25 अप्रैल 2020 को आइआरएस (इंडियन रेवेन्यू सर्विस) असोसिएशन के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से 44 पेज की एक रिपोर्ट जारी हुई। इस रिपोर्ट का शीर्षक है- फ़िस्कल ऑप्शंस एंड रेस्पोंस टु कोविड-19 एपिडेमिक (Fiscal Options and response to Covid-19 Epidemic – FORCE)।
इस दस्तावेज़ में कोविड-19 की वजह से भारत की अर्थव्यवस्था में राजस्व संग्रहण को जो भारी नुकसान पहुंचा है उसकी भरपाई के लिए कुछ प्रस्ताव दिये गये। इन प्रस्तावों में दो महत्वपूर्ण प्रस्ताव इसके जारी होते ही चर्चा में आ गये। पहला, जिनकी आमदनी 1 करोड़ से ज्यादा है उनसे 40 फीसद की दर से आयकर लिया जाय या फिर 5 करोड़ से अधिक सम्पत्ति रखने वालों पर सम्पत्ति कर को पुन: लागू किया जाए। दूसरा, 10 लाख से अधिक आमदनी वाले करदाताओं से 4 फीसद की दर से महामारी उपकर (CESS) वसूला जाय।
इनके अलावा इसमें भारत में संचालित विदेशी कंपनियों पर कर बढ़ोतरी, ई-कामर्स/ऑनलाइन स्ट्रीमिंग/ बेव सर्विसेज़ कंपनियों पर कर बढ़ाया जाये जाने का भी सुझाव शामिल है। जहां अभी एड सर्विसेस पर 6 प्रतिशत कर है उसे 7 प्रतिशत किया जाय और पर ई–कामर्स कंपनियों पर 2 प्रतिशत के वजाय 3 प्रतिशत कर दिया जाय, यह भी कहा गया है।
कुछ और महत्वपूर्ण सिफ़ारिशें अल्प-अवधि व दीर्घ-अवधि के लिए कर संग्रहण को बढ़ावा देने के लिए की गयी हैं।
इस रिपोर्ट के आते ही वित्त मंत्रालय, सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ डायरेक्ट टैक्सेज़ (CBDT) सकते में आ गये और आनन–फानन में इस रिपोर्ट से पल्ला झाड़ने लगे। मात्र चौबीस घंटे के अंदर रिपोर्ट जारी करने वालों पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की दिशा में ठोस कदम उठा लिए गये।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस घटनाक्रम को रीयल टाइम में दिखाया कि शनिवार, 25 अप्रैल को 10 बजे यह रिपोर्ट आइआरएस असोसिएशन के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर जारी हुई। रविवार, 26 अप्रैल की सुबह इसके प्रस्ताव सतह पर आये, लोगों में चर्चा शुरू हुई। शाम को 5:30 पर आइआरएस असोसिएशन ने इस रिपोर्ट से दूरी बना ली और शाम 7:30 पर इसे जारी करने वाले अधिकारियों के खिलाफ जांच के आदेश हो गये। 27 अप्रैल को तीन कमिश्नर रैंक के रेवेन्यू अफसरों पर कार्यवाही हो गयी।
इन अफसरों में एक हैं प्रशांत भूषण, जो 1988 बैच के अफसर हैं और आइआरएस असोशिएशन के जनरल सेक्रेटरी हैं। इनके बारे में कहा जा रहा है कि इनकी पत्नी बेगूसराय से कांग्रेस की विधायक हैं। दूसरे अफ़सर हैं प्रकाश दुबे जो 2000 बैच के हैं। तीसरे अफसर जिन पर गाज गिरी, वो हैं संजय बहादुर। ये 1989 बैच के अधिकारी हैं। इन तीनों अफसरों के खिलाफ CCS 3 (1)(iii) के तहत सेवा शर्तों के उल्लंघन और अपने जूनियर अफसरों को भ्रमित करने के आरोप हैं। देश के राष्ट्रपति द्वारा इन्हें आगामी 15 दिनों में अपनी बात रखने का समय देते हुए नोटिस दिया गया है।
यानी कुल 48 घंटों में त्वरित गति से इस विचार को आपराधिक बना दिया।
सवाल अनुशासनहीनता का है या जो सिफ़ारिशें दी गयीं वो निज़ाम को पसंद नहीं आयीं ये जानना ज़रूरी है। वित्त मंत्रालय ने त्वरित प्रक्रिया में इस रिपोर्ट को वाहियात कहा। बाद में वित्त मंत्रालय के सूत्रों से कहा गया कि ये मंत्रालय उनकी सिफ़ारिशें जरूर सुनता अगर वह इस तरह सार्वजनिक नहीं की गयी होतीं।
सवाल है कि अब सार्वजनिक हो जाने पर क्या वित्त मंत्रालय इन सिफ़ारिशों को तवज्जो देगा? क्योंकि ये सिफ़ारिशें खालिस राजस्व बढ़ाने के उद्देश्य से दी गयी थीं। बहरहाल।
आज ही देश के प्रधानमंत्री ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों से हुई वीडियो कान्फ्रेंसिंग के बाद कहा कि ‘देश की अर्थव्यवस्था की टेंशन न लें’। तब ज़रूर लगता है कि सिफ़ारिशें बेगानी शादी में अब्दुल्ला जैसे दीवानों ने दी ही क्यों? जब प्रधानमंत्री को ही देश की अर्थव्यवस्था की चिंता नहीं है तब इन्हें क्या पड़ी थी। संभव है इन्हीं सिफ़ारिशों के आलोक में प्रधानमंत्री ने ऐसा कहा हो क्योंकि बात तो दूर तक निकल चुकी थी। खैर।
जो सिफ़ारिशें इस कदर आपराधिक बना दी गयीं वो सिफ़ारिशें तो कोरोना से पहले ही देश में बढ़ती आय की असमानता और सार्वजनिक स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए ज़रूरी राजस्व जुटाने की दिशा में देश के कई जाने माने अर्थशास्त्रियों द्वारा की जाती रही हैं। प्रो. प्रभात पटनायक लंबे समय से यह कहते आ रहे हैं कि अपने नागरिकों को आर्थिक अधिकारों से सम्पन्न बनाते हुए एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए और देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य व शिक्षा और रोजगार जैसे बुनियादी मुद्दों को सुलझाने के लिए 15 लाख करोड़ के राजस्व की ज़रूरत है। यह कहां से आएगा इसके बारे में वे भी ठीक यही बात कहते हैं कि– “देश को एक नयी ‘कर व्यवस्था’ की ज़रूरत है जहां देश के इन अरबपतियों से 1 प्रतिशत अतिरिक्त कर लेने और एकमुश्त 33 प्रतिशत उत्तराधिकार कर, संपत्ति हस्तांतरण की स्थिति में लेने की ज़रूरत है। मात्र इतने से ही यह संभव हो सकता है”।
उल्लेखनीय है कि भारत में 1980 तक उत्तराधिकार कर चलन में था जो राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने हटाया था।
उनका मजबूत तर्क है कि ‘इस देश में आयकर की शुरुआत 1921 में हुई थी। तब से लेकर अब तक अगर आय कर के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि 1989 तक राष्ट्रीय आय का 6 प्रतिशत ऐसे 1 प्रतिशत लोगों पर खर्च होता था। आज 2020 में ये 1 प्रतिशत धनी वर्ग जनसंख्या का 6 प्रतिशत हो गया है और राज्य द्वारा इन पर किया जाने वाला खर्चा 22 प्रतिशत पहुँच गया है’।
अगर यहीं हम ऑक्सफैम इन्टरनेशनल द्वारा 21-24 जनवरी 2020 को दावोस में आयोजित हुए विश्व आर्थिक मंच में जारी की गयी रिपोर्ट को देखें जिसका नाम दिया गया था– ‘टाइम टु केयर’, तो उसकी शुरुआत में ही कहा गया है कि आर्थिक असमानता अब नियंत्रण से बाहर होती जाती रही है जो दो अतियों की साझा कहानी कहती है।
bp-time-to-care-inequality-200120-enभारत के संदर्भ में इस रिपोर्ट के कुछ सारांश बहुत दिलचस्प ढंग से यहां पढ़े जा सकते हैं जिसमें कहा गया है कि-
“मात्र 63 भारतीय अरबपतियों की संयुक्त संपत्ति वित्त वर्ष 2018-19 में पेश किये गये वार्षिक बजट से ज़्यादा है। इस वर्ष का वार्षिक बजट 24 लाख 42 हजार 200 करोड़ था। देश की जनसंख्या के 1 प्रतिशत धनकुबेरों के पास 953000000 लोगों (नीचे से 70 प्रतिशत जनसंख्या) की कुल संपत्ति से चार गुना अधिक संपत्ति है। एक घरेलू कामगार को, एक बड़ी आइटी कंपनी के सीईओ की एक वर्ष की सैलरी कमाने में 22,277 साल काम करना होगा।”
Time To Care, Oxfam Internationl
आय की इस आपराधिक असमानता पर हालांकि अब बात नहीं होती लेकिन किसी अर्थव्यवस्था के बीमार होने के प्रमुख लक्षणों में एक असमानता यह भी है। अगर कोई इस पर बात करता है तो सारा तंत्र तुरंत सक्रिय होकर उन आवाज़ों को दबा देना चाहता है, जैसा हमने इस घटनाक्रम में देखा।
आज जब देश की गरीबी और गरीब अनियोजित ढंग से थोपे गए लॉकडाउन की वजह से सड़कों पर दिखलाई पड़ते हैं तब भी अगर इस असमानता पर बात करने से सरकारी तंत्र इस कदर घबरा रहा है तब वह रही सही उम्मीद भी जाती रही है कि महामारियां समाज में बहुत कुछ बदलते हुए गुजरती हैं। अकेले दिल्ली में यहाँ के मुख्यमंत्री के दावे के अनुसार 1 करोड़ से ऊपर लोगों के पास 21 दिनों का राशन नहीं था यानी लगभग आधी आबादी भूखी रह रही है। अन्य राज्यों में भी स्थिति कोई अच्छी नहीं है।
लेख लिखे जाने तक खबर आ रही है कि भारतीय रिज़र्व बैंक ने 50 उद्योगपतियों का 68000 करोड़ का ऋण राइट ऑफ यानी खारिज कर दिया है। इन 50 विलफुल डिफ़ॉल्टर्स में मेहुल चौकसी भी है जो देश के हजारों करोड़ रुपयों की ठगी करके दिनदहाड़े भाग गया था।
ऐसे में हमें देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी का बीते स्वतंत्र दिवस पर दिया गया राष्ट्र के नाम भाषण सहसा याद आ रहा है जिसमें वे कहते हैं कि ‘अब वक़्त आ गया है कि देश की जनता, सरकार को अपने घरों से बाहर निकाले’ और दूसरी कि ‘धनाढ्य वर्ग खुद देश का धन हैं अत: इन्हें देखने का नज़रिया बदला जाय और इनका सम्मान व सराहना की जाय। अगर यह वर्ग धन पैदा करता है तो देश का धन ही है और जनता को उस धन का लाभ मिलेगा’।
इस भाषण को दिये अभी साल भी नहीं बीता है और ये चुनावी भाषण नहीं था बल्कि सबसे महत्वपूर्ण दिन पर दिया गया भाषण था तो अगर इस विकट परिस्थिति में देश के धनाढ्य वर्ग की तरफ देखा ही गया तो इसे आपराधिक कैसे बनाया जा सकता है?
खैर अब तक इस रिपोर्ट के बारे में न तो किसी अरबपति का कोई बयान आया और न ही इन कॉर्पोरेट हितों की संस्थाओं मसलन फिक्की या सीआइआइ ने कुछ कहा। इससे एक नतीजा आप ज़रूर निकाल सकते हैं और वो जो आप पहले से जानते भी हैं, कि सरकार अंतत: किसके लिए काम कर रही है।
जो रिपोर्ट इस सरकार को इतनी नागवार गुज़री है कि उस पर बात करने के बजाय उसे तैयार करने वालों को ही अपराधी करार दिया गया है, उसे आप पूरा नीचे पढ़ सकते हैंः
Project-FORCEv1.0