यह तो अच्छी बात है कि भारत सरकार की तालिबान से दूरी के बावजूद उन लोगों ने अभी तक भारतीय नागरिकों को किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया है। हमारा दूतावास सुरक्षित है। हमारे जहाज सुरक्षित हैं और हमारे लोगों को भी भारत लौटने दिया जा रहा है। भारत सरकार और हमारा उड्डयन मंत्रालय भी पर्याप्त सक्रिय हैं।
यह ध्यान देने लायक है कि अमेरिका और यूरोपीय देशों की तरह अपने नागरिकों को काबुल से निकालने के लिए हमें फौजें नहीं भेजनी पड़ रही हैं। इन सब राष्ट्रों के तालिबान से सीधे और गोपनीय संपर्क बने हुए हैं, जिनका फायदा हमें अपने आप मिल रहा है। भारत सरकार अभी तक असमंजस में पड़ी हुई है। वह यह तय ही नहीं कर पा रही है कि काबुल के इस नये परिदृश्य से कैसे निपटे?
उसका यह असमंजस स्वाभाविक है क्योंकि जब पिछले दो साल से अमेरिका, चीन, रूस, तुर्की जैसे देश उनसे सीधी बात कर रहे थे तो हम अमेरिका के भरोसे बैठे रहे। अभी भी हमारे विदेश मंत्री जयशंकर न्यूयार्क में बैठकर संयुक्त राष्ट्र संघ में अपनी 25 साल पुरानी बीन ही बजा रहे हैं। उन्होंने सही बात कही है कि अब काबुल दुबारा आतंकवाद का शरण-स्थल नहीं बनना चाहिए, लेकिन यह असली मुद्दा नहीं है। असली मुद्दा यह है कि काबुल में इस समय ऐसी सरकार कैसे बने जो सर्वसमावेशी हो, जिसमें सभी 14-15 कबीलों और जातियों को प्रतिनिधित्व मिल जाए। राजनीतिक दृष्टि से उसमें जाहिरशाही, खल्की, परचमी, नादर्न एलायंस, तालिबानी, हजारा और सभी छोटे-मोटे गुटों के लोग शामिल हो जाएं।
लगभग 40 साल बाद काबुल में ऐसी सरकार बने, जैसी कभी दोस्त मोहम्मद, अमीर अब्दुर रहमान, अमानुल्लाह, जाहिरशाह या सरदार दाऊद की रही है। अफगानिस्तान में जब तक एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और विदेशी दबाव से मुक्त सरकार नहीं बनेगी, वहां शांति और स्थिरता आ ही नहीं सकती। भारत ऐसी सरकार बनवाने में सार्थक भूमिका अदा कर सकता है।
पिछले 200 साल में ब्रिटेन, रूस और अमेरिका को पठान धूल चटा चुके हैं। अब शायद चीन की बारी है। पाकिस्तान को मोहरा बनाकर यदि अब चीन अपनी चाल चलेगा तो वह भी मुँह की खाएगा। पाकिस्तान को अफगान चरित्र की खूब समझ है। इसीलिए वह कोशिश कर रहा है कि काबुल में एक सर्वसमावेशी सरकार बन जाए लेकिन यह आसान नहीं है। हम देख रहे हैं कि जलालाबाद में तालिबान और स्थानीय पठानों में जानलेवा भिड़ंत हो गयी। सच्चाई तो यह है कि तालिबान का भी कोई अनुशासित एकरूप संगठन नहीं है। उनमें भी जगह-जगह खुदमुख्तार नेता सक्रिय हैं। वे मनमानी करते हैं।
क्वेटा, शूरा, पेशावर शूरा और मिरान्शाह शूरा तो प्रसिद्ध हैं ही, गैर-पठान क्षेत्रों में भी तालिबान सक्रिय हैं। इसीलिए जहां-तहां वे हिंसा और तोड़फोड़ भी करते हुए दिखायी पड़ रहे हैं लेकिन कुल मिलाकर अभी हालत चिंताजनक नहीं है। काबुल और विदेशों में बसे कुछ अफगान नेताओं ने मुझे फोन पर बताया है कि उन्हें विश्वास नहीं हो रहा है कि तालिबान जैसी घोषणाएं कर रहे हैं, उन पर वे वैसा अमल करेंगे। यदि तालिबान का अमल 1996-2001 जैसा रहा तो इस बार उनका 4-5 साल चलना भी मुश्किल हो जाएगा। वे 1929 की बच्चा-ए-सक्का की 9 माह की सरकार की तरह अर्ग़ पर काबिज होंगे और जल्दी ही खिसक लेंगे।
(लेखक पाक-अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं)