इस दुनिया में स्त्री और पुरूष परस्पर विरोधी प्रतिस्पर्धी नहीं हैं। वे बनावट और प्रकृति में भिन्न होते हुए भी परस्पर सहयोगी, सहभागी एवं संपूरक हैं। उनके मेल से ही एक संपूर्ण संसार बनता है और दूसरा नया संसार निर्मित होने की भूमिका तैयार होती है। स्पष्ट है कि किसी सामाजिक प्रगति या नये समाज के निर्माण में इनका परस्पर स्वैच्छिक, मनपसंद सहयोग एवं सहभागिता जरूरी है परंतु आज भी भारतीय समाज में शिक्षा, आर्थिक स्वावलंबन, जनतांत्रिक अधिकार, सुरक्षा, न्याय आदि के मामलों में स्त्रियों की अधिकार-प्राप्ति वांछित अनुपात से बहुत कम हैं, अत: दोनों के परस्पर संबंधों के संदर्भ में अमूमन स्त्रियों के विरुद्ध इतना असंतुलन, जोर-जबर्दस्ती, पाखंड, उत्पीड़न, अन्याय तथा हिंसा है।
अमरकांत
आज कथाकार अमरकांत की जयन्ती है। उनके लेखन का दायरा निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग की समस्याओं के आसपास केन्द्रित रहा है। इस समाज की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को अमरकांत ने व्यापक विस्तार के साथ चित्रित किया है। अमरकांत के कथा-साहित्य में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति, उनका शोषण, आर्थिक परिस्थितियों के दबाव में स्त्री-पुरुष संबंधों का बिखराव, प्रेम संबंधों में स्त्री की स्थिति और पवित्र संबंधों की आड़ में उसके शारीरिक शोषण जैसी बातों को देखा जा सकता है।
आज़ादी के बाद भारतीय नागर समाज का मध्यमवर्ग काफी हद तक लड़कियों को पढ़ाने और नौकरी कराने जैसी स्थितियों को स्वीकार कर चुका था, पर ग्रामीण समाज में ऐसी स्थितियां उतनी स्वीकार्य नहीं थीं। आधुनिकता और फैशन की चकाचौंध से भी ग्रामीण स्त्रियां दूर थीं। आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों में भी परंपरागत सामंती मानसिकता बरकरार थी। ऐसे में एक विचित्र सामाजिक स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। पुरुष पढ़-लिखकर अपने आप को आधुनिक समझने लगे थे। वे अपने लिए शहर की पढ़ी-लिखी आधुनिक विचारों वाली आदर्श नायिका की इच्छा रखते थे जबकि उनकी पारिवारिक जड़ें सुदूर ग्रामीण अंचलों में परंपराओं, आदर्शों और रूढ़ियों में जकड़ी थीं। अपनी जड़ों से कटकर अपनी इच्छाओं के अनुरूप जीने की हिम्मत पुरुष पात्रों में नहीं थी। यही कारण है कि ये पात्र चोरी-छुपे प्रेम का प्रपंच तो फैलाते थे पर उसे सामाजिक मान्यता दिलाने की हिम्मत नहीं रखते थे। ऐसे में स्त्रियों को मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार होना पड़ता था। प्रेम की पवित्र भावनाएं झूठी लगने लगतीं। उनकी मानसिक स्थिति एकदम निरीह व्यक्ति की तरह हो जातीं। वह अंदर ही अंदर घुटतीं, सारी सामाजिक मान्यताओं को दोषी मानतीं, पर इन सबको धता बताते हुए वे सामाजिक विद्रोह की तरफ आगे नहीं बढ़ पाती हैं।
विशेषकर मध्यवर्गीय समाज की स्त्रियों की यही स्थिति अमरकांत के कथा साहित्य में दिखायी पड़ती है। अमरकांत के निम्नवर्गीय महिला पात्र मध्यवर्गीय महिला पात्रों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट, तर्कसंगत और व्यवहारिक प्रतीत होती हैं।
अमरकांत के उपन्यास ‘ग्राम सेविका` की दमयंती आर्थिक परेशानियों के चलते ‘ग्राम सेविका` की नौकरी करती है पर उसके इस कदम को गांव की स्त्रियां आशंका की दृष्टि से देखती हैं। उसके ऊपर व्यंग्यबाण चलाती हैं। दमयंती के बारे में औरतें कहतीं, ”…बाबा रे, किस तरह चहक कर चलती है! लाज-हया धोकर पी गयी है! मर्दों में किस तरह मटक-मटक कर बोलती है! उस दिन बिलाक के अफसर आये थे तो बेशर्म की तरह न मालूम क्या गिटपिट-गिटपिट कर रही थी। पूरी आवारा है आवारा। सत्तर चूहे खाकर बिल्ली हुई भगतिन। धर्म नाशने आयी है मुंहजली।“ ग्रामीण स्त्रियों की इस तरह की बातों से स्पष्ट है कि उस समय स्त्रियों की शिक्षा से एक दूरी बनी हुई थी। वे परंपरागत मान्यताओं के आधार पर ही जीवनयापन कर रही थीं।
गांव के प्रधान दमयंती को बेटी कहकर संबोधित करते पर वे उसे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहते थे। उनका मानना था कि ”स्त्री के दिल में कामना स्वयं नहीं जगती है, बल्कि वह जगायी जाती है। घोड़े की तरह स्त्री को भी वश में किया जाता है। जिसको घोड़े को वश में करने की कला आती है वही स्त्री को वश में कर सकता है। उसी में स्त्री खुश भी रहती है।‘’ पासी टोला की सरस्वती पर प्रधान जी की नीयत खराब हुई थी। उसे पाने के लिए उन्होंने उसके पति को बुरी तरह पिटवाया। फिर उसके उपचार और हर तरह की मदद में सबसे आगे रहे। उस पर प्रधान जी ने बड़ा उपकार किया और बदले में ”एक रोज सरस्वती को अकेले में पकड़ लिया था। वह कुछ नहीं बोली थी। वह रोती हुई उनकी गोद में आ गिरी थी। उपकार बहुत बड़ी चीज है। संकट में उपकार का अस्त्र अचूक होता है।‘’
इस तरह प्रधान जी जैसे पात्रों के माध्यम से अमरकांत ने मध्यमवर्गीय समाज के चारित्रिक और व्यावहारिक दोगलेपन को दिखाते हैं। अमरकांत के कथा साहित्य के मध्यमवर्गीय पात्रों में अधिकांश पात्र ऐसे हैं जो स्त्री के संदर्भ में एकदम आदर्शवादी और आधुनिक दिखायी पड़ते हैं। विशेष तौर पर पढ़े-लिखे युवा पात्र। ‘आकाश पक्षी` उपन्यास का पात्र रवि कहता है कि ”…जमाना तेजी से बदल रहा है। आप देख रही हैं आज औरतें अधिक से अधिक पढ़ रही है, ऊँचे-ऊँचे पदों पर काम कर रही हैं, भाषण दे रही हैं, कॉलेज-युनिवर्सिटियों में पढ़ा रही हैं। औरत-मर्द में कोई ऊँचा-नीचा थोड़े है? सभी बराबर हैं। जो काम मर्द कर सकते हैं और करते हैं, वही औरतें भी कर सकती हैं और करती हैं…।‘’ यहाँ रवि के माध्यम से अमरकांत स्त्री संबंधी अपने प्रगतिशील विचारों को सामने रखते हैं।
रवि आगे यह कहता है कि ”…कुछ लोग शिक्षा का गलत अर्थ लगाकर सुख-सुविधाओं के पीछे भागते हैं। वे पढ़-लिख जाएंगे और अपनी योग्यता का झूठ-मूठ प्रदर्शन करेंगे, अपने समय को गलत कामों में बरबाद करेंगे। ऐसे लोग स्त्रियों और पुरूषों दोनों में मिल जाएंगे पर शिक्षा का यह मतलब कतई नहीं है। शिक्षा का मतलब है मेहनती बनना, दुनिया की हलचलों को जानना, उसमें हिस्सा लेना, अपने दोषों को दूर करना, पुरानी गलत बातों के खिलाफ संघर्ष करना। इसके बिना जीवन एकदम बेकार हो जाता है। अगर औरत पढ़ेगी तो निश्चित रूप से अपनी गृहस्थी को अच्छे ढंग से रखेगी, अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देगी, उनको साहसी बनाएगी।‘’ इस तरह के ही विचार अमरकांत के अधिकांश युवा नायकों के हैं। वे स्त्रियों को समान अवसर, शिक्षा और बराबरी का दर्जा दिये जाने की हिमायत करते हुए नजर आते हैं।
इस तरह अमरकांत के कथा साहित्य में स्त्री-संबंधी विचार दो संदर्भों में सामने आते हैं। एक उन पात्रों द्वारा जो युवा और पढ़े-लिखे हैं तथा स्त्रियों को भी समान अवसर, शिक्षा और समाज में बराबर का दर्जा देने की बात करते हैं। दूसरी तरफ वे पात्र हैं जो स्त्रियों का सिर्फ शोषण करना चाहते हैं। ‘पलाश के फूल` कहानी के रायसाहब की दृष्टि में, ‘स्त्री माया है! उसमें शैतान का वास होता है, वही भरमाता, चक्कर खिलाता ओर नर्क के रास्ते पर ले जाता है।‘’ रायसाहब ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि अँजोरिया के साथ लंबे समय तक शारीरिक संबंध स्थापित करने के बाद जब वह साथ रहने (रखैल के रूप में) की बात करती है तो रायसाहब को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा पर खतरा महसूस होने लगता है।
‘मुक्ति` कहानी का मोहन कई वर्षो तक अपनी पत्नी को छोड़कर मधु के साथ संबंध बनाये रखता है, लेकिन ससुर की तरफ से मोटी रकम और जमीन का लालच मिलने के बाद वह मधु को पथ-भ्रष्ट औरत मानते हुए उससे अलग हो जाता है। ‘महुआ` कहानी के अनिलेश का मानना था कि ”…भव सागर में स्त्रियाँ मछलियाँ है और वह मछुआ! वह कहता था कि जाल डालने के लिए बुद्धि और अनुभव की आवश्यकता होती है, बुरे काम के लिए कोई भी स्त्री बुरी नहीं होती और परिश्रम वहीं करना चाहिए जहां सफलता की आशा हो। इसीलिए वह गरीब या मर्द शून्य कुटुम्बों, कमजोर पतियों की बीवियों तथा घरेलू अन्यायों से असन्तुष्ट युवतियों को ध्यान में रखकर योजनाएं बनाता था।‘’
निम्न-मध्यवर्गीय समाज की स्त्रियों के जीवन से जुड़े हुए ऊनके पहलुओं की चर्चा भी अमरकांत अपने कथा साहित्य के माध्यम से करते हैं। उनके शोषण की कई विचित्र स्थितियों को भी सामने लाते हैं। जैसे कि ‘सुन्नर पांडे की पतोह` उपन्यास में सास का खुद अपने पति से अपनी ही बहू की आबरू लूटने की बात करना या फिर ‘मूस` कहानी की परबतिया का अपने पति के लिए ही नयी जवान औरत को घर में लाना। ‘सुरंग` लघु उपन्यास में अमरकांत का यही दृष्टिकोण अधिक मुखरित होता है। ‘सुरंग` नारी मन के आंदोलित स्वरूप की झलक प्रस्तुत करता है। उपन्यास की पात्र ‘बच्ची देवी` शिक्षा ग्रहण करते हुए, मोहल्ले की स्त्रियों की मदद से बड़े ही सकारात्मक रूप में अपने वांछित अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ती है।
स्पष्ट है कि अमरकांत महिलाओं के अधिकारों, सुरक्षा, न्याय, आर्थिक स्वावलंबन और स्वैच्छिक तथा मनपसंद सहभागिता की बात करते हुए ‘स्त्री विमर्श` को लेकर चल रही विचारधारा में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। वैसे भी स्त्री विमर्श पुरूषों के समक्ष स्त्रियों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक समानता हेतु किये जा रहे आंदोलन का ही नाम है। परितोष बैनर्जी इस संबंध में लिखते हैं कि ”नारीवाद एक विशिष्ट मतवाद है जो इस सिद्धांत पर आधारित है कि स्त्रियों को इस पुरुष-शासित समाज में निम्न स्थान दिया गया है और पुरुषों के साथ समान अधिकार एवं प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। अन्य शब्दों में, नारीवाद उस प्रवृत्ति का द्योतक है जो लिंग पर आधारित पारम्परिक शक्ति-व्यवस्था का पुनर्विन्यास चाहती है।‘’