बात बोलेगी: बिकवाली के मौसम में कव्वाली


सुनते हैं जीडीपी में कुछ मेकओवर हुआ है। अगर वाकई हुआ है तो यह बिकवाली का नतीजा है। देश के हलके में प्रसन्नता की लहरें हिलोरें लेती देखी जा रही हैं। शेयर मार्केट प्रसन्न है, वित्‍त मंत्री प्रसन्न हैं, नीति आयोग प्रसन्न है, और तो और कॉर्पोरेट मीडिया भी प्रसन्न है। जो प्रसन्न नहीं हैं वे प्रधानमंत्री अन्न योजना का राशन ले रहे हैं और मीडिया को बाइट्स दे रहे हैं। जो लोग प्रसन्न हैं वे न लाइन में खड़े हैं और न ही कहीं कोई बाइट दे रहे हैं। मीडिया भी उनसे खुशी का राज पूछने नहीं जा रहा। जब इतने लोग प्रसन्न हैं तो ज़ाहिर है वे भी प्रसन्न होंगे जिनके लिए यह मेकओवर मुनाफे की वृद्धि दर बन कर सामने आया है।

इस बिकवाली के महीने में सरकार ने क्या-क्या नहीं बेचा! जो बचा है उसे किसी और महीने बम्पर सेल लगाकर बेचा जा सकता है। कैलेंडर में कोई एक ही महीना थोड़े है! और आएंगे। अगस्त के बाद सितंबर आ ही गया है, अक्टूबर को आने से कौन रोक सकता है? बहरहाल…

जो बिक रहा है उसे इस देश के लोग सार्वजनिक संपत्ति के नाम से जानते हैं। सार्वजनिक मिल्कियत के दो चेहरे होते हैं। पहला, मिल्कियत सबकी होती और दूसरा, यह किसी की नहीं होती। इसका ये भी मतलब नहीं है कि वो आपकी है या हमारी है। वो हम सब की है। वैसे ही जैसे देश सबका है, लेकिन किसी एक का नहीं; यह धरती सबकी है लेकिन किसी एक की नहीं; यह आसमान, ये हवाएं, ये मरूस्‍थल, ये सागर और यहां तक कि तारीखें और ये वक़्त भी हम सब के हैं लेकिन हम में से किसी एक के नहीं। सामूहिक इतिहास, साझा विरासत पर भी यही बात लागू होती है।

इनका प्रभाव सभी पर है, लेकिन इनके बारे में कोई निर्णय लेने का हक़ किसी एक को नहीं है। जब इन्‍हें लेकर सभी लोग कुछ कहें तभी उसकी मान्यता होगी अन्‍यथा कुछ लोग कुछ-कुछ कहते रहें या कोई निर्णय लें तो उसकी कोई बखत नहीं होगी। सरकार ने इसीलिए यह इत्‍मीनान कर लिया है कि इस देश में भले हम-आप रहते हैं, साथ-साथ भी रहते हैं, लेकिन हम और आप का जोड़ ‘सब’ नहीं होता। हमें हमारे मुताबिक चिंताएं दे दी जा रही हैं, आपको आपके मुताबिक। अब हम अपनी-अपनी चिंताओं में घुले जा रहे हैं। ‘सब’ का इस बीच लोप कर दिया गया है और ‘सबकी’ चिंता करने का वक़्त अब किसी के पास नहीं है क्योंकि हम अपनी चिंता कर रहे हैं और आप अपनी।

ऐसे में जब ‘सबकी लेकिन किसी की नहीं’ यह सरकार ‘सबकी’ तरफ से ‘सबकी’ सम्पत्तियों के साथ कुछ खुराफात करती है तो ‘सब’ इसे देखते रहते हैं। ‘सब’ एक साथ नहीं बोलते और जैसा कि ऊपर अर्ज़ किया है कि कुछ लोगों के बोलने से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वह केवल उनका नहीं है बल्कि ‘सब’ का है। इसलिए होता ये है कि ये सबके सामने बिकते चले जाते हैं, फिर भी यह जानते हुए कि ये सबके हैं और उन सब में हम भी शामिल हैं हम कुछ कर नहीं पाते क्योंकि अगर उन्हें बेचने का निर्णय सबकी कही जाने वाली सरकार ने लिया है तो उसे न कहना भी एक निर्णय होगा- जो केवल हम नहीं ले सकते, जब तक कि इस इंकार के निर्णय में ‘सब’ शामिल न हों!

और इस तरह से हम ‘सब’ महज तमाशबीन बनकर रह जाते हैं- बाज़ार से गुजरते हैं जो सबका है लेकिन खरीददार नहीं हो पाते; हम अपनी मुक्ति में सबकी मुक्ति मिला नहीं पाते। याद रखने की बात यह है कि यह एकता या अखंडता जैसा राष्ट्रवादी मामला नहीं है, बल्कि राष्ट्रवादी एकता और अखंडता का आडंबर असल में एकता के लिए ऐसी ऐसी शर्तों का निर्माण करता है कि जिनकी पूर्ति करते-करते कई तबके इस एकता से बाहर हो जाते हैं। इन शर्तों में वे तमाम शर्तें हैं जो चाहकर भी एकता का एक सूत्र तैयार नहीं कर पातीं, बल्कि समाज में सतह पर फैले उन विभेदों को उजागर करने की मुहिम में तब्दील हो जाती हैं जिसका अभीष्ट कुछ ऐसा होता है कि एकता बनाने की कार्यवाहियां मुसलसल चलती रह सकें।

अब तो समाज में भी ऐसी कोशिशें नहीं होतीं कि तमाम विभिन्नताओं को उनकी विशिष्टताएं मानते हुए कोई एक सूत्र रचा जा सके, बल्कि सारी ताक़तें इन विभिन्नताओं को एकता की राह में सबसे बड़ी बाधा बताने पर उतारू हैं। इस सरकार ने तो बाजाफ़्ता इसे एक विधान की तरह आत्मसात करते हुए उन्हें अपना संरक्षण और प्रोत्साहन देना जारी रखा है जो इन विभिन्नताओं को एकता से बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं। बहुत दिन नहीं बीते जब इस देश में सरकारों के प्रकोप से अगर कोई मुद्दा अछूता रहा था तो वह था ‘कौमी एकता’ यानी कई मज़हबों के बीच परस्पर आत्मीयता बढ़ाने के लिए काम करना- भ्रातृत्व और बहनापा कायम करने के लिए काम करना- जिसके बीच मज़हब, क्षेत्र, जाति-पांति बाधक न बने। आज कोई कौमी एकता के नगमे गा कर तो देखे? लोग भी जान गए हैं, इसलिए इसे देश ने एक राय से वर्जित शब्द बना दिया है।

सरकार हालांकि किसी भी सूरत में जब अपना कहर बरपाती है तब वह सब पर बराबर से गिरता है। अब महंगाई को ही ले लीजिए- किसी से पूछिए कि आपको इससे तकलीफ नहीं होती, तब वो खींसें निपोरते हुए कह देता है कि ‘सब’ के लिए बढ़ी है। जब बैंक के सामने लाइनों में अपने ही नोट बदलने के लिए लाइन में लगे किसी व्यक्ति से पूछा गया तब भी यही जवाब मिला कि कौन सा हम अकेले लगे हैं? ‘सब’ लगे हैं। यहां एक तरह की एकता का वातावरण बनाते हुए दिखलायी देता है, लेकिन यह कहर पर आधारित है। आपको क्या लगता है, इतना बड़ा कहर बरपा देने से पहले सरकार ने गृहकार्य न किया होगा? ज़रूर किया होगा। इसके लिए उसने राष्ट्रवाद की चाय सबको दो साल पहले ही पिला दी थी। अब चाय तो एक डिप्लोमेसी भी होती है न? डिप्लोमेसी मतलब क्या? यही कि जब हम कोई फैसला लें तो आपको इस चाय की इज्ज़त रखनी है।

इस एकता के बीच में आयी यह चाय असल में सरकार का अचूक हथियार है जिसकी धार तब तक भोंथरी नहीं होती जब तक वह वस्तु पूरी तरह धराशायी न हो जाए जिसे हम सार्वजनिक संपत्ति कहते हैं।  

एकता के लिए बराबरी चाहिए और कई बराबर लोग ही किसी एक संपत्ति को साझा मानते हुए उस पर कुछ बोल-बता सकते हैं। दिलचस्प ये है कि हम यह जानते हैं और सरकार हमसे ज़्यादा इस बात को जानती है, इसलिए वह हरसंभव कोशिश करती है, अठारह-अठारह घंटे काम करती है ताकि यह जो बराबरी का अहसास है उसे इस कदर नेस्तनाबूत कर दिया जाए कि यह अहसास कभी खयाल बनकर भी लोगों के दिलो-दिमाग पर न उतरे। इसलिए जो लोग आर्थिक आधार पर खिंचती जा रही गहरी खाइयों पर चिंतन-मनन करते हैं वे यह बताना भूल जाते हैं कि ऐसा किये बगैर ‘सब’ की संपत्ति की लंबरदार सरकार हो नहीं बन पाएगी। आर्थिक विभाजन, सामाजिक विभाजन, सांप्रदायिक विभाजन, वैचारिक विभाजन और कुछ नहीं तो रंग, कद, काठी, नाक की सिधाई, चपटाई, मोटाई के आधारों पर मौजूद विभाजन सरकारों के लिए सबसे मुफीद परिस्थितियां हैं। इनके रहने से एक ऐसी एकता का निर्माण होता है जिससे सार्वजनिक संपत्ति को अपना मानने की भूल लोग नहीं करते।

सामूहिकता और एकता का यह विभाजनकारी सूत्र ही सरकार की ताक़त है। उसे पता है कि जब एक करना होगा तो पाकिस्तान है, मुसलमान है, तालिबान है। हां, कल के बाद से तालिबान को इस लिस्ट से बाहर कर दिया है। अब तालिबान न तो आतंकवादी संगठन है और न ही उसने अवैध ढंग से सत्ता हथियायी है बल्कि भारत सरकार ने इसे अमेरिका की उदारता के प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हुए न केवल इस नयी सरकार को मान्यता दे दी है बल्कि उसके साथ संवाद स्थापना की गहरी नींव भी डाल दी है।

लेकिन पाकिस्तान तो है, था और रहेगा! अफगानिस्तान और पाकिस्तान भले मौसेरे भाई हों पर दोनों के बारे में अलग-अलग राय बनायी जा चुकी है। जैसे राहुल गांधी और वरुण गांधी के मामले में है। राहुल और वरुण की वंशावली भले एक हो लेकिन राहुल के पूर्वज गद्दार थे और वरुण के पूर्वज जो राहुल के भी पूर्वज हैं, ईमानदार और सच्चे संघी स्टाइल के राष्ट्रवादी थे। और यह बात जमाना कोई मुश्किल काम नहीं है कि एक ही वंशावली लेकर पैदा हुए दो लोग या दो देश अलग-अलग ढंग से देखे जाएं।

https://twitter.com/AkbaruddinIndia/status/1431645567181017089?s=20

कल तक मीडिया ने तालिबान पर सबसे सवाल पूछे और जिसने कहा कि भारत सरकार जो कहे वह हम मानेंगे, तब उनसे कहा गया कि आप अपना बताइए, भारत सरकार को तो बहुत कुछ देखना, समझना और विचार करना पड़ता है। मतलब जिससे पूछा जा रहा है वह एक विचारहीन प्राणी है और भारत सरकार एक अदना इंसान है! मीडिया जगत की मोहतरमाओं ने इतना पूछा इतना पूछा लोगों से कि पूरे दो सप्ताह यही पूछने में निकल गए। और खाँटी दिलचस्प यह है कि इन सवालों के तीर कभी भारत सरकार की तरफ नहीं गए, बल्कि हर उस व्यक्ति से यह पूछा गया जिसे पता है कि उसके हाँ या ना कहने से ही जेल, चक्की, कचहरी, लिंचिंग और पता नहीं क्या-क्या हो सकता है। भारत सरकार को वाकई इस बात की कोई परवाह नहीं है। सुभीता होता उसे भी जवाब देने में, लेकिन वह कह सकती है कि किसी ने हमसे पूछा ही नहीं!

चलिए, एक हिसाब से अच्छा ही है कि तालिबान एक देश की संप्रभु सरकार है। जिज्ञासावश ही, क्या इसे एक ऐसे राजनैतिक दल की तरह देखा जा सकता है जो इस वक़्त सत्ता में है और जिसे भारत सरकार ने, सरकार होने की मान्यता दी है? जैसे, भारत में इस वक़्त भारतीय जनता पार्टी देश की सत्ता पर काबिज है! सुधिजन बतावें…



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