लोगों के विचार अलग-अलग होते हैं। बगिया में रंग-बिरंगे फूल और पौधे अच्छे लगते हैं। बहुरंगी दुनिया को बनाये रखने के लिए अलग-अलग विचारों को इज्जत देने के साथ, विचारों की भिन्नता को पहचनाने के साथ, दूसरे विचारों को समझना बहुत जरूरी है। शास्त्रार्थ और बहस जरूरी है, किन्तु इसका आधार अहिंसा, बहुलतावाद, समावेशी संस्कृति, न्याय, बंधुत्व, गरिमा, लोकतंत्र, वसुधैव कुटुम्बकम् और उम्मीद होना चाहिए। अपने आप को, अपनी कौम को और अपने लोगो को ही महान मानने की जिद ने हमेशा इंसानियत पर संकट खड़ा किया है। और यदि आपके समाज में सैन्यवादी परम्परा है, तो युद्ध की आशंका हमेशा बनी रहती है।
सैन्यवादी परम्परा का कारक मर्दवाद है। जातिवाद उसे और संकटकारी बना देता है। इस्लाम सभी के इल्म (शिक्षा) को जरूरी बताता है, किन्तु अफगानिस्तान की मर्दवादी व सैन्यवादी परम्परा मलाला की शिक्षा पर रोक लगाती है और रोकने के लिए गोली मार देती है। एक दशक पहले नॉर्वे में जुलाई 2011 में 77 लोगों को एक व्यक्ति शहीद कर देता है, जो अपने को श्रेष्ठ मानता है और श्रेष्ठता की सैन्यवादी परम्परा के कारण घृणा के आधार पर हत्या करता है। हिटलर का फासीवाद भी यही था। सैन्यवादी परम्परा, मर्दवाद, श्रेष्टता का भाव और उससे उत्पन्न घृणा केवल युद्ध, भय और आतंक ही फैलाते हैं।
हिटलर को मानने वाले संगठन और लोग भारत में भी हैं, जिन्हें किसी अन्त्तर्विरोध का हल हिंसा से करना है और अपनी तथाकथित श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए फासीवाद के रास्ते पर चलना है। इन्हें वर्ण और जाति के घिनौने श्रेष्ठतावाद को स्थापित करना है, जिसके गर्भ में मर्दवाद और उसकी सैन्यवादी परम्परा है।
masculinities-conflict-and-peacebuildingहिंदू महासभा और मुस्लिम लीग का मिला-जुला खेल
श्रेष्ठतावाद के मानने वाले अपने-अपने धर्मों का इस्तेमाल अपनी ताकत को कायम करने के लिए भी बहुत चालाकी से करते हैं। श्रेष्ठतावाद के अन्दर एक खोखलापन होता है और घृणा उसकी बुनियाद होती है। श्रेष्ठतावाद के खोखलेपन को कायम रखने के लिए अलग-अलग कौमों या फिर धर्म के नाम पर वे खेल खेलते हैं और फिर गठजोड़ कायम कर फासीवाद को ले आते हैं। भारत में खेले गए इस खेल को समझना बहुत जरूरी है।
विनायक दामोदर सावरकर की अध्यक्षता में हिंदू महासभा ने 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन का दमन करने के लिए निर्लज्जतापूर्वक अपने अंग्रेज आकाओं का साथ दिया था। बरतानिया साम्राज्य के साथ उनका यह ‘उत्तरदायी सहयोग’ महज सैद्धांतिक कौल तक ही सीमित नहीं था। हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग गठबंधन के रूप में भी यह सामने आया था। यह वह वक्त था जब कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक संगठनों पर प्रतिबंध थे, केवल हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग पर कोई प्रतिबंध नहीं था। यही समय था जब हिंदुत्व टोली के “वीर” सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर गठबंधन सरकारें चलायीं।
हिंदू महासभा के कानपुर अधिवेशन में सावरकर ने अध्यक्षीय भाषण में इस सांठगांठ की पैरवी इन लफ्जों में की थीः
व्यावहारिक राजनीति में भी हिंदू महासभा जानती है कि बुद्धिसम्मत समझौतों के जरिये आगे बढ़ना चाहिए। यहां सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिली-जुली सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सबको पता है। उद्दंड लीगी जिन्हें कांग्रेस अपनी तमाम आत्मसमर्पणशीलता के बावजूद खुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के साथ संपर्क में आने के बाद काफी तर्कसंगत समझौतों और सामाजिक व्यवहार के लिए तैयार हो गए और वहां की मिली-जुली सरकार मिस्टर फजलुल हक के प्रधानमंत्रित्व और महासभा के काबिल और मान्य नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदाय के फायदे के लिए एक साल तक सफलतापूर्वक चली।
वीडी सावरकर, समग्र सावरकर वांग्मयः हिंदू राष्ट्र दर्शन, अंक-6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदू सभा, पूना, 1963, पेजः 479-480
सावरकर ने स्वीकार किया कि बंगाल में मुस्लिम लीग के नेतृत्व में गठित मंत्रिमंडल में हिंदू महासभा के दूसरे सबसे बड़े नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी उप-मुख्य थे। मुखर्जी के अधीन ही वह मंत्रालय भी था, जिसके जिम्मे भारत छोड़ो आंदोलन का दमन करना था। इस समय हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की साझा सरकार बंगाल और सिंध के अलावा उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत (सरहदी सूबा) में भी थी।
गौरतलब है कि सावरकर ने लीग के साथ उस वक्त हाथ मिलाया था जब कांग्रेस इस बात के खिलाफ थी कि मुस्लिम लीग के साथ किसी भी तरह का संबंध रखा जाय। धनंजय कीर द्वारा लिखित सावरकर की जीवनी सावरकर के प्रशंसकों के द्वारा सबसे प्रामाणिक मानी जाती है। इसमें स्वीकार किया गया है कि सावरकर ने मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांतों में हिंदू नेताओं को मशविरा दिया था कि वे मुस्लिम लीग द्वारा गठित मंत्रिमंडलों में शामिल हों।
दरअसल, इससे पहले भी कुछ वर्षों से दोनों मिलकर काम कर रहे थे। हिंदू महासभा के मदुरई सम्मेलन (1940) को संबोधित करते हुए सावरकर ने क़ुबूल किया था कि उनकी पार्टी कांग्रेस के विरोध में विभिन्न प्रांतों में मुस्लिम संगठनों के साथ मिलकर काम कर रही है। सावरकर का निम्नलिखित कथन इस तथ्य को पुष्ट करता है कि कांग्रेस के खिलाफ हिंदू-मुस्लिम फिरकापरस्त एकजुट थेः
“कई जगहों पर हिंदू महासभा वालों ने कांग्रेसी उम्मीदवारों को हराया और आज प्रांतीय विधानसभाओं और कुछ स्थानीय निकायों में हिंदू संगठनवादी पार्टी ऐसा ताकतवर अल्पसंख्यक गुट बन गयी है और इस तरह का संतुलन हासिल कर लिया है कि स्वयं मुस्लिम सरकारों के गठन को प्रभावित कर सकती है। इसके अलावा ऐसी सरकार (मुसलमान दलों के नेतृत्व वाली) में दो-तीन हिंदू मंत्री ऐसे हैं, जो हिंदू टिकट से प्रतिबद्ध हैं। ”
(वीडी सावरकर, समग्र सावरकर वांग्मयः हिंदू राष्ट्र दर्शन, अंक-6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदू सभा, पूना, 1963, पेजः 399)
सावरकर ने यहां स्पष्ट रूप से कहा कि सबको साथ रखने वाले ‘कॉस्मोपोलिटन’ स्वतंत्र भारत में उनकी दिलचस्पी नहीं है:
“स्वराज्य का असली अर्थ केवल भारत नामक भूमि की भौगोलिक स्वतंत्रता नहीं है। हिंदुओं के लिए हिंदुस्थान की स्वतंत्रता तभी काम की होगी जब इससे उनके हिंदुत्व, उनकी धार्मिक, नस्लीय और सांस्कृतिक पहचान सुनिश्चित होगी। हम उस स्वराज के लिए लड़ने-मरने को तैयार नहीं हैं, जो हमारे स्वत्व, हमारे हिंदुत्व की कीमत पर मिलता हो।” (वही, पृष्ठ 289)
दो राष्ट्र के सिद्धांत पर आपसी सहमति
देश की आजादी के पहले दो-राष्ट्र सिद्धांत को परवान चढ़ाने में सावरकर की भूमिका की जांच करने के लिए जरूरी है कि 1937 से 1942 के दौरान हिंदू महासभा का मार्गदर्शन करते हुए सावरकर के कथनों और कृत्यों पर नजर डाली जाय। इस वक्त सावरकर ब्रिटिश प्रतिबंधों से पूरी तरह आजाद हो चुके एक स्वतंत्र व्यक्ति थे। हिंदू महासभा की महाराष्ट्र इकाई द्वारा प्रकाशित हिंदू राष्ट्र दर्शन में उद्धृत एक अंश का संदर्भ यहां उपयोगी होगा। साल 1937 में, अहमदाबाद में आयोजित हिंदू महासभा के 19वें सत्र को संबोधित करते हुए अपने अध्यक्षीय भाषण में सावरकर ने निःसंकोच ऐलान किया था:
फिलहाल भारत में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र अगल-बगल रह रहे हैं। कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मान कर गंभीर गलती कर बैठते हैं कि हिन्दुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप में ढल गया है या केवल हमारी इच्छा होने से इस रूप में ढल जाएगा। इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले, पर कच्ची सोच वाले दोस्त मात्र सपनों को सच्चाई में बदलना चाहते हैं। इसलिए वे सांप्रदायिक उलझनों से अधीर हो उठते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को जिम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन ठोस तथ्य यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक प्रश्न और कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंदिता के नतीजे में हम तक पहुंचे हैं। हमें अप्रिय इन तथ्यों का हिम्मत के साथ सामना करना चाहिए। आज यह कतई नहीं माना जा सकता कि हिन्दुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, इसके विपरीत हिन्दुस्तान में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान।
वीडी सावरकर, समग्र सावरकर वांग्मयः हिंदू राष्ट्र दर्शन, अंक-6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदू सभा, पूना, 1963, पेजः 296
इस प्रकार, 1940 में मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा दो-राष्ट्र सिद्धांत अपनाने के बहुत पहले से सावरकर इस सिद्धांत का प्रचार कर रहे थे और दोनों ही भारतीय राष्ट्रवाद के खिलाफ थे। एक खास गौरतलब तथ्य है कि मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन (मार्च 1940) में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित करते समय जिन्ना ने अपने दो-राष्ट्र सिद्धांत के पक्ष में सावरकर के उपरोक्त कथन का हवाला दिया था।
नागपुर में 15 अगस्त, 1943 को एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए सावरकर ने यहां तक कह दिया:
मुझे जिन्ना के द्विराष्ट्र के सिद्धांत से कोई झगड़ा नहीं है। हम हिंदू लोग अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं।
(भारतीय वार्षिक रजिस्टर, 1943, अंक-2, पृष्ठ-10)
दो-राष्ट्र सिद्धांत पर विश्वास ही था जिसके आधार पर सावरकर का दावा था कि मुस्लिम लीग सभी मुसलमानों की प्रतिनिधि और हिंदू महासभा सभी हिंदुओं की प्रतिनिधि है। सावरकर ने वायसराय को इस निर्णय पर पहुंचने के लिए भी धन्यवाद दिया कि मुस्लिम लीग मुस्लिम हितों का और हिंदू महासभा हिंदू हितों का प्रतिनिधत्व करती है।
मदुरई में आयोजित हिंदू महासभा के 22वें सत्र के अध्यक्ष के रूप में अपने धन्यवाद अभिभाषण में सावरकर ने कहा था: “महामहिम वायसराय ने सोच-समझकर और निर्णायक रूप से हिंदू महासभा की इस हैसियत को मान्यता दी कि… वह हिंदुओं की सबसे विशिष्ट प्रतिनिधि संस्था है।” (वीडी सावरकर, समग्र सावरकर वांग्मयः हिंदू राष्ट्र दर्शन, अंक-6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदूसभा, पूना, 1963, पेजः 407)
हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिकता के उद्देश्य समान हैं
स्वतंत्रता-पूर्व भारत में सांप्रदायिक राजनीति के सजग प्रेक्षक और आलोचक भीमराव अंबेडकर ने हिन्दू और मुसलमान सांप्रदायिकता के समान उद्देश्यों को रेखांकित करते हुए कहा था:
यह बात सुनने में भले ही विचित्र लगे, पर एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रश्न पर सावरकर और जिन्ना के विचार परस्पर विरोधी होने के बावजूद एक दूसरे से मेल खाते हैं। दोनों ही इस बात को स्वीकार करते हैं, और न केवल स्वीकार करते हैं, बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं- एक मुसलमान राष्ट्र है और एक हिन्दू राष्ट्र। उनमें मतभेद केवल इस बात पर है कि इन दोनों राष्ट्रों को किन शर्तों और आधारों पर रहना चाहिए।
बीआर अंबेडकर, पाकिस्तान या भारत का विभाजन, महाराष्ट्र सरकार, बॉम्बे- 1990 (पुनर्प्रकाशन 1946), पृष्ठ-142
गोलवलकर हिटलर की विचारधारा का समर्थन करते हैं और हिटलर के दोस्त जोसेफ गोएबल्स ने कहा कि एक झूठ को सौ बार प्रचारित करो तो वो सच हो जाता है। इस तरह से देखा जाय तो हिटलर, जातिवाद और मर्दवाद में निहित श्रेष्ठतावाद के साथ भारतीय समाज की सैन्यवादी अप-परम्परा ने इंसानियत के ऊपर खतरा पैदा कर दिया है। साथ ही सनातन की बुनियाद शास्त्रार्थ और वसुधैव कुटुम्बकम् के सामने भी संकट पैदा कर दिया है।
हिटलर की विचारधारा ने जर्मनी को बर्बाद कर दिया और द्वितीय विश्व युद्ध दिया। आज दुनिया में हर छठवां इंसान भारतीय है। यदि भारत हिटलर के रास्ते पर चला तो दुनिया में क्या होगा? यह भी सोचने का समय है क्योंकि दो-राष्ट्र सिद्धांत पर बनने वाले पाकिस्तान में चल रहे आतंकवाद को तो हम सब झेल ही रहे हैं। अब भारत में भी कॉर्पोरेट फासीवाद अपना खेल खेल रहा है।