लोकसभा चुनाव 2024 के परिणाम के आने बाद न्यूज चैनलों, अखबारों और वेबसाइटों पर लेख और खबरें प्रकाशित-प्रचारित हुईं कि विपक्षी दलों ने आरक्षण और संविधान पर भ्रम फैलाकर वोटों का ध्रुवीकरण कर दिया है। ऐसी खबरें भाजपा नेताओं के बयानों के हवाले से भी चलाई गईं और मीडिया में बैठे भाजपा के कुछ शुभचिंतक पत्रकारों ने अपनी ओर से भी चलाईं।
‘अबकी बार चार सौ पार’ का नारा लगाते-लगाते बड़ी मुश्किल से पूरा एनडीए कुनबा 293 सीटों तक ही पहुंच पाया, 300 भी पार नहीं कर पाया। राममंदिर निर्माण के बाद भी भाजपा अपने दम पर बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच पाई, खासकर यूपी में जिस तरह की पटकनी भाजपा ने खाई है वो यह दिखाता है कि जनता में सरकार के कामकाज और रवैये के प्रति कितनी नाराजगी थी। आत्ममुग्ध भाजपा, उसके नेताओं और समर्थकों ने इसकी कल्पना शायद सपने में भी नहीं की होगी कि अपने सबसे बड़े मुद्दे को जमीन पर उतारने, यानी अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के बावजूद जनता उनका यह हश्र कर देगी और भाजपा को अयोध्या में ही हरा देगी।
अब परिस्थिति ऐसी आ गई है कि भाजपा की सत्ता टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू और जेडीयू के नीतीश कुमार के सहारे बची हुई है। चुनाव में अपेक्षा के अनुसार परिणाम न आने के बाद भाजपा इस वक्त मंथन कर रही है। मंथन में क्या निकल कर आ रहा है यह तो उसके नेता ही जानें, लेकिन भाजपा के लोग बाहर यही बता रहे हैं कि विपक्षी दलों ने आरक्षण और संविधान के मुद्दे पर भ्रम फैला दिया जिस कारण उसको इस चुनाव में नुकसान हो गया। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी हमेशा की तरह भाजपा के सुर में सुर मिलाते हुए इसी बात को आगे बढ़ा रहा है। लेकिन सच क्या है?
आरक्षण खत्म किए जाने और संविधान बदले जाने की बात आखिर क्यों फैली? यह सिर्फ विपक्ष द्वारा फैलाया गया भ्रम था या सचमुच भाजपा ऐसा करना चाहती थी? इसका जवाब भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों की कार्यप्रणाली, उनके नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बयानों से मिल सकता है।
आरक्षण खत्म करने और संविधान को बदलने को लेकर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं के बयान कई बार सामने आ चुके हैं। उन्ही बयानों को आधार बनाकर विपक्ष ने इस बार जनता को आगाह करते हुए अपने पक्ष में वोट करने की अपील की और उसे इसका फायदा भी मिला।
आरक्षण का सवाल
आरक्षण खत्म किए जाने की आशंका का सबसे बड़ा उदाहरण यूपी में 69 हजार शिक्षकों की भर्ती का मामला है जिसमें आरक्षण के प्रावधानों का जमकर उल्लंघन हुआ। शिक्षक भर्ती में भाजपा सरकार का रवैया और उसकी आरक्षण-विरोधी मानसिकता खुल कर सामने आ गई। इस भर्ती में पिछड़े वर्गों से उनका 27 प्रतिशत आरक्षण पाने का हक़ छीन लिया गया।
ओबीसी और दलित वर्गों के अभ्यर्थियों ने न्याय पाने की आस में संघर्ष किया, लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिल पाया। न्याय पाने के लिए पिछड़े वर्ग से आने वाले अभ्यर्थियों ने उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य, स्वतंत्रदेव सिंह, आशीष पटेल, ओमप्रकाश राजभर, बेसिक शिक्षा मंत्री संदीप सिंह समेत कई नेताओं के कार्यालय और आवासों पर प्रदर्शन किया लेकिन कोई भी आरक्षण की विसंगति को दूर करवाकर अभ्यर्थियों को न्याय दिलाने में सफल नहीं हो पाया।
ख़बरें आईं कि वंचित वर्गों की नाराजगी को देखकर चुनावी नुकसान हो जाने की आशंका के चलते लोकसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल ने इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात भी की थी, लेकिन वहां भी इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया गया और पिछड़े वर्ग के पीड़ित अभ्यर्थियों को न्याय दिलाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने भी इस मामले को संज्ञान में लेकर यूपी सरकार से जवाब तलब किया लेकिन नतीजा जस का तस रहा। यह जानना बेहद जरूरी है कि 69 हजार शिक्षकों की भर्ती के पीड़ित अभ्यर्थी अब भी सड़क से लेकर अदालतों तक न्याय पाने के लिए संघर्षरत हैं। शिक्षक भर्ती में हुए आरक्षण घोटाले को भाजपा ने भले ही हलके में लिया हो लेकिन सत्यता यह है कि इसी मामले ने भाजपा द्वारा ‘आरक्षण खत्म’ कर दिए जाने की बात को यूपी में सबसे ज्यादा बल दिया।
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सिर्फ शिक्षक भर्ती में आरक्षण घोटाला नहीं, ओबीसी के नाम पर 2017 में यूपी की सत्ता में वापसी करने वाली भाजपा सरकार ने तो जैसे ओबीसी आरक्षण को निपटाने का ठेका ही ले लिया है। उत्तर प्रदेश में निकलने वाली सरकारी नौकरियों में आरक्षण के प्रावधानों का उल्लंघन आम बात हो गई है। कई भर्तियों में ओबीसी की कट ऑफ सामान्य से ज्यादा कर देना, ओबीसी के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत से कम सीटों पर भर्ती विज्ञापन निकालना, संस्थानों की भर्तियों में नॉट फ़ाउंड सुटेबल यानि ‘योग्य उम्मीदवार’ नहीं मिल सका कह कर दलित-पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों को नियुक्ति से वंचित कर दिया जाना, फिर उनके लिए आरक्षित पदों को अनारक्षित कर दिया जाना यूपी में आम बात हो गई है।
यूपी में सरकारी वकीलों, थानेदारों की नियुक्तियों, राज्य के अंतर्गत आने वाले विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में कुलपतियों, प्रोफेसरों और कर्मचारियों की नियुक्तियों में समय-समय पर जिस तरह का सवर्णवाद हुआ है उसे कौन नहीं जानता? जिलाधिकारियों, पुलिस अधीक्षकों और प्रभाव वाले अन्य प्रशासनिक पदों पर नियुक्तियों में किसको तरजीह मिलती है सबको पता है। यह सोची-समझी रणनीति के तहत हो रहा है या फिर भूल से, यह तो सरकार में बैठे लोग ही जानें लेकिन ऐसा होने से हमेशा नुकसान वंचित वर्गों का ही हुआ है।
अगर पिछड़ों को भागीदारी देनी है, सामाजिक न्याय देना है, उनका आरक्षण सुनिश्चित करना है, तो ऐसे मामलों पर लगाम क्यों नहीं लग पाई? इतना सब होने के बाद ओबीसी का भाजपा और उसकी सरकार पर विश्वास भला कैसे बना रहे?
2014 में नरेंद्र मोदी के केंद्र की सत्ता में आने के बाद से जिस तरह से केंद्रीय संस्थानों का अंधाधुंध निजीकरण हुआ है उससे भी दलितों-पिछड़ों का आरक्षण ख़त्म होता जा रहा है। इसका सीधा प्रभाव इन वर्गों के हितों पर पड़ रहा है। लेटरल एंट्री की व्यवस्था ने भी आरक्षण को ख़त्म किया है। लेटरल एंट्री पिछले दरवाजे से अपनी पसंद के लोगों को नौकरशाही में घुसाने का एक तरीका है जिसमें आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं किया गया है। मोदी सरकार प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस योजना लेकर आई जिसके तहत यूजीसी नेट या पीएचडी की डिग्री की कोई जरूरत नहीं है। इसमें भी आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं की गई।
यदि नीयत ठीक है, पिछड़े और वंचित वर्गों के हितों को सरकार सुनिश्चित करना चाहती है तो लेटरल एंट्री और निजी क्षेत्रों में भी आरक्षण की व्यवस्था करने में सरकार को क्या दिक्कत है? ऐसा न करके भाजपा आरक्षण-विरोधी होने का सबूत नहीं दे रही है क्या?
आपको 13 पॉइंट रोस्टर का मामला तो याद ही होगा जिसमें विश्वविद्यालय की जगह विभाग को इकाई मानने की बात की गई थी। इसके अलावा यूजीसी की तरफ से ही आरक्षित पदों को अनारक्षित करने का प्रस्ताव भी दिया गया था। यूजीसी के दिशानिर्देश बार-बार ओबीसी और दलितों के खिलाफ ही क्यों आ रहे हैं? यूजीसी में आखिर वंचित वर्गों के विरोधी लोग क्यों बैठे हैं? उन्हें किसने बैठाया है?
केंद्रीय विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में किन जातियों के लोग कुलपति, प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफेसर आदि नियुक्त हो रहे हैं? कितने कुलपति ओबीसी और दलित वर्गों से हैं इसकी पड़ताल कर लीजिए। पड़ताल कर लीजिए कि इन विश्वविद्यालयों में कितने प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफेसर पिछड़ी और दलित जातियों से हैं? असिस्टेंट प्रोफेसरों की स्थाई और अस्थाई नियुक्तियों को नॉट फाउंड सूटेबल (योग्य उम्मीदवार नहीं मिल सका) कहकर पिछड़ों-दलितों को नियुक्ति से क्यों वंचित कर दिया जा रहा है? इस तरह की नीतियों से किसको नुकसान हो रहा है?
पिछड़े और वंचित समुदायों को न्याय और भागीदारी देने, उनकी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए, उसके हिस्से के खाली पड़े पदों को बैकलॉग से भरने की कोई व्यवस्था बनाने के लिए केंद्र सरकार ने कोई कदम क्यों नहीं उठाया? लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने वाले विधेयक में ओबीसी कोटे की व्यवस्था नहीं किए जाने से ओबीसी वर्गों की महिलाएं नाराज क्यों न हों?
जातिगत जनगणना का विरोध करना भी भाजपा को भारी पड़ा है। पिछड़े और वंचित वर्गों के लोगों के मन में सवाल है कि जातिगत जनगणना से भाजपा को आखिर दिक्कत क्यों है। बिना गिनती किए विभिन्न जातियों और समुदायों के लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाएं कैसे बनाई जाएंगी? अगर जातियों की गिनती हो जाती है, उसके आंकड़े सार्वजानिक हो जाते हैं तो उससे भाजपा का क्या नुकसान हो जाएगा? किसकी पोल खुल जाएगी? संख्या के अनुपात में भागीदारी की मांग से भाजपा को क्यों दिक्कत हो रही है?
वंचित वर्गों के हित-अहित से जुड़े ये मामले भले ही किसी को बिना महत्त्व के मामले लग सकते हों, भले ही उस पर मीडिया में डिबेट आयोजित न की जाती हो लेकिन जिसका हित प्रभावित होगा, जिसके साथ अन्याय होगा वह अपनी नाराजगी समय आने पर दिखाएगा ही।
संविधान को लेकर आशंका
संविधान बदल देने की बात भी भाजपा के भीतर से ही उभरी है। 2017 में भाजपा सांसद अनंत कुमार हेगड़े ने संविधान को बदलने की बात की थी। भाजपा के समर्थन से राज्यसभा सांसद बने भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे रंजन गोगोई ने संविधान के मूल ढांचे पर ही सवाल उठा दिया था। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष रहे बिबेक देबराय ने अगस्त 2023 में एक लेख में लिखा था कि अब ‘धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, समानता, न्याय और बंधुत्व जैसे शब्दों का कोई मतलब नहीं है। संविधान औपनिवेशिक विरासत है इसलिए इसे हटाकर नया संविधान लिखा जाना चाहिए।’
इस आम चुनाव में मेरठ से भाजपा उम्मीदवार अरुण गोविल ने संविधान को लेकर कहा कि ‘जब हमारे देश का संविधान बना था, तभी से उसमें धीरे-धीरे परिस्थितियों के अनुसार थोड़ा बहुत बदलाव हुआ है। परिवर्तन प्रकृति की निशानी भी होती है। इसमें कोई खराब बात नहीं है। उस समय की परिस्थितियां कुछ और थीं और आज की परिस्थितियां कुछ और हैं।’ अरुण गोविल ने आगे कहा था कि ‘संविधान एक व्यक्ति की मर्जी से नहीं बदल सकता। मुझे लगता है कि जो 400 पार का नारा दिया गया है, मोदी जी ऐसे ही कोई भी बात नहीं कहते। उसके पीछे कुछ न कुछ अर्थ अवश्य होता है।’
अब इसका क्या अर्थ निकाला जाए? राजस्थान के नागौर से भाजपा प्रत्याशी ज्योति मिर्धा ने भी अपने बयानों में कहा कि संविधान में बदलाव तभी हो सकता है जब 400 से ज्यादा सीटें आएं। अयोध्या से हारे भाजपा के पूर्व सांसद लल्लू सिंह ने भी अपने चुनाव प्रचार के दौरान ऐसी ही बात कही थी, जिसके लिए बाद में उन्हें इनकार करना पड़ा लेकिन वह उनके काम नहीं आया और वे समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी अवधेश प्रसाद से चुनाव हार गए जो दलित समुदाय से आते हैं।
भाजपा के छोटे-मोटे नेताओं की बात तो छोड़ ही दीजिए जो आए दिन संविधान बदलने का ख्वाब देखते हुए बयानबाजी करते रहते हैं। अब जनता इन बातों का क्या अर्थ निकालती? ऐसे बयान देने वाले अपने नेताओं पर भाजपा ने कोई कारवाई की हो, किसी को बाहर का रास्ता दिखाया हो, तो बताइए।
क्या संविधान पढ़ने की सलाह देना भी देश में अब गुनाह हो गया है?
भाजपा और संघ के नेता आरक्षण को ख़त्म करने, उसकी समीक्षा करने और उसका आधार बदल कर आर्थिक कर देने की बात लगातार उठाते रहते हैं। भाजपा और उसकी सवर्ण तुष्टिकरण की नीतियों के समर्थक-प्रचारक तमाम ताथाकथित संतों-महंतों, बाबाओं और कथावाचकों ने भी आरक्षण को ख़त्म करने और उसका आधार आर्थिक करने, हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात लगातार उठाई है। देश को संविधान के बजाय मनुस्मृति से चलाये जाने की उनकी मंशा भी जगजाहिर है। इन तथाकथित संतों-महंतों, बाबाओं को समता का सिद्धांत, आरक्षण की व्यवस्था और भारत की धर्मनिरपेक्षता हजम नहीं होती है, लेकिन क्या भाजपा ने ऐसे लोगों से कोई दूरी बनाई? अपनी तरफ से कोई स्पष्टीकरण दिया?
संविधान और आरक्षण के खिलाफ कुतर्क करने, संविधान के उपबंधों को सार्वजनिक मंच से चुनौती देने, संविधान बदलने और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की जगह हिन्दू राष्ट्र बनाने का आह्वान करने वाले तथाकथित संतों, महंतों, बाबाओं और कथावाचकों के मंचों पर जाकर भाजपा के लोग उनका महिमामंडन करते हैं या नहीं? उनको समाज के लिए आदर्श बताकर उनके यहां नतमस्तक रहते हैं या नहीं?
फिर पिछड़ों और दलितों के मन में आरक्षण के खत्म किए जाने और संविधान को बदल दिए जाने की शंकाएं क्यों न उत्पन्न हों?
संविधान के उपबंधों और आरक्षण के खिलाफ जहर उगलने वाले तथाकथित संत-महंत और कथावाचक भाजपा के मंचों पर भी मिलते हैं और उसका एक निष्ठावान कार्यकर्ता की तरह प्रचार भी करते हैं, उसकी जीत पर खुश होते हैं और हार पर छटपटाते भी हैं! क्यों छटपटाते हैं? क्योंकि उन्हें पता है कि भाजपा उनके एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए काम कर रही है। 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद ऐसा हुआ भी- तमाम संस्थाएं कमजोर कर दी गईं, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की जगह हिंदुत्व के मूल्यों को बढ़ावा दिया गया और उसे ही थोपा जाने लगा।
भ्रम नहीं, वास्तविकता
फिर भ्रम फैलाने की बात कहां से आती है? अगर मान भी लेते हैं कि भाजपा के नेता संविधान बदलने की नहीं, बल्कि संविधान में संशोधन की बात कर रहे थे तो संविधान के संशोधन की बात चुनावी भाषणों में क्यों की जा रही थी? संविधान संशोधन चुनावी मुद्दा है क्या? यह आखिर किसको खुश करने के लिए किया जा रहा था? संविधान संशोधन तो जरूरत के हिसाब से होने वाली एक सामान्य प्रक्रिया है, उसका चुनावी भाषणों में क्या काम?
दरअसल, भाजपा की यह कोशिश अपने उन समर्थक वर्गों को खुश करने की थी जिन्हें समानता के सिद्धांत से चिढ़ है; आरक्षण की व्यवस्था से चिढ़ है; और असमानता वाली उस व्यवस्था की चाह है जहां वर्ण और जाति के आधार पर कुछ लोगों को वर्चस्व और विशेषाधिकार मिलता है।
एक तरफ ऐसी स्थिति और दूसरी तरफ विपक्षी दलों कांग्रेस-सपा आदि का सामाजिक न्याय और भागीदारी दिलाने का वादा, जातिगत जनगणना कराने का वादा, पीडीए का नारा और सामाजिक समीकरणों को ध्यान में रखकर टिकट वितरण- ये सब भारी पड़ना ही था।
लोकसभा चुनाव 2024 के परिणाम ने बता दिया है कि आरक्षण को खत्म करने और संविधान को बदलने की मंशा रखकर चुनाव नहीं जीते जा सकते। चुनाव परिणाम ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि ‘निर्णायक’ दलित-पिछड़े ही हैं। इसलिए दलितों-पिछड़ों की उपेक्षा व उनके हितों की अनदेखी किसी को भी भारी पड़ सकती है।
लेखक राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (तत्कालीन) में उत्तर प्रदेश के संयोजक रह चुके हैं