अब तक पूरी दुनिया में आधिकारिक तौर पर कोरोना से हुई हर मौत पर अगर हम दो मिनट का मौन रखें तो हमें लगभग पौने बारह साल चुप रहना होगा. शोक के अवसर पर खामोशी बरतने की परंपरा लगभग हर सभ्यता में किसी-न-किसी रूप में रही है और इसका आशय हमें ठहरकर सोचने के लिए ज़रूरी समय देना रहा होगा. और इस मौके पर रुक कर सोचना व्यक्तिगत दुःख के साथ-साथ अनिवार्यतः एक समष्टिगत कार्रवाई भी हुआ करती है.
कोरोना-वायरस द्वारा हम पर आरोपित चिंतन के इस क्षण को पिछले साल से ही अलग-अलग सन्दर्भों में ‘चेर्नोबिल मोमेंट’ कहा जा रहा है. जहां एक तरफ इस महामारी को चीन का ‘चेर्नोबिल मोमेंट’ बताया गया और उम्मीद जताई गई कि अब वहां कम्युनिस्ट पार्टी का राज सवालों के घेरे से बच नहीं पाएगा, वहीँ इस संकट को विश्व स्वास्थ्य संगठन का चेर्नोबिल मोमेंट भी कहा गया जिसके बाद इस संगठन को अपने अन्दर आमूलचूल बदलाव करने होंगे. ठीक ऐसे ही, पिछले साल कोरोना संकट को डोनाल्ड ट्रंप का चेर्नोबिल भी कहा गया और अब राष्ट्रपति बाइडेन के सामने मौजूद चुनौती के लिए भी चेर्नोबिल का रूपक इस्तेमाल हो रहा है. ज़ाहिर है, मौजूदा दुनिया के हर संकट में क्रांतिकारी बदलाव की संभावना देखने वाले वाम-समूहों, रैडिकल पर्यावरणवादियों और दूसरी परिवर्तनकामी तहरीकों ने भी कोरोना-काल में अपने-अपने ढंग से ‘चेर्नोबिल-क्षण’ की मीमांसाएँ और आकांक्षाएं प्रस्तुत की हैं.
ऐसे में, सोवियत रूस के चेर्नोबिल परमाणु संयंत्र में आज के ही दिन 1986 में शुरू हुई दुर्घटना को मुड़ के देखना शायद हमें ये समझने में मदद कर सके कि ‘चेर्नोबिल मोमेंट’ के क्या मायने होते हैं और इन लम्हों में कौंधती इमरजेंसी लाइटें कैसे राजनीति, अर्थव्यवस्था, कला-साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, परंपरा और नैतिकता समेत समूची इंसानी सभ्यता पर एक साथ रौशनी डालती हैं.
लेकिन इस मौके पर उस साल चेर्नोबिल में हुए घटनाक्रम के ब्यौरे उड़ेल देने से बात उसी Information Dump Mode में चली जाएगी जिसके प्रति ‘हाइपर-ऑब्जेक्ट्स’ के लेखक और हमारे समय के प्रमुख दार्शनिक टिमोथी मॉर्टन ने आगाह किया है. पर्यावरण, अर्थव्यवस्था और ऐसे ही अनेक मुद्दे आज दोनों तरफ से पेश आँकड़ों के ढेर में दब जाते हैं, कोई निष्कर्ष नहीं निकलता और लोग यह सोच कर मौजूदा ढर्रे पर लगे रहते हैं कि पहले विशेषज्ञों को निपट लेने दिया जाए. चेर्नोबिल और कोरोना अब उन आख्यानों में शामिल हैं जो किसी तर्क-वितर्क से ज्यादा धीमे स्वर में सुनने-सुनाने की मांग करती है. ‘बोल के लब..’ की जगह ‘रुकिए, थोड़ा थम जाइए और सुनिए-कहिये’ की प्रार्थना का वक्त हो चला है अब इस अर्थ में. चेर्नोबिल और कोरोना वायरस को एक साथ सोचने के इस जतन में हमें तीन आयामों पर ध्यान रखना होगा– दृश्यता (visuality), स्थानिकता (spatiality) और समयबोध (temporality).
कोरोनावायरस की तरह ही चेर्नोबिल भी मूलतः देख सकने की नए तरह की तकनीकों और अवस्थाओं से वाबस्ता परिघटना है. पिछले डेढ़-दो सौ साल में क्रमशः ऐसी तकनीकें और पद्धतियाँ विकसित हो पाई हैं जिन्होंने हमारी स्थूलता और सूक्ष्मता की पहले से चली आ रही मान्यताओं पर आधारित हर किस्म की रवायत को बदल कर रख दिया है. परमाणु के अन्दर की सूक्ष्म दुनिया को जब हम जानने समझने लगे तो नाभिकीय विखंडन की ताकत से हमारे साक्षात्कार ने विश्व-राजनीति को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया. परमाणु युग का असर न सिर्फ सैन्य तैनातियों पर पड़ा बल्कि सार्वभौम मनुष्यता की परिकल्पना, कला और ज्ञान-विज्ञान के राष्ट्रीयकरण से लेकर ईश्वर की सत्ता के बारे में होने वाली बहसों में भी इंसान की इस नई निर्णायकता की गूँज शामिल हुई. ज्याक देरिदा ने 1984 में शीतयुद्ध के चरम दौर में परमाणु तकनीक को ‘fabulously textual’ करार दिया. उनके हिसाब से किसी भी पॉलिसी डिबेट और तकनीकी तर्क से ज्यादा परमाणु युद्ध कल्पनाओं, रूपकों और मिथकों में लड़ी जाने वाली चीज थी और इसीलिए साहित्यकारों-कलाकारों की दुनिया इस सन्दर्भ में देरिदा के लिए बहुत मानीखेज थी.
ऐसे ही अंतरिक्ष को देख पाने की तकनीक ने राजनीति, दर्शन और धर्म में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाए. 7 दिसंबर 1972 को जब अपोलो-17 यान ने पूरी पृथ्वी की पहली तस्वीर भेजी तो वह दुनिया के हरेक अख़बार में छपी. ‘ब्लू मार्बल’ के नाम से विख्यात वह फोटो अब तक के सबसे ज्यादा प्रिंट होने वाले चित्रों में शामिल है जिसका इस्तेमाल अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ, नागरिक समूह, कलाकार, फिल्मकार, प्रवचनकर्ता आदि सब किसी-न-किसी रूप में करते हैं. अपोलो यान के यात्रियों की नज़र से दिखी इस झलक ने धरती और मानवता को संजोने-संभालने और प्रशासित करने के विमर्शों को नया आयाम दिया. ये बात भी सही है कि नासा ने पृथ्वी की उस तस्वीर को अमेरिकी विश्वदृष्टि के अनुसार ‘ठीक’ किया ताकि उत्तरी गोलार्ध ऊपर और सामने दिखे.
इसी तरह वायरस से जुड़े सारे उपक्रम भी कोशिकाओं और उनसे सूक्ष्मतर किस्म के अस्तित्वों को देख पाने से शुरू हुए. इन तकनीकों के आने से पहले रोगों और महामारियों की या तो धार्मिक व्याख्याएं प्रचलित थीं या फिर हवा, खाना, पानी आदि से रोग फैलने की मान्यताएं ही उनके बचाव और इलाज के काम आती थीं. लेकिन वायरस को हमने जब से देख लिया तब से उसे अनदेखा करना मुश्किल हो गया. हम अब अपनी कुर्सी के हत्थे, दरवाजे की हैंडल और हाथ मिलाने को आगे बढ़े दोस्त के हाथ को लेकर आशंकित हैं. अभी वैज्ञानिक इस बात पर एकमत नहीं हैं कि वायरस सजीव होते हैं या फिर निर्जीव, लेकिन उनकी अदृश्य सत्ता ने हमारे संसार के लगभग सभी faultlines को बदल कर रख दिया है – परिवार, समाज, देश, कार्यस्थल से लेकर Tinder तक.
इसी तरह की अदृश्यता का आतंक 26 अप्रैल 1986 को चेर्नोबिल के निवासियों ने झेला जब उन्हें घंटों के अन्दर अपना सब कुछ जैसे-का-तैसा छोड़कर जाना पड़ा. जैसे अभी गली-चौराहों पर लोग बायोटेक्नोलॉजी और एपिडेमियोलॉजी की शब्दावली में दीक्षित हो रहे हैं वैसे ही चेर्नोबिल और उसके बाद फुकुशिमा दुर्घटना ने रेडियेशन से जुड़ी पारिभाषिकी को जिंदा रहने की शर्त बना दिया. एक झटके में आधुनिक विज्ञान के गुटखों ने दूसरे सभी ग्रंथों के ऊपर जगह बना ली और सफ़ेद चोगों में डूबे तकनीक के नए पुरोहित अन्य सभी तरह की सलाहियतों पर भारी पड़ गए.
स्थानिकता की पुनर्परिभाषा इस ‘चेर्नोबिल मोमेंट’ का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है. रेडियेशन किरणें, ठीक वैसे ही जैसे वायरस, किसी देश, सूबे या जिले की हदबंदियों को नहीं मानतीं. सोवियत रूस में हुए हादसे के एक साल के अन्दर ही हवा, पानी, जानवरों और भोज्य-पदार्थों के रास्ते पूरे यूरोप और दुनिया के दूसरे हिस्सों में चेर्नोबिल का विकिरणयुक्त जहर फैल गया. विभिन्न भूभागों को संचालित और प्रशासित करने की मौजूदा निजामों की सीमा सामने आई. चाहे परमाणु बम-टेस्ट से पैदा विकिरण हो या परमाणु ऊर्जा कारखानों से निकलने वाली विषाक्तता और विनाश, उसे प्रशासनिक नक्शों की संकीर्णता से नहीं समझा या निपटा जा सकता है. लेकिन दूसरी तरफ कुडनकुलम और जैतापुर जैसी जगहों में परमाणु कारखानों के खिलाफ निकटवर्ती गाँवों के लोगों के आंदोलन का समर्थन करने वाले नागरिकों को सरकार ने ‘बाहरी’ बताकर प्रताड़ित किया. जबकि सोच कर देखें तो परमाणु संयंत्रों के लिए किसानों से छीनी जाने वाली जमीनें सिर्फ उन्हीं की वैसे भी नहीं हैं. पूरी दुनिया में चल रहे 450 के आसपास परमाणु कारखानों और उससे भी अधिक युरेनियम खदानों व कचरा-निपटान संयंत्रों को पृथ्वी पर हुए उन जख्मों की तरह देखा जा सकता है जो हम सबकी साझा थाती हैं. चेर्नोबिल के तीस किलोमीटर की परिधि आज भी इंसानों के लिए निषिद्ध है और यही हाल देर-सबेर हर संयंत्र का होना है अगर वहाँ कोई दुर्घटना नहीं हुई तब भी. ऐसा हर भूभाग दरअसल सभी इंसानों, जानवरों और वनस्पतियों के हिस्से से छीना जा रहा है. अमेरिका के मूलनिवासियों के आंदोलन में इस्तेमाल होने वाले उन पोस्टरों को याद करें जिन पर लिखा होता है – “we are the nature defending itself”
अबाध भूगोल को सींखचों में बांटने, पुलिस और पासपोर्ट का निजाम कायम करने और पूँजी के अलावा इंसानों या वस्तुओं के हर प्रवाह को बर्बाद कर देने का यह सिलसिला कोरोनावायरस के दौर में एक नयी वीभत्सता हासिल कर रहा है जिसमें ‘वैक्सीन पासपोर्ट’ का नया रिजीम लागू करने की बात हो रही है. ऐसे ही आज के युक्रेन में पड़ने वाले चेर्नोबिल से जुड़ी सूचनाएं तब सोवियत राज्यसत्ता ने बगल के बेलारूस को इस मामले से कैसे अलग रखा और हज़ारों लोग इससे अनजाने प्रभावित हुए, इसका पर्दाफ़ाश हाल के वर्षों में सार्वजनिक हुए अभिलेखागारों से हुआ है. दो साल पहले केट ब्राउन की बेहतरीन शोधपरक किताब “Manual for Survival: A Chernobyl Guide to the Future” के पन्नों से गुजरते हुए आजकल कोविड का डाटा छुपाने और अपने-अपने राज्यों को अप्रभावित साबित करने वाले हुक्मरानों के चेहरे आपकी आँखों में तैर जाएंगे.
इस कड़ी में तीसरा आयाम है समय का हमारा सेंस. चेर्नोबिल हादसे को हुए पैंतीस साल हो गए हैं और अगले सैकड़ों सालों तक वह पूरा इलाका विषाक्त बना रहेगा. इस बीच कभी अजेय समझा जाने वाला सोवियत साम्राज्य विलुप्त हो चुका है और आज चेर्नोबिल को मैनेज करने वाली सरकार और कम्पनियां हज़ार साल तक उसकी देखभाल करने का दावा कर रही हैं जबकि उससे कोई राजस्व कभी आने वाला नहीं. ना ही सिर्फ अगले इलेक्शन तक की सोच रखने वाले आज के नेता ऐसी कोई जिम्मेवारी उठा सकते हैं और न ही ऐसे अफसर जिनकी ज़िन्दगी के सारे सपने रिटायरमेंट के इर्द-गिर्द घूमते हैं. परमाणु विकिरण की समस्या आधुनिक राज्य व्यवस्था के समय-बोध का तो अतिक्रमण करती ही है, इतने लम्बे अंतराल को लेकर दूसरी वैचारिक सरणियों की भी सीमाएं हैं. प्लूटोनियम-239 जो इन परमाणु प्लांटों और बम-टेस्टों से निकलता है, उसकी रेडियोधर्मिता की ‘हाफ़-लाइफ़’ ही चौबीस हज़ार साल की होती है. इंसान की बनाई सबसे पुरानी इमारतें भी दस हज़ार साल से अधिक प्राचीन नहीं हैं और पांच हज़ार साल पुरानी सिन्धु लिपि हम आज तक नहीं पढ़ सके हैं. हम चौबीस हज़ार साल बाद की इंसानी पीढ़ियों से आज कैसे संवाद करेंगे? एक बार फिर, परमाणु विकिरण का सवाल तकनीक की बजाय सभ्यता, भाषा और कला का सवाल बन कर उपस्थित होता है.
अमेरिका के न्यू मेक्सिको में परमाणु कचरे के लिए बनाए जा रहे Waste Isolation Pilot Plant के साथ ऐसा क्या साइनबोर्ड, निशान या स्थापत्य बनाया जाए, इसको लेकर वहां की सरकार ने इंजीनियरों, कलाकारों और दार्शनिकों को साथ लेकर विमर्श शुरू किया और जिस डिज़ाइन के पक्ष में निर्णय लिया गया है, वह अभी भी आम सहमति के दायरे से दूर है. समय और इंसानी हस्ती की सीमाओं को पार करने वाले संवाद का ऐसा अनुष्ठान इससे पहले 1977 में Voyager नाम के अंतरिक्ष यान के सन्दर्भ में हुआ था जब दुनिया भर की हर भाषा से शब्द, चिह्न और संगीत के साथ-साथ इंसानों, पशु-पक्षियों, पौधों और धरती पर जीवन के हर अन्य पहलु से जुड़े प्रतीकों को फोनोग्राफ रिकार्डों में भरकर अंतरिक्ष में छोड़ा गया था. भारत से केसरबाई केरकर का गाया ‘जात कहाँ हो…’ इसमें शामिल हुआ था. अंतरिक्ष में तब भेजी गयी उस डिस्क के साथ उसे प्ले करने की विधि भी कूट-चित्र के माध्यम से भेजी गयी थी. एलियन प्रजातियाँ उसे पढ़-समझ पाएंगी या नहीं यह तो नहीं मालूम लेकिन 2021 में वैसी डिस्क हमारे घरों-दफ्तरों में ही खोजे न मिले.
एक तरफ समय और संवाद का यह स्केल और दूसरी तरफ मीडिया में हर हफ्ते नए हीरो और विलेन, सोशल मीडिया में हर रोज नए हैश-टैग. चेर्नोबिल समय की ज्यामिति पर एक ऐसा बिंदु है जिसकी थाह हमें राजनीति, अर्थव्यवस्था और मीडिया के मौजूदा मानकों से नहीं लगने वाली. शायद इसीलिए परमाणु और पर्यावरण से जुड़े आन्दोलनों की आवाजें हमारी संसदों, अदालतों और चैनलों के रजिस्टर पर दर्ज नहीं हो पाती.
कोरोनावायरस 2020 को तो लील गया, 2021 के भी बचने के कोई आसार नहीं देख रहे और वैज्ञानिकों का एक धड़ा अब यह कहने लगा है कि हर साल नई वैक्सीन लगाना ज़रूरी हो जाएगा. इस महामारी ने जो ‘नया नार्मल’ हमारे सामने उपस्थित किया है उसमें भी समय के नए तरह का संयोजन होना लाजिमी है. आधुनिक राष्ट्र-राज्यों और अर्थव्यवस्थाओं के जिस ‘homogenous, empty time’ की बात बेनेडिक्ट एंडरसन ने की थी, उसके विरोधाभास अब पूरी तरह सामने आ चुके हैं.
इस नज़र से देखें, तो ‘चेर्नोबिल मोमेंट’ किसी सरकार को गिराने-बनाने भर का क्षण नहीं है. क्या दृश्य है और क्या ओझल, क्या स्थानीय है और क्या ग्लोबल और समय के कितने लम्बे पैमाने पर इंसान के बतौर हम अपने भौतिक और वैचारिक घोंसलों को सजाएं, चेर्नोबिल से अनवरत निकलता विकिरण हमसे इन सवालों पर संवाद करने की अपेक्षा करता है. लगातार रिसता हुआ विकिरण, जिसे न देखा न सुना जा सकता है, वैसे ही जैसे अदृश्य कोरोनावायरस. चुनावी जीत-हार, न्यूज़ साइकल और हैश-टैग की बदहवासियों के दबाव से मुक्त कोई समय, जगह और भाषा हम ढूंढ पाएंगे तभी चेर्नोबिल मोमेंट का कोई मतलब होगा.
लेखक DiaNuke.org के सम्पादक हैं