा आदि आयोजित करने की उनकी कोशिश कहीं परवान नहीं चढ़ सकी और कांग्रेस की चुनावों में दुर्गति को रोका नहीं जा सका।

जाहिर था कि इस मामले में न कमलनाथ ने और न ही विक्रमादित्य सिंह ने शशि थरूर की इस सलाह पर गौर किया कि मुलायम हिन्दुत्व की ओर बढ़ने की ऐसी कोशिशों की परिणति कांग्रेस की दुर्दशा को रोक नहीं सकेगी। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि ‘हिन्दुत्व लाइट’ बनने की ऐसी कोशिशें ‘कांग्रेस जीरो’ में परिणत होंगी और इस बात पर जोर दिया था कि हमें अपनी धर्मनिरपेक्ष जमीन को अधिक मजबूत करना चाहिए और उसके दायरे का भी विस्तार करना चाहिए। हरियाणा के चुनाव का परिणाम थरूर की कही बात की एक बार और पुष्टि कर रहा है।



मालूम हो कि जनदबाव के तहत प्रकट धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी इस रास्ते को कभी अपनाती दिख सकती हैं। तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टी भी 2024 वे लोकसभा चुनावों के ऐन मुहाने पर इसी तरह हिन्दू हितों की हिमायत करती नजर आई थी।जनवरी 2024 में ही तृणमूल की नेत्री ममता बनर्जी ने अयोध्या में राममंदिर उद्घाटन को ‘राजनीतिक स्टंट’ घोषित किया था और 22 जनवरी को – जिस दिन मंदिर का उद्घाटन हुआ – शासकीय छुट्टी का ऐलान नहीं किया था। इसके बरअक्स उन्होंने कोलकाता और बंगाल के अन्य हिस्सों में सर्वधर्म रैलियों का आवाहन किया था और कोलकाता की रैली की अगुआई खुद की थी। तीन माह बाद ही तृणमूल ने इस मसले पर अपने रुख को सौम्य किया और भाजपा की आलोचना की धार कुंद करने के लिए कि वह शब-ए-बारात पर सरकारी छुट्टी का ऐलान करती हैं, मगर हिन्दू त्योहारों पर छुट्टी देने से संकोच करती हैं। उन्‍होंने रामनवमी (17 अप्रैल) को सरकारी छुट्टी का ऐलान किया था।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आम आदमी पार्टी ने ‘मुलायम हिन्दुत्व’ की राजनीति को स्वीकार करने में महारत हासिल की है, जिसकी अगुआई अरविंद केजरीवाल करते हैं और जो फिलवक्त दो राज्यों में शासन कर रही है और मुल्क के बाकी हिस्सों में भी अपनी पहुंच बढ़ाना चाहती है। यह अलग बात है कि वह विश्लेषकों और विद्वानों के एक हिस्से पर यह प्रभाव जमाने में भी सफल रही है कि उसका विस्तार भाजपा की अगुआई में फैलती नफरती राजनीति की एक मजबूत काट है।

 वैसे इस मामले में हम अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन के प्रसंग को पलट कर देख सकते हैं, जब उसका तथा बाकी पार्टियों का व्यवहार एक जैसा ही था या कुछ अलग था। मालूम हो कि जहां कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी ने इस प्रोग्राम को राजनीतिक स्टंट कहा और कार्यक्रम का निमंत्रण मिलने के बावजूद उसके अग्रणी नेता इस कार्यक्रम में नहीं गए, उन्होंने उसका बहिष्कार किया, उसके बरअक्स आम आदमी पार्टी ने न केवल शोभायात्रा निकालने का निर्णय लिया और जगह-जगह भंडारों का आयोजन किया, बल्कि उसकी सरकार ने निर्णय लिया कि वह विभिन्न विधानसभा के इलाकों में सुंदरकांड का आयोजन करवाएगी।

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हम गौर कर सकते हैं कि अपनी स्थापना के समय से ही आम आदमी पार्टी ‘बहुसंख्यकों की भावनाओं’ को लेकर अत्यधिक संवेदनशील रही है। 2014 के चुनावों को ही देखा जाए, जब आम आदमी पार्टी ने पहली दफा राष्‍ट्रीय चुनावों में हस्तक्षेप किया था।जैसे-जैसे चुनावों की तैयारी शुरू हुई और प्रत्याशियों के पर्चे भरने का सिलसिला शुरू हुआ, लोग इस बात को लेकर आश्चर्यचकित थे कि आम आदमी पार्टी ने गुजरात के अपने प्रत्याशियों की सूची में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट क्‍यों नहीं दिय जबकि इस सूबे में मुसलमानों की आबादी नौ फीसदी है। राज्य के नेतृत्व ने इस मसले पर यह रुख अख्तियार किया कि उन्हें इस समुदाय से एक भी योग्य प्रत्याशी नहीं मिला। ‘आप’ की इस पहली चुनावी पारी पर जाने-माने पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय का बयान बिल्कुल सटीक था कि एक भी मुसलमान प्रत्याशी न खड़ा करके उसने मुख्यधारा की पार्टियों द्वारा कायम इसी नियम पर मुहर लगाई कि ‘मुसलमानों को टिकट नहीं देना है’।

‘आप’ के आचरण की बारीकी से पड़ताल करने के लिए हम चाहें तो दिल्ली विधानसभा के चुनावों में उसकी आखिरी जीत (2020) पर नजर डाल सकते हैं, जब उसने तीसरी बार लगातार विधानसभा पर जीत का परचम लहराया। निस्सन्देह इन चुनावों में भाजपा हारी, मगर साथ ही साथ यह भी विलक्षण था कि उसके पक्ष में पड़े वोटों में वर्ष 2015 के वोटों की तुलना में आठ फीसदी का इजाफा देखा गया। वोटों के इस इजाफे को भाजपा द्वारा इन चुनावों के पहले चलाई बेहद एकांगी किस्म की मुहिम के साथ जोड़ कर देखा जा सकता है।



अगर हम उन दिनों के अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं को पलटें तो पता चलेगा कि दिल्ली के इतिहास में पहली दफा ‘अन्य’ के खिलाफ बेहद उद्वेलित करने वाली मुहिम चलाई गई जिसमें संविधान की कसमें खाकर बने कैबिनेट मंत्री तक शामिल थे। इसी किस्म के भाषण पार्टी के विभिन्न नेताओं ने भी दिए थे। यह शायद पहली दफा था कि चुन कर संसद पहुंचे नेताओं ने भी एक समुदाय विशेष को निशाना बनाने में और बहुसंख्यक समुदाय को उनके खिलाफ गोलबंद करने में कोई कोताही नहीं बरती।

 नेताओं ने जो नफरती बातें सभाओं में, रैलियों में कहीं, वह तो सार्वजनिक दायरे में उपस्थित है लेकिन जमीनी स्तर पर ‘अन्य’ समुदाय को, समुदाय से जुड़े साधारण लोगों को निशाना बनाने के लिए बेहद संगठित, सुनियोजित और अनुशासित प्रयासों को अंजाम दिया गया। बातों का निचोड़ यही था कि ‘हिन्‍दू खतरे में है’ और अगर वे संगठित नहीं हुए तो ‘वे कब्जा कर लेंगे’।

जैसी फिजा बनाई जा रही थी उसमें किसी भी राजनीतिक समूह की यह जिम्मेदारी बनती थी, जो खुद सांप्रदायिक नजरिये का वाहक नहीं है, कि वह नफरत के इन सौदागरों को चिन्हित करे और इस बात को सुनिश्चित करे कि ऐसे लोगों, समूहों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई होलेकिन हम सबने यही पाया कि आम आदमी पार्टी घृणा के इस आतंक का प्रतिवाद करने में बुरी तरह असफल रही। उसने यह रणनीति बनाई कि वह इस बहस से दूर रहेगी। उसे यह रणनीति मुफीद जान पड़ी कि मौन रहकर अपने ‘काम’ पर केन्द्रित रहा जाए।

जब संविधान का समूचा ढांचा ही प्रश्नांकित किया जा रहा हो और यह सूचित कोशिश जारी हो कि उसे धीरे-धीरे निष्‍प्रभावी किया जाना हे, तब मौन बनाए रखना और विकसित हो रही बहस के प्रति बेरुखी अख्तियार करना सरासर गलत है।

हम यह भी याद कर सकते हैं कि उन दिनों सीएए और एनआरसी के खिलाफ शाहीनबाग आंदोलन खड़ा हुआ था, जिसकी प्रतिक्रिया देश के तमाम भागों में देखी गई थी। न केवल अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाएं, बच्चे और बाकी लोग बल्कि अन्य समुदायों के लोग तथा जनतांत्रिक अधिकारों के लिए समर्पित लेखक, कार्यकर्ता इस ऐतिहासिक आंदोलन से जुड़े थे। भारत के संविधान की रक्षा करना शाहीनबाग आंदोलन का केंद्रीय नारा बना था।इस ऐतिहासिक आंदोलन को लेकरभी केजरीवाल ने कोई स्टैण्ड नहीं लिया, लेकिन जब किसी बहस में उन्हें जवाब देने के लिए मजबूर होना पड़ा तो उनका बयान था कि यह अमित शाह की नाकामयाबी है – जिनके मातहत दिल्ली पुलिस काम करती है – कि वह उस रोड को खाली नहीं कर पा रहे हैं – जहां यह प्रदर्शन हो रहा है।

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केजरीवाल ने यहां तक कहा कि ‘अगर दिल्ली पुलिस उनकी अपनी सरकार के मातहत होती तो वह दो घंटे में उसे खाली करा देते।’ आंदोलन को लेकर उनका मौन और बाद में दिया गया विवादास्पद बयान इसी बात की ताईद कर रहे थे कि उन्हें ‘बहुसंख्यक भावनाओं’ की अधिक चिन्ता है , जो सामाजिक तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति जबरदस्त पूर्वाग्रह रखती है।बहुसंख्यक भावनाओं के प्रति केजरीवाल की अत्यधिक संवेदनशीलता बार-बार देखने में आती रही है। हम चाहें तो जम्मू और कश्मीर से अनुच्‍छेद 370 को हटाने और भारत के इतिहास में पहली दफा किसी राज्य को केन्द्र-शासित प्रदेश का दर्जा देने की घटना को भी देख सकते हैं। याद रहे कि केजरीवाल की पार्टी ने इस धारा को हटाने का समर्थन किया था।

विश्लेषकों ने इस बात को भी नोट किया है कि इन चुनावों के सम्पन्न होने के बाद ‘हिन्दू ’ होने की केजरीवाल की पहचान को अधिक वरीयता दी जा रही है। केजरीवाल की अगुआई में आम आदमी पार्टी जीती जरूर, मगर उन्हीं दिनों एक अग्रणी पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी ने इन चुनावों की सटीक व्याख्या की थी ‘आप ने चुनाव जीता जरूर है, लेकिन कोई यह दावा करे कि ‘कट्टरता/धर्मान्धता में कोई कमी आई है तो वह भ्रम का शिकार है।’

‘मुलायम हिन्दुत्व’ के इस अनोखे प्रयोग में नए-नए शामिल ये सभी लोग/समूह अपने आप को बहुत स्मार्ट खिलाड़ी मानते होंगे, जो एक तरफ अपनी पहचान बचाने में कामयाब हैं और इलाके में अपनी पहुंच बढ़ाने में भी सफल हैं, लेकिन फौरी स्वार्थों के लिए की गई इस चालाकी के तहत वे इस बात को आसानी से भूल जाते हैं कि धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों और मूल्यों की हिफाजत न करते हुए और अपने तरीके से हिन्दुत्व की सियासत की एक भौंडी नकल करते हुए कुल मिला कर वे हिन्दुत्व के वर्चस्ववादी प्रोजेक्ट के विस्तार को ही सुगम बना रहे हैं। एक धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक, संप्रभु और समाजवादी भारत के हिन्‍दू राष्‍ट्र में रफ्ता-रफ्ता रूपांतरण को वे आसान बना रहे हैं।



कुछ साल पहले सेक्युलर पूंजीवादी पार्टियों की ऐसी ही कवायद को लक्षित करते हुए बुद्धिजीवी प्रताप भानु मेहता ने उनके इस एजेंडे को इन शब्दों में बयां किया था:

‘‘चुनाव तो आते-जाते रहेंगे, लेकिन भाजपा अपनी सफलता को इस आधार पर नापेगी कि वह दीर्घकालीन सांस्‍कृतिक रूपांतरण में किस हद तक सफल हुई है। इस सांस्‍कृतिक रूपांतरण का लक्ष्य दोहरा है: एक है हिन्दू बहुसंख्यकवाद पर अपनी दावेदारी पेश करना। साथ ही साथ वह हिन्‍दू धर्म को ऐसे रूपांतरित करना चाहती है ताकि विभिन्न किस्म के धार्मिक व्यवहारों /आचारों के बजाय वह एक  संगठित एथनिक पहचान के तौर पर उपस्थित हो।’’

क्या यह उम्मीद करना गलत होगा कि इन दिनों अपने आप को गदगद महसूस कर रहे लचीले हिन्दुत्व के ये सभी प्रमोटर इस बात को समझेंगे कि लचीले हिन्दुत्व की यह सवारी दरअसल शेर की सवारी है और इससे जितना बचा जाए वह बेहतर है। 


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