जिन्हें दफना दिया गया, वे कौन से हिन्दू थे?


गंगा किनारे दफनाये गए हजारों की संख्या में शव पूछने लगे हैं हम कौन से हिन्दू हैं- जलाये गए या दफनाये गये? उनके इस सवाल से सत्ता मौन है और धर्माधिकारी मूर्छित! लेकिन सवाल तो प्रासंगिक है और जरूरी भी।

सत्ता हमेशा खुद को पाक-साफ बताती है भले उसकी वजह से अनगिनत लोग परलोकगमन कर जाएं। मौजूदा समय इसका सबसे बड़ा गवाह है। सन्दर्भ को दूसरी ओर लिए चलता हूं। रामायण में  जटायु का अंतिम संस्कार करते हुए राम ने कहा था- “मैं अभागा अपने पिता का अंतिम संस्कार नहीं कर पाया, आपका अंतिम संस्कार कर के मुझे लग रहा है मैं अपने पिता का अंतिम संस्कार कर रहा हूं।” राम की विशालता और करूणा को इससे समझा जा सकता है कि राम ने एक गिद्ध को भी पिता का दर्जा दिया लेकिन बेहिसाब संपत्ति के मालिक मंदिर और मठों में बैठे धर्माधिकारी अपने ही धर्मावलम्बि‍यों के मरने और फिर उन्हें दफनाते हुए देखकर भी बहरे और अंधे बने रहे। इन घोर अंसवेदनशील लोगों को क्षण भर के लिए यह महसूस नहीं हुआ कि मरने वाला भी उसी हिन्दू धर्म का है जिसके प्रतिनिधित्व का दावा करते हुए ये जब-तब कहते रहते हैं- गर्व से कहो हम हिन्दू हैं।

ये वही हिन्दू हैं जो हजारों की तादाद में गंगा किनारे दफनाये गये। ये वही हिन्दू हैं जिनका निर्जीव शरीर गंगा में बह रहा है। क्या ये सारे अपने विधान के मुताबिक अंतिम संस्कार के अधिकारी नहीं थे? इनसे पूछिए तो जवाब मिलेगा- “इनके कर्म ही ऐसे थे।” ये वही लोग हैं जो जनता और सरकार दोनों से माल खींचते हैं। सरकार इन्हें तमाम सुविधाएं देती है इसलिए उनके खिलाफ इनकी जुबान नहीं खुलेगी और जनता छोटे से छोटे चढ़ावे से लेकर भारी-भरकम चढ़ावा चढ़ाती है। इसी जनता के पैसों से साल भर में करोड़ों कमाने वाले मठ, मंदिर या धार्मिक ट्रस्ट़ों को ये अच्छी तरह पता है कि सरकार की नीतियों के खिलाफ बोलना नहीं है चाहे वो कितना बड़ा अधर्म क्यों न करती रहे। और रही बात जनता की तो तमाम तरह के हथकंडे जैसे स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य वगैरह अपनाकर जनमानस की भीड़ ये जुटा ही लेंगे।

जरा सोचिए, बेहिसाब लोग मरते रहे (सिलसिला जारी है‌), निजी अस्‍पतालों से लेकर श्मशान तक खुली लूट की दुकानों में वो लुटते रहे जिनका अपना उन्हें छोड़ गया। जेब खाली हो चुकी थी और अपनों के जाने का दर्द मन में गहरी टीस दे रहा था। खाली जेब लुटेरों की तिजोरी भरने में असमर्थ थी सो अपनों को दफनाने लगे। इस तरह के हालात में क्या किसी मंदिर-मठ, धार्मिक ट्रस्ट ने अपने खजाने का मुंह खोला? किसी ने कहा कि हम इन शवों के अंतिम संस्कार का जिम्मा लेते हैं? अकेले राम मंदिर ट्रस्ट के पास ही न जाने कितनी अकूत संपत्ति है लेकिन इस मामले में खामोश रहकर दो कदम पीछे हटकर राम नाम सत्य है के साथ निकाले गये हजारों शवों को जमीन में दफ्न होने दिया। ऐसे लोग राम का मंदिर तो बनाएंगे, लेकिन राम का अनुकरण करते हुए किसी के मुक्ति के सहयोगी नहीं बनेंगे।    



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