वर्ष 2018-19 के बजट में स्वास्थ्य के जिस मॉडल की वित्तमंत्री अरुण जेटली ने घोषणा की थी, यह कोई स्वदेशी मॉडल नहीं था बल्कि स्वास्थ्य के अमरीकी मॉडल की नक़ल है। इस मॉडल में स्वास्थ्य के क्षेत्र से सरकार हट जाती है यानि वह न्यूनतम हो जाती है और उसका स्थान बीमा कम्पनियां ले लेती हैं। पूंजीवाद जिस तरह अपने पहले चरण, व्यापारिक पूंजीवाद से होकर औद्योगिक पूंजीवाद और अब वित्तीय पूंजीवाद में पहुंचा है, उसने अर्थव्यवस्था के पहले दो क्षेत्र प्राथमिक जिसमें कृषि और खनन आता है तथा द्वितीय जिसमें प्राथमिक क्षेत्र से प्राप्त कच्चे माल को कारखानों में तैयार उपभोक्ता वस्तुओं में बदला जाता है, उनको महत्व न देकर तृतीयक क्षेत्र सेवा क्षेत्र पर सारा ध्यान केन्द्रित कर दिया है। यह तृतीयक क्षेत्र बिना ज़्यादा मेहनत के चन्द हाथों में मुनाफ़े के तो अंबार लगा देता है लेकिन आबादी के बड़े हिस्से को रोजगार से वंचित कर देता है। आबादी के बहुसंख्यक हिस्से की खरीदने की ताकत के समाप्त हो जाने से बाज़ार की गति धीमी पड़ जाती है और इस तरह आर्थिक संकट खड़ा हो जाता है।
दुनिया में स्वास्थ्य के तीन तरह के मॉडल चल रहे हैं। एक समाजवादी मॉडल जिसे क्यूबा, उत्तरी कोरिया और चीन में देखा जा सकता है। इसमें इलाज की सारी ज़िम्मेदारी सरकार पर रहती है। दूसरा सोवियत संघ के जन्म के बाद पूंजीवाद ने खुद को उसके प्रभाव से बचाने के लिए जो कल्याणकारी राज्य का मुखौटा ओढ़ा था वह मॉडल, यह यूरोप, कनाडा और स्केन्डीनेवियन देशों में चल रहा है। तीसरा अमरीकी मॉडल जिसे हमारी मोदी सरकार ने लागू करने की शुरुआत की है। आइए, चिकित्सा के क्षेत्र में कल का भारत कैसा होगा इसकी पड़ताल वर्तमान के अमरीकी मॉडल से करते हैं।
हॉलीवुड अमरीका में डाक्यूमेंटरी फ़िल्म के निर्माता निर्देशक माइकल मूर हैं जिन्होंने अनेक चर्चित डाक्यूमेंटरी फ़िल्में बनाई हैं। अमरीका में वल्र्ड ट्रेड टावर पर हुए हमले पर इन्होंने ‘फ़ारेनहाइट नाइन इलेवन’ नाम से डाक्यूमेंटरी बनाई थी जो काफ़ी चर्चित हुई। इसी तरह कैपिटलिज़्म ए लव स्टोरी, बिग-वन, स्लेकर अपराइज़िंग, बाऊलिंग कोलम्बाइन, कनेडियन बेकन, व्हेयर टू इन्वेड नेक्सट तथा ट्रम्प लेण्ड आदि इनकी चर्चित फ़िल्में हैं। इन्होंने ही 2007 में अमरीका की स्वास्थ्य व्यवस्था पर ‘सिको’ नाम से डाक्यूमेंटरी फ़िल्म बनाई है। फ़िल्म में दिखाया गया है कि अमरीका में स्वास्थ्य सेवाएं निजी बीमा कम्पनियों के हाथ में हैं और जिनका स्वास्थ्य बीमा होता है उनका ही इलाज हो पाता है। इलाज और स्वास्थ्य बीमा इतना महंगा है कि वहां 5 करोड़ लोग बिना स्वास्थ्य बीमा के रहते हैं। जिनका स्वास्थ्य बीमा है भी तो बीमा कम्पनियां उनके इलाज में तरह-तरह की रुकावटें डालती हैं। इसके लिए वह डाक्टरों को इस बात के लिए रिश्वत देती हैं ताकि वह बीमा क्लेम में कमियां निकाल सकें।
माइकल मूर फ़िल्म में दिखाते हैं कि जब वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमला होता है तब लोगों को बचाने, उन्हें मलबे से बाहर निकालने के लिए जो लोग बचाव कार्य में लगे होते हैं वह जब खुद घायल और बीमार हो जाते हैं तब सरकार उनका अपने खर्चे पर इलाज नहीं कराती। माइकल मूर उन लोगों को अपने साथ लेकर मंत्रियों से मिलना चाहते हैं लेकिन मंत्री उनकी कोई मदद नहीं करते। वह स्वास्थ्य बीमा करने वाली कम्पनियों की असलियत उजागर करते हैं। वह बताते हैं कि अमरीकी सरकार जनता को कोई स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध नहीं कराती है जबकि ग्वान्टानामो बे जो आतंकवादियों को रखने की जेल है उसमें कैदियों को ज़्यादा चिकित्सा सुविधा प्राप्त है। वह बचाव कार्य में घायल व बीमार हुए अमरीकियों को पानी के जहाज़ में भरकर इलाज के लिए क्यूबा के निकट स्थित ग्वान्टानामो जेल ले जाते हैं लेकिन वहां उन्हें कोई जाने नहीं देता और तब वह सभी को क्यूबा ले जाते हैं जहां बिना किसी औपचारिक कागज़ी कार्यवाही के उनका मुफ़्त में बेहतरीन इलाज होता है।
जो लोग मोदी सरकार की स्वास्थ्य बीमा योजना को समझना चाहते हैं उन्हें सिको नामक इस फ़िल्म को ज़रुर देखना चाहिए। अमरीका में इलाज इतना महंगा कर दिया गया है कि आबादी का 16 प्रतिशत भाग बिना स्वास्थ्य बीमा के रहने को मजबूर है। फ़िल्म में दिखाया गया है कि जब एक बढ़ई की दो उंगलियां आरे से कट जाती है तो वह उन्हें जुड़वाने के लिए अस्पताल पहुंचता है जहां उसे पता चलता है कि बीच की उंगली को जोड़ने की फ़ीस 60 हज़ार डालर है जबकि उसके बराबर की उंगली को जोड़ने की फ़ीस 12 हज़ार डालर है। बढ़ई जैसे-तैसे करके 12 हज़ार डालर का इंतजाम कता है और अपनी एक उंगली जुड़वा लेता है। एक दूसरा अमरीकी दिखाया गया है जो अपने ज़ख़्म को सुन्न करके उसे खुद सी रहा है क्यूंकि अस्पताल का खर्च उठाने की उसकी क्षमता नहीं है। एक और 79 साल का अमरीकी बुज़ुर्ग दिखाया गया है जो एक शॅापिंग मॉल में इसलिए फ़र्श की सफ़ाई कर रहा है ताकि उस अतिरिक्त कमाई से अपनी बूढ़ी पत्नी और अपना दवाई का बिल चुका सके। सिको फ़िल्म अमरीका की मीडिया में गढ़ी गई उस छवि को बेनकाब करती है जिसमें उसे मानवाधिकार और लोकतंत्र का रक्षक और ऐसी राजनीतिक व्यवस्था का प्रतिनिधि पेश किया जाता है जो दुनिया में बेजोड़ है।
इसमें दो राय नहीं है कि अमरीका दुनिया में सबसे ज़्यादा सकल गृह उत्पाद वाला देश है यानि सबसे अमीर देश है लेकिन फ़िल्म बताती है कि अमरीका जैसी पूंजीवादी व्यवस्था में चाहे आमदनी कितनी भी ज़्यादा क्यूं न हो वह गरीब से गरीब समाजवादी व्यवस्था वाले देश के स्वास्थ्य और शिक्षा में मुकाबला नहीं कर सकता। अमरीका में भले ही स्वास्थ्य का बजट जीडीपी की तुलना में दुनिया में सबसे ज़्यादा क्यों न हो लेकिन जनता के हिस्से में उस बजट का नाममात्र ही आ पाता है। सारी राशि निजी बीमा कम्पनियों, दवा निर्माताओं, जांच प्रयोगशालाओं, निजी डाक्टरों के हिस्से में चली जाती है।
अमरीका में हर साल 60000 लोग उन बीमारियों से मर जाते हैं जिनका इलाज मुमकिन है। हारवर्ड मेडिकल स्कूल और केम्ब्रिज हैल्थ एलायंस की रिपोर्ट बताती कि अमरीका में हर साल 45000 लोग स्वास्थ्य बीमा के अभाव में दम तोड़ देते हैं। एक अध्ययन जो 2002 से 2008 के बीच किया गया उसकी रिपोर्ट 2012 में आई उसमें बताया गया कि कुल वरिष्ठ नागरिकों में से 45 प्रतिशत मेडिकल बिल नहीं चुका पाने के कारण दिवालिया घोषित होते हैं और 43 प्रतिशत को अपनी सम्पत्ति बेचनी या गिरवी रखनी पड़ती है। इलाज महंगा होने का एक कारण वहां चिकित्सकों की कमी होना भी है। यह कमी जान-बूझ कर है और इसके लिए अमरीकन मेडिकल एसोसिएशन सरकार में लॉबिंग करती है और इस तरह 1910 से हर साल पढ़कर निकलने वाले डाक्टरों की संख्या को सीमित रखती है। वर्तमान में एक साल में 1 लाख डाक्टर बनाने की सीमा निर्धारित है।
उदाहरण के लिए, 1996 में अमरीका के 36 राज्यों ने मिडवाइफ़ द्वारा बच्चा पैदा करवाने पर पाबंदी लगा रखी है। अभी भी वहां मनोवैज्ञानिक, नर्स और फ़ार्मेसिस्ट पर दवा लिखने पर पाबंदी है। इससे इलाज काफ़ी महंगा हो जाता है। बराक ओबामा ने अपने राष्ट्रपति बनने से पहले जो चुनाव घोषणापत्र जारी किया था उसमें बूढ़ो और बच्चों के लिए स्वास्थ्य बीमा की किस्त सरकार द्वारा देने की बात कही थी। राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने इसे जैसे ही लागू करने की कोशिश की 10 लाख से ज़्यादा लोगों ने इसके विरोध में व्हाइट हाउस घेर लिया और ओबामा पर आरोप लगाया गया कि वह समाजवादी हो गए हैं और करदाताओं के पैसे को मुफ़्त के इलाज में बर्बाद करना चाहते हैं। आप ग़ौर कीजिए कि पूंजीवाद ने अमरीका में किस तरह के समाज की रचना की है जो देश से अपना रिश्ता ग्राहक और दुकानदार का रखना चाहता है।
मोदी सरकार भारत को बेहद स्वार्थी और संवेदनहीन समाज में बदलना चाहती है। स्वास्थ्य बीमा इसी तरह की शुरुआत थी। पिछले 70 साल में भारत में जो राष्ट्रीयकृत आर्थिक व्यवस्था क़ायम हुई थी यह सरकार अमरीका की नक़ल में उसको ध्वस्त करने में लगी हुई है। इस व्यवस्था के कुछ अंश उस सोवियत संघ से लिए गए थे जो हर संकट की घड़ी में भारत के साथ खड़ा था। भारत को आत्मनिर्भर बनाने में जिसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है उसके बचे-खुचे अवशेष को समाप्त करके अमरीका की वाहवाही लूटना चाहती है मोदी सरकार। आज मोदी सरकार उस अमरीका की नीतियों को भारत में लागू करना चाहती है जो आज़ादी के बाद से ही भारत के विकास में रोड़े अटकाता और पाकिस्तान के माध्यम से भारत को परेशान करता रहा है। स्वास्थ्य की पुरानी सरकारी व्यवस्था में बजट को और बढ़ाने की ज़रूरत थी लेकिन मोदी सरकार सामाजिक सुरक्षा के खर्च में कटौती करके उसे बर्बाद करने में लगी है।
मोदी सरकार द्वारा मुक्त बाज़ार पर आधारित आर्थिक नीति को युद्धस्तर पर लागू करने, सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण करने और समाजिक सुरक्षा या सार्वजनिक व्यय में कटौती करने ने कोरोना संकट को और बढ़ा दिया है। निजी स्वास्थ्य क्षेत्र किस तरह इस संकट का अनुचित लाभ उठा रहा है यह सबके सामने है।