नित वेश बदलती महामारी और टीकाकरण की चुनौती: बिहार के कुछ ज़मीनी अनुभव


इससे पहले भयानक बीमारियों के बारे में बस किताबों में पढ़ा था लेकिन पिछले साल से सब कुछ आंखन देखी हो गया। कोविड-19 ने दुनिया भर की सरकारों को विश्वव्यापी बन्द रखने को मजबूर कर दिया। रेल के पहिये थम गये, हवाई जहाज जमीन पर ही रह गये और लोग अपने अपने घरों में कैद होने को मजबूर हो गये। दवा आने से पहले सिर्फ बचाव ही कोविड-19 से बचने का एकमात्र तरीका था लेकिन बचाव के साधन की भी अपनी एक सीमा होती है।

कोरोना की बीमारी ऐसी है कि एहतियातन हम इससे बच सकते हैं लेकिन सम्पूर्ण सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। सुरक्षा की एकमात्र गारंटी कुछ हद तक इसका टीका ही है। मानव सभ्यता के अतीत की महामारियों ने हमें सिखाया कि कम से कम अवधि में वैक्सीन तैयार करना कितना मुश्किल काम होता है और इसी मुश्किल को खोजने पूरी दुनिया पिछले साल से निकल पड़ी और तब इसकी दवा हाथ लगी, लेकिन उसके साथ ही एक बड़ी चिंता यह भी बढ़ गयी कि अगर वायरस ने अपना कपड़ा बदलना शुरू कर दिया है तो ये दवा उन सब पर भी असर करेगी या नहीं। इसको ऐसे समझा जा सकता है कि मान लीजिए किसी मेले में एक लाल शर्ट वाले व्यक्ति ने आपका सामान चोरी कर लिया तो आप पूरे मेले में उसी “लाल शर्ट” वाले को खोज रहे हैं जबकि वह चतुराई से अपनी “लाल शर्ट” बदलकर ‘हरी शर्ट” पहन लेता है। अब वह आपके सामने भी होगा तो आप नहीं पहचान पाएंगे। बस इसी को कोरोना वायरस और उसके अलग-अलग वैरिएंट्स पर चिपकाकर समझिए। ये तो रही बुनियादी मसले की बात।

फिलहाल, उपलब्ध टीकों से टीकाकरण को लेकर जो संकट आ रहा है उसको समझिए। टीका लगवाने के संबंध में सबसे बड़ा संकट समुदाय स्तर पर ही खड़ा हो चुका है। दुनिया ने मानव इतिहास के सबसे बड़े वैक्सिनेशन की शुरुआत कर दी है। हमारी सरकारों ने भी अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए देशव्यापी टीकाकरण अभियान शुरू किया है। बिहार में ग्राउण्ड लेवल पर काम करते हुए टीकाकरण को लेकर मुझे जो चुनौतियां नज़र आ रही हैं, उनकी चर्चा मैं यहां कर रहा हूं। कमोबेश यही स्थिति सभी हिंदी पट्टी के राज्यों की है।

कहते हैं न कि जब तक सच जूता पहनता है तब तक झूठ पूरी दुनिया का चक्कर काट चुका होता है। सूचना क्रन्ति के दौर में जब अलग-अलग स्रोतों से सूचना की बमबारी हो रही हो तो ऐसे में सही और गलत को समझ पाना बेहद कठिन होता जा रहा है। यह स्थिति तब और भी गंभीर हो जाती है जब समाज ‘मीडिया साक्षर’ न हो। पोस्‍ट-ट्रुथ के इस दौर में जब सत्य की बुनियाद सही और गलत के आधार पर न होकर भावनाप्रधान हो चुकी है तब यह स्थिति और भी भयावह हो जाती है। आज समुदाय में सबके अपने-अपने विश्लेषण हैं, सबका अपना-अपना गणित। कई तरह की भ्रामक सूचनाएं खासकर सोशल मीडिया के माध्यम से फ़ैल रही हैं।

एक रोज़ टीकाकरण की अपील करने मैं एक गाँव मे पहुँचा। गाँव में हम लोग जैसे ही घुसे, लोगों ने हमें देखकर अपने घर में जाना शुरू कर दिया। नल पर नहा रहे एक बाबा दिखे। मैंने सोचा कि इनसे भी पूछ लूं कि टीका लिए हैं या नहीं। मैंने उनसे कहा कि बाबा कोरोना की सुई लगवा लीजिए, इससे कोरोना नहीं होगा। उन्होंने कहा, “सुई नहीं लेंगे, लोग मर जा रहे हैं! अगर हम मर गये तो भोज-भात के लिए 50 हज़ार कौन देगा”। मैंने कहा- ‘’बाबा मरने से बचने के लिए सुई लगवानी है’’, लेकिन बाबा की चिंता कोरोना बीमारी और सुई से ज़्यादा समाज द्वारा बनायी उस रूढ़ि के लिए थी जिसमें किसी भी मृतक के घरवालों के लिए उनका श्राद्धकर्म और भोज-भात भी स्टेटस को दर्शाते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के समाज को मैंने जितना जाना उसमें मुझे यही बात समझ आयी।

ऐसे ही एक दिन लोगों से टीका लगवाने की अपील करते हुए हम एक अन्य गांव पहुँचे। गाँव शुरू होते ही एक व्यक्ति अंदर से गाली-गलौज करते हुए हम लोगों की तरफ बढ़ रहा था और शायद स्थानीय लोग उसे न रोकते तो हम सब पर लाठी से हमला भी कर देता। मुझे इस बात से रत्ती भर डर नहीं लगा कि वो मार देगा या गाली दे रहा है। मैं तो बस अफवाह और उससे जुड़े माध्यम के प्रबल असर के बारे में सोचने लगा कि जिसको हम लोग सशरीर जाकर भी नहीं तोड़ पाये।

इसके उलट भी कई अनुभव रहे। जैसा कि टीकाकरण के दौरान एक समुदाय विशेष को लेकर सुनने को मिल जाता है कि “वो लोग” टीका नहीं लेंगे, ऐसे ही एक गांव में हमारा जाना हुआ। वहां पहुंचते ही लोगों ने हमें बैठने के लिए कुर्सी दी और हमारे यह कहने पर कि आप सब चलकर टीका ले लीजिए, उन्होंने कुछ प्रश्न रखे। उन्होंने पूछा कि ऐसा क्यों है कि कभी दवा की दूसरी डोज़ 28 दिन बाद पड़ी और अब 84 दिन बाद! कुछ ने यह भी पूछा कि “आप गारंटी लेंगे कि टीका लगवाने के बाद मैं नहीं मरूँगा?” मैंने कहा कि सड़क दुर्घटना में हेलमेट न लगाये हुए व्यक्ति के मरने की संभावना हेलमेट लगाये हुए व्यक्ति से ज़्यादा होती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वो अमर है! थोड़ा सा सकुचाते हुए वे बोले कि “और पहले 28 दिन पर दूसरी डोज़ और अब 84 दिन पर क्यों?” मैंने कहा कि बीमारी नयी है, इसलिए नये-नये शोध होने पर समय घट या बढ़ सकता है। आखिर में वहां शामिल सभी लोगों ने टीका लिया और मस्जिद से मौलाना ने सबसे टीका लेने की दरख्वास्त भी की। 

ऐसे ही एक अन्य गांव में एक बूढ़ी दादी अपने मोहार पर बैठी बच्चों से बात कर रही थीं और हम लोग टीका के लिए उन्‍हें बुलाने पहुँच गये। मैंने कहा, “अम्मा, कोरोना के सूई दिलात है! चला ले ला”। अम्मा बोलीं, “अपनन कुल नीमन नीमन ले लिहा हमके खरबकी सूई देबा!” मैंने कहा, “अम्मा ई कउनो आम थोड़े न है कि पक्का-पक्का हम रख लेब अउर तोहके कच्चा देब!” अम्मा, जोर से हँसने लगीं! मैंने उनके हाथ पर गुदे गोदने की तारीफ की और अम्मा खुश होकर सुई लेने के लिए तैयार हो गयीं। सुई लेने के बाद जब हम निकलने लगे तो अम्मा ने कहा कि, “घर पे दूध है, पी ला तब जा!’’

ऐसे अनेक अनुभव हैं जिनसे लगातार दो-चार होना पड़ रहा है। अगर निष्कर्ष के तौर पर मैं इन सबका आकलन करूं तो यह कह सकता हूं कि कोरोना बीमारी के साथ ही साथ सरकारों को ‘अफवाह की महामारी’ से भी लड़ना पड़ेगा। संचार के सशक्त होते माध्यमों से नागरिक आवाज़ों को जरूर बल मिला, लेकिन उसके साथ ही दबे पाँव उन समस्याओं का भी आगमन हुआ है जिनसे हम सब लड़ रहे हैं।



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