संक्रमण काल: महामारी के दौर में डॉक्टरों की भूमिका, सीमाएं और प्रोटोकॉल के कुछ सवाल


जैसी कि उम्मीद थी, एक बार फिर से कोविड के नये मामले बढ़ने की ख़बरें आ रही हैं। भारत में हाहाकार मचा हुआ है। ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं होने के कारण बड़ी संख्या में लोग मर रहे हैं। मौतों का एक बड़ा कारण गलत उपचार भी है, जिसे एक प्रोटोकॉल के तहत कोविड के साथ नत्थी कर दिया गया है। इन मौतों को भी कोविड से हुई मौत के रूप में गिना जा रहा है। इस लेख में हम कोविड महामारी और चिकित्सकों के रिश्ते को देखने की कोशिश करेंगे, जिनकी भूमिका की चर्चा कोविड के दौरान बहुत एकांगी रूप से हुई है, लेकिन जो इन चीजों से सूक्ष्मता से जुड़े हैं।

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल 24 मार्च, 2020 को देश के 1.3 अरब लोगों को महज चार घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन में धकेलेते हुए कहा था कि “यह धैर्य और अनुशासन बनाए रखने का समय है।..[आप] डॉक्टरों, नर्सों, पैरामेडिकल स्टाफ, पैथोलॉजिस्ट के बारे में सोचें जो अस्पतालों में दिन-रात काम कर रहे हैं ताकि प्रत्येक जिंदगी को बचाया जा सके।” मोदी ने विशेष तौर पर आग्रह किया कि आप “उन लोगों की भलाई के लिए सोचें और प्रार्थना करें जो खुद कोरोना वायरस महामारी के जोखिम का सामना करते हुए अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर रहे हैं।”[i] ऐसी ही बातें दुनिया के अधिकांश राष्ट्राध्यक्षों ने कहीं। कोविड के दौरान भारत समेत अनेक देशों में डॉक्टरों पर फूल-मालाएं चढ़ाने का कर्मकांड किया गया।

कोविड की कथित ‘पहली लहर’ के दौरान बार-बार कहा गया कि बड़ी संख्या में चिकित्सक भी कोविड से मर रहे हैं, इसलिए निश्चित रूप से यह ऐसा जानलेवा संक्रामक रोग है, जिससे बचने के लिए उठाया गया कोई भी क़दम उचित है, चाहे वह कितना ही अमानवीय ही क्यों न हो। चिकित्सकों व अन्य बड़े लोगों के संक्रमित होने को महामारी की भयावहता और लॉकडाउन की अनिवार्यता के अकाट्य प्रमाण की तरह प्रचारित किया गया।

चिकित्सक भी स्वयं को कोविड-योद्धा, युयुत्सु वीर के रूप से प्रस्तुत करने में पीछे नहीं थे। सोशल-मीडिया पर इससे संबंधित होने वाली बहसों में चिकित्सक, चाहे वे दांत के हों, या आंत के, इस प्रकार प्रकट होते मानो वे चिकित्साशास्त्र ही नहीं, बल्कि समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, नीतिशास्त्र- सब के ज्ञाता हों। वे किसी भी कोण से उठने वाले सवालों का उत्तर देते और जो कोई विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ), अमेरिका के सेंटर ऑफ़ डिज़ीज़ कंट्रोल (सीडीसी), भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की “टूल किट” से अलग सवाल उठाता, उसे वे विज्ञान-द्रोही कहते और सवाल उठाने के लिए उसकी काबिलियत को कठघरे में खड़ा करते। वे उन सब को खारिज करते, जिनकी ट्रेनिंग किसी मेडिकल-कॉलेज में नहीं हुई हो। दूसरी ओर, वे बिल गेट्स जैसे टेक्नोक्रेट-व्यवसायी की हर बात का समर्थन करते, गोया गेट्स ‘सुपर-डाक्टर’ हों।

आज जब यह साबित हो चुका है कि लॉकडाउन, जिसे गेट्स ने एक प्रामाणिक विज्ञान बताया था तथा देशों को लॉक करवाने के लिए लॉबिंग की थी, जैसा कदम अतिरेकपूर्ण था, जिसने जितनी जानें बचाईं उससे कई गुणा अधिक जानें लीं[ii]; तो प्रश्न उठना लाज़मी है कि क्या हमारे-आपके बीच के वे डॉक्टर झूठ बोल रहे थे? क्या वे किसी दबाव या प्रलोभन का शिकार थे? क्या हमारी मध्यमवर्गीय जमात के ये सदस्य भी किसी वैश्विक साजिश में शामिल थे?

इनमें से अधिकांश प्रश्नों का उत्तर है-  “नहीं”। लेकिन कोविड-काल में चिकित्सकों की भूमिका को समझने में उत्तर कोई ख़ास मदद नहीं कर सकता। हमें इन वस्तुनिष्ठ प्रश्नों का उत्तर तलाशने की जगह उन विषयनिष्ठ प्रक्रियाओं को देखना होगा, जो मौजूदा चिकित्सकों को निर्मित कर रही हैं।

विशुद्ध डॉक्टर एक अशुद्ध अवधारणा है
ग्रीक चिकित्सक, सर्जन और दार्शनिक गैलन के सबसे चर्चित परिनिबंध का शीर्षक है – ‘श्रेष्ठ चिकित्सक एक दार्शनिक भी होता है’

डॉक्टरों पर आम जनता के विश्वास का इतिहास, ज्ञान-विज्ञान के निर्माण का इतिहास है, जो कम से कम ढाई हज़ार साल या उससे भी अधिक पुराना है। इस विश्वास के निर्माण की प्रक्रिया को ईसा से लगभग 450 साल पहले यूनान में अरस्तू (469-399 ईसापूर्व) के उद्भव के साथ देखा जा सकता है। जीव विज्ञान के जनक के तौर पर मशहूर अरस्तू चिकित्सक के साथ-साथ दार्शनिक, राजनीतिशास्त्री,  तर्कशास्त्री, नीतिशास्त्री और कला-मर्मज्ञ भी थे। लंबे समय तक एक चिकित्सक से इन गुणों की अपेक्षा की जाती रही। मसलन, उसे जीव-विज्ञान के अध्येता के साथ-साथ एक दार्शनिक भी होना चाहिए ताकि वह जीवन के अर्थ और मृत्यु की अपरिहार्यता को सही परिप्रेक्ष्य में समझ सके। उससे तर्क और राजनीति की समझ तथा कलात्मक संवेदनाओं की भी अपेक्षा की जाती है ताकि वह शारीरिक-समस्याओं को उनकी संपूर्णता में देख सके।

कई महान चिकित्सक लेखक और चिंतक रहे हैं। मसलन,  हिप्पोक्रेट्स, (460-375 ईसापूर्व) गैलेन (130 – 210 ई.), मैमोनिदेस (1138–1204 ई.), पेरासेलसस (1493-1541 ई.) और आंद्रेयेस विसेलियस (1514-1564 ई.) आदि ने अपने चिकित्सकीय अनुभवों, प्रविधियों को अपने साहित्य में करीने से दर्ज किया है। ग्रीक चिकित्सक, सर्जन और दार्शनिक गैलन के तो सबसे चर्चित परिनिबंध का शीर्षक ही है – ‘श्रेष्ठ चिकित्सक एक दार्शनिक भी होता है’ (The Best Doctor Is Also a Philosopher), लेकिन बाद की सदियों में ऐसा नहीं रह गया। जैसा कि वाल्टेयर (1694-1778) ने 18वीं शताब्दी में ही लक्ष्य किया था कि “डॉक्टर जिन दवाओं का नुस्खा लिखते हैं, उनके बारे में वे थोड़ा सा ही जानते हैं। जिन बीमारियों को ठीक करने के लिए नुस्खा लिखते हैं, उनके बारे में भी वे बहुत कम जानते हैं तथा मनुष्य जाति को तो वे कुछ भी नहीं जानते हैं।[iii]

20वीं और 21वीं सदी की व्यवस्था ने जिन चिकित्सकों को रचा है, वे मनुष्य को टुकड़ों में देखते हैं, हालांकि आज भी संवेदनशील और मानव-जीवन में गहन दार्शनिक रूचि रखने वाले कुछ चिकित्सक हैं, लेकिन चिकित्सा का ज्ञान प्रदान करने वाले हमारे संस्थान (मेडिकल कॉलेज) जिन चिकित्सकों का उत्पादन कर रहे हैं, वे एक संपूर्ण ‘स्वास्थ्यकर्मी’ के रूप में विकसित नहीं होते हैं, बल्कि महज़ दवाओं एवं शल्य-क्रियाओं (सर्जरी) आदि के जानकार होते हैं; वह भी बहुत सीमित क्षेत्र में। आज अच्छा चिकित्सक होने का अर्थ मानव-शरीर के महज़ किसी एक हिस्से का विशेषज्ञ होना है।

आज किसी चिकित्सक से एक संपूर्ण चिकित्सक होने की भी नहीं, बल्कि आंख आँख, नाक, दांत दाँत, हड्डी, त्वचा, हृदय, गुर्दा, प्रसूति, नींद के सूक्ष्मातिसूक्ष्म शाखाओं में से महज़ किसी एक शाखा से संबंधित तकनीक और दवाइयों की जानकारी रखने की उम्मीद की जाती है। उपरोक्त पतन के बावजूद चिकित्सक समाज ही नहीं बल्कि शासन-व्यवस्था का अहम हिस्सा रहे हैं।

भारत समेत दुनिया के सभी देशों के क़ानून के अनुसार एक ज़ेरे-इलाज व्यक्ति के बारे में चिकित्सक के मत को अकाट्य माने जाने का प्रावधान है। चाहे वह दफ़्तर से छुट्टी लेने का मामला हो, किसी आरोपी के न्यायालय में अनुपस्थित रहने का या किसी की मृत्यु के कारणों के निर्धारण का। रोग और उसके इलाज का निर्धारण भी चिकित्सक की ही ज़िम्मेदारी रही है, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर चिकित्सकों के ये अधिकार छिनते गये। कोविड के दौरान तो उनके पास इससे संबंधित कोई वास्तविक अधिकार ही नहीं रहा। कोविड के दौर में उनकी इस संपूर्ण-दृष्टि के ग़ायब होने का ख़ामियाज़ा दुनिया ने उठाया और लाभ उन लोगों ने उठाया जो दुनिया को अपनी मुट्ठी में करना चाहते हैं।

कोविड के दौरान क्या हुआ?

अधिकांश लोग समझते हैं कि चिकित्सक ही जांच द्वारा तय करते हैं कि किसे कोविड है और किसे नहीं तथा अगर किसी की मौत होती है तो चिकित्सक ही यह तय करते हैं कि वह मृत्यु कोविड से हुई है या किसी अन्य कारण से। इसलिए जब कोई खुद को चिकित्सक बताता है या अपने परिवार में चिकित्सकों के होने का ज़िक्र करता है तो लोग उसकी बात पर अनिवार्य रूप से विश्वास करते हैं, लेकिन कोविड के मामले में वस्तुस्थिति कुछ और है।

दरअसल, बिग-फार्मा से लेकर परोपकारी संस्थाओं, सलाहकार लॉबियों, टेक-जाइंट्स नीति-निर्माता समितियों तक फैले विशाल स्वास्थ्य-व्यवसाय में डॉक्टर एक ऐसा बिचौलिया है, जो इस संपूर्ण व्यवसाय के दाव-पेंचों को सबसे कम समझता है।
एक ओर, कोविड के निर्धारण के लिए किये जाने वाले टेस्ट अविश्वसनीय रहे और उन पर सवाल उठाना चिकित्सकों के अधिकार क्षेत्र में नहीं रहने दिया गया। अगर वे ऐसा करने की कोशिश करते हैं तो भारत समेत अधिकांश देशों में लागू महामारी क़ानूनों के तहत उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई (यहां तक कि जेल भी) हो सकती है। कई देशों में ऐसे चिकित्सकों को जेल भेजा भी गया है।[iv]

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कोविड से हुई मौत के निर्धारण में भी चिकित्सक की भूमिका एकदम शाब्दिक अर्थ में रबर स्टैंप की तरह है। कोविड से हुई मौतों के निर्धारण के लिए भारत समेत दुनिया के अधिकांश देशों में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा विकसित एक विशेष कोड का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसमें सिर्फ़ मृतक का लक्षण, जांच रिपोर्ट आदि भरनी होती है और उस कोड के अनुसार ही निर्धारित करना होता है कि मौत का मुख्य कारण किस बीमारी को बताया जाना है। अगर किसी व्यक्ति की कोविड की टेस्ट-रिपोर्ट पॉज़िटिव आई है तो चाहे किसी भी कारण से[v] उसकी मौत हुई हो, उस कोड के अनुसार उसे कोविड से हुई मौत के रूप में ही गिना जाएगा। यहाँ तक कि भले ही कोविड की जांच भी न हुई हो, रिपोर्ट अस्पष्ट या निगेटिव आयी हो, लेकिन अगर उसमें ऐसे कोई भी लक्षण मौजूद हों, जो कोविड के लक्षणों से मिलते जुलते हों, जैसे- खांसी, सर्दी, ज़ुकाम, साँस लेने में तकलीफ़, तो उसे उस कोड के अनुसार उसकी मौत को कोविड से हुई मौत के रूप में दर्ज किया जाना है। 

मान लीजिए, मई, 2020 में एक चिकित्सक के पास एक 75 साल का व्यक्ति आता है। वह चिकित्सक वर्षों से उसके दमा का इलाज कर रहा है। उस मरीज को हृदय रोग भी है। पिछले कुछ दिनों से उसे खांसी, बुख़ार है। सांस लेने में तकलीफ़ हो रही है, दमा तेज़ हो गया है। अचानक उसने अपने परिजनों से सीने में दर्द की शिकायत की। वे हृदयाघात की आशंका में लॉकडाउन से बचते-बचाते उसे लेकर किसी तरह चिकित्सक के पास पहुंचते हैं, लेकिन कोविड के लिए निर्धारित मानक संचालक प्रक्रिया (एसओपी) के तहत चिकित्सक उसका तुरंत इलाज नहीं कर सकता। उसे पहले कोविड टेस्ट करवाना होगा। वह उसे एक-दूसरे अस्पताल में रेफर करता है, वहां से उसे कहीं तीसरी जगह कोविड की जांच के लिए भेजा जाता है। जब तक जांच की रिपोर्ट नहीं आती है, उसे ऑब्ज़र्वेशन में रखा जाना है। यानी न उसे कोई छुएगा, न उसका कोई इलाज होगा। जांच होने से पहले ही उसकी मौत हो जाती है।

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चिकित्सक जानता है कि व्यक्ति की मौत हृदयाघात से हुई है, वह इसे लेकर सुनिश्चित है कि अगर पोस्टमार्टम हो तो हृदयाघात ही सामने आएगा लेकिन उसे उसकी मौत की सूचना निर्धारित कोड के अनुसार एक प्रारूप (फार्म) में भरनी है, जिसे भरने के लिए उन्हें स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि खांसी, बुख़ार और सांस लेने में तकलीफ़ जैसे लक्षणों के कारण इस व्यक्ति की मौत का अंतनिर्हित कारण (underlying cause of death) कोविड-19 ही दर्ज किया जाना है और कोविड से मृत्यु की यह सूचना निर्धारित प्रारूप में छह घंटे के भीतर मुख्यालय पहुंच जानी चाहिए।[vi] इस सूचना को एक सॉफ्टवेयर में अपडेट किया जाता है और मरीज़ के कोविड से मरने की सूचना डब्ल्यूएचओ के सर्वरों से होती हुई हमारे सामने आ जाती है।

अगर मृतक का कोविड-टेस्ट हुआ होता और उसमें कोविड की पुष्टि हुई होती, तब भी सच यही था कि उसकी मौत का मुख्य कारण हृदयाघात और इलाज में देरी थी। मृत्यु को संभव बनाने में उसके दमे की भी भूमिका थी। मृत्यु में कोविड की कोई सीधी भूमिका नहीं थी। कोविड एक सह-रूग्णता थी, जो कि उस 75 वर्षीय व्यक्ति के शरीर में मौजूद आधा दर्जन अन्य सह-रूगण्ताओं, मसलन- पैर का पुराना घाव और पेशाब में संक्रमण के साथ शामिल की जानी चाहिए थी। चिकित्सक या मृतक के परिजन चाहें, तब भी कोविड के संदिग्ध मृतक का पोस्टमार्टम नहीं हो सकता क्योंकि कोविड के मामले में सामान्यत: पोस्टमार्टम पर रोक है।

आंकड़ों में इस गड़बड़ी का कारण है कि डब्ल्यूएचओ द्वारा कोविड से मृत्यु का कारण दर्ज करने के लिए विशेष दिशा-निर्देश जारी हैं, जिसमें ऐसे हर व्यक्ति को, जिसमें कोविड की तरह के लक्षण हों, चाहे उसकी टेस्ट रिपोर्ट निगेटिव आई हो या पॉज़िटिव, उसे कोविड से मृत के रूप में दर्ज किया जाना है। दूसरी ओर, कोविड के लक्षणों में सर्दी, ज़ुकाम, हृदय रोग, अस्थमा, चर्म रोग आदि तक के लक्षणों को शामिल कर लिया गया है। (वस्तुत: मनुष्य को होने वाली अनेकानेक व्याधियों को कोविड के लक्षण के रूप में शुमार कर लिया गया है। कैंसर और किडनी ख़राब होने के अतिरिक्त ऐसे बहुत कम लक्षण हैं, जिन्हें कोविड का लक्षण नहीं माना जाता।)

इतना ही नहीं अगर किसी व्यक्ति में कोविड के कोई लक्षण नहीं हों तथा उसकी कोविड टेस्ट रिपोर्ट भी नेगेटिव आयी हो तो भी उसे इपिडिमॉलिस्ट हिस्ट्री के आधार पर कोविड से मृत घोषित करने का प्रावधान किया गया है। इपिडिमॉलिस्ट हिस्ट्री का अर्थ है- ऐसे इलाक़े में रहना जहां कोविड फैला हो या ऐसे किसी व्यक्ति के संपर्क में आने की आशंका का मौजूद होना, जिसमें बुख़ार या कोविड का कोई भी लक्षण मौजूद हो। इससे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि मृतक का जिससे संपर्क हुआ था, उसकी भी कोविड रिपोर्ट निगेटिव थी। इसी प्रकार, सभी लावारिस लाशों को भी कोविड से मृत के रूप में चिह्नित किए  जाने का निर्देश है।[vii]

आंकड़ा-संकलन की प्रविधि

यहां यह समझना आवश्यक है कि किस प्रकार एक बारीक़ हेर-फेर से आंकड़ों का यह खेल चलाया गया है और किस प्रकार विश्व स्वास्थ्य संगठन के नियमों से बंधे दुनिया के तमाम देश इसकी चपेट में आए। विज्ञान कहता है कि ज़्यादातर मामलों में किसी की मृत्यु के एक से अधिक कारण होते हैं। मनुष्य को होने वाले रोग सामान्यत: बीमारियों के सिलसिले (चेन) को जन्म देते हैं। इस सिलसिले में एक बीमारी दूसरी बीमारी को जन्म देती है। कुछ मामलों में ये बीमारियां एक-दूसरे संबद्ध होती हैं, जबकि कुछ मामलों में व्यक्ति को एक-दूसरे से भिन्न कई बीमारियां भी हो सकती हैं, जो उसकी मृत्यु का कारण बनी हों। इसमें किसी एक बीमारी को मृत्यु के कारण के रूप में चुनना टेढ़ी खीर है।

पूर्व में अलग-अलग चिकित्सक अपने-अपने ज्ञान और अनुभव के अनुसार इसमें से किसी एक बीमारी को मृत्यु के कारण के रूप में दर्ज कर देते थे, जिसमें कई प्रकार की गड़बड़ियां होती थीं और आँकड़ों का एक विश्वव्यापी प्रारूप नहीं बन पाता था। 18वीं शताब्दी के आरंभ से ही इस प्रकार की एक सर्वोपयोगी प्रारूप बनाने की कोशिश की जाती रही है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान ने 1893 में पहली बार इसके एक प्रारूप को मंज़ूरी दी, जो फ्रांसीसी सांख्यिकीविद् जैक बर्टिलन द्वारा निर्मित प्रारूप पर आधारित था। बाद के वर्षों में इस प्रारूप को ‘मृत्यु के कारणों की अंतर्राष्ट्रीय सूची’ और अंतत: ‘रोगों का अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण’ (International Classification of Diseases : ICD) के नाम से जाना गया। रोगों के वर्गीकरण के इस तरीक़े में परिवर्तन भी होते रहे। 1948 में डब्ल्यूएचओ के गठन के बाद इस प्रारूप को वैश्विक स्तर पर व्यापक मान्यता मिली। डब्ल्यूएचओ ने नयी आवश्यकताओं के अनुसार, 1980 और 1990 के दशक में कई परिवर्तन किए।[viii] अभी यह सूची ‘रोगों का अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण’ (आईसीडी : 10) के नाम से जानी जाती है। इसमें अंक ‘10’ वर्गीकरण में किए गये 10वें संशोधन को इंगित करता है, जो वर्ष 2015 से लागू है।

आईसीडी : 10 का ही प्रयोग भारत समेत दुनिया के सभी देश अपने विशिष्ट दिशा-निर्देशों के साथ करते हैं। रोगों की इस अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण प्रणाली के तहत उस रोग को मृत्यु का अंतर्निहित कारण माने जाने का प्रावधान है, जिसने अन्य रोगों की श्रृंखला शुरू की। मसलन, भारत की नियमावली बताती है कि “मृत्यु का कारण उस रोग, असामान्य स्थिति या ज़हर को कहा जाए, जिसने प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मृत्यु में योगदान किया हो। सामान्यत: मृत्यु दो या उससे अधिक स्थितियों के संयुक्त प्रभाव के कारण होती है। एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से उपन्न होने वाली ये स्थितियाँ आपस में पूरी तरह असंबद्ध हो सकती हैं या हो सकता है कि वे आकस्मिक रूप से एक-दूसरे से संबंधित भी हों। अर्थात् यह हो सकता है कि एक स्थिति ने दूसरी को और दूसरी ने तीसरी को जन्म दिया हो और इस प्रकार यह संख्या बढ़ती गयी हो। जहां इस प्रकार की एक से अधिक स्थितियां हों, वहां उस बीमारी अथवा चोट को मृत्यु के अंतर्निहित कारण के रूप में चुना जाएगा जिसने इन स्थितियों के क्रम की शुरुआत की थी। इस प्रकार, मृत्यु का अंतर्निहित कारण (1) वह बीमारी अथवा चोट है, जिसने उन कड़ियों की शुरुआत की, जो सीधे तौर पर मृत्यु का कारण बनी, या (2) वह दुर्घटना, हिंसा या परिस्तिथियां जिसने मृतक को घातक चोट पहुंचाई थी।”[ix]

आईसीडी : 10 के अनुरूप ये ही नियम दुनिया के सभी देशों में रहे हैं। सरल शब्दों में कहें तो उस पहली बीमारी को मृत्यु के मुख्य (अंतर्निहित) कारण के रूप में दर्ज किया जाता है जिसने उन अन्य बीमारियों को जन्म दिया जो मृत्यु का कारण बनीं। यह स्वाभाविक और उचित भी है, लेकिन कोविड को वैश्विक महामारी घोषित करने के तुरंत बाद डब्ल्यूएचओ ने आपात बैठक बुलाकर आईसीडी में कोविड-19 के लिए U07.1 और U07.2 नामक दो विशेष नये कोड जोड़ दिये। कोड U07.1 उन मौतों के लिए, जिनमें कोविड-19 का वायरस मिला हो, जबकि कोड U07.2 में उन मौतों को संभावित, संदिग्ध, लक्षण आधारित बताकर दर्ज करना है, जिनमें वायरस नहीं मिला है।[x]

मौतों के वर्गीकरण की इस पद्धति में इस नए कोड के कारण कोविड को ही अधिकांश मौतों के मामले में सभी देशों में मुख्य कारण के रूप में दर्ज किया जाने लगा जबकि मृत्यु के अधिकांश मामलों में  कोविड किसी घातक बीमारी से ग्रसित व्यक्ति को बाद में हुआ रोग था, जिसने अधिकांश मामलों में मृत्यु में सीधी भूमिका भी नहीं निभाई थी। पहले के नियमों के अनुसार इसे अधिक से अधिक परवर्ती कारण (सह-रूग्ण्ता) में दर्ज किया जा सकता था। 

मौतों के वर्गीकरण की पद्धति में उपरोक्त बदलाव के कारण कोविड-19 को मौत का कारण बताने वाले आंकड़े तेज़ी से बढ़े। यह एक फ्रॉड था, जो डब्ल्यूएचओ की नियमावली के पंखों पर सवार होकर पूरी दुनिया में पसर गया, जिसने अभूतपूर्व अफराफरी को जन्म दिया तथा इसके उपचार के अविवेकपूर्ण उपायों और व्यापारिक-साजिशों को अनायास ही वैधता प्रदान कर दी, जो मौतों का कारण बन रहा है। कोड में किए इस बदलाव के बारे में मैंने अपने एक अन्य लेख में विस्तार से लिखा है।[xi]

आंकड़ों के संकलन और संधान के निर्माण की प्रक्रिया के पीछे के निहित कारणों, हितों और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के बारे में आलोचनात्मक दृष्टि विकसित करने की अपेक्षा एक चिकित्सक से उसकी शिक्षा-दीक्षा के दौरान नहीं की जाती। चिकित्सकों को ज्यादा से ज्यादा इन कोडों के फार्मों को भरने और सॉफ्टवेयरों का उपयोग करने की विधि बताई जाती है। और, जैसा कि पहले कहा गया, इन विधियों पर सवाल उठाना न सिर्फ उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया गया है, बल्कि व्यावहारिक स्तर पर ऐसे सवाल उठाने पर उन्हें अनुशासनात्मक कार्रवाईयों का भी सामना करना पड़ सकता है।

कोविड से मृत्यु के जिस काल्पनिक मामले का ऊपर जिक्र किया गया, उसमें चिकित्सक सिर्फ अपनी मुहर लगाकर मृतक के परिजनों को एक मृत्यु प्रमाण-पत्र जारी करेगा। यह उसकी वैधानिक ज़िम्मेदारी है और अंतिम सीमा भी। वस्तुत: अधिकांश मामलों में हम एसओपी और इलाज में लापरवाही से मरे अपने प्रियजनों की मौत को लोग कोविड से हुई मौत मानकर अपनी भयभीत श्रद्धांजलि अर्पित किए जा रहे हैं। कोविड से मौत के मामले तो नगण्य ही हैं।

कोविड जानलेवा नहीं है। अधिकांश मामलों में हमारा शरीर उससे लड़ सकता है और परास्त कर सकता है। मानवजनित अफरातफरी, जिसके सुनियोजित होने की पूरी आशंका है, ने उसे जानलेवा बना दिया है।

चिकित्सक : बलि का पहला बकरा
Visakhapatnam: Police beat up doctor who complained about lack of PPE kits, drag him on street

वर्ष 2020 के शुरू में आसमान से बरसाए जा रहे फूल और योद्धा का तमगा स्वास्थ्यकर्मियों का मनोबल बढ़ाने के साथ-साथ उन्हें बलि का बकरा के रूप में देखने का भी नतीजा था। ये कार्रवाइयाँ इसलिए कतई नहीं की जा रही थी कि महामारी जैसी विकट स्थिति में उनकी बात अतिरिक्त ध्यान से सुनी जाएगी या नीतियों के निर्धारण में उनके महत्व को बढ़ाया जाएगा। महामारी के दौरान अस्पतालों में अव्यवस्था का ध्यान दिलाने पर भारत समेत अनेक देशों में डॉक्टरों को पुलिस ने पीटा। उनका वेतन रोका गया, उनकी जरूरतों को नजरअंदाज किया गया तथा जैसा कि पहले कहा गया, इलाज के प्रोटोकॉल तथा आंकड़ा जमा करने की पद्धति पर सवाल उठाने पर कई जगह उन पर मुकदमे दर्ज किए गए।

दूसरी ओर, इस दौरान उनमें से कई के काम के घंटे बहुत ज्यादा बढ़ गए थे और अनेक की आमदनी काफी कम हो गई थी अथवा पूरी तरह बंद हो गई थी। अनेक जगहों पर चिकित्सकों की निजी प्रैक्टिस पर रोक लगा दी गई थी[xii], निजी क्लिनिक, हॉस्पिटल आदि बंद हो गए थे, चिकित्साशास्त्र संबंधी पठन-पाठन बंद कर दिया गया था। इन सबने स्वास्थ्य से जुड़े क्षेत्र में कार्यरत अधिकांश लोगों को गहरे तनाव में धकेल दिया था।

कोविड जैसी नयी, संक्रामक और भुतहा अवधारणाओं में घेर दिए गए रोग के बीच काम करने का तनाव कितना गहरा और जानलेवा तक हो सकता है, इसे समझने के लिए ‘मेडिकल स्टूडेंट्स डिजीज’ नामक बीमारी के चर्चा यहां प्रासंगिक होगी। इस बीमारी को ‘मेडिकल के विद्यार्थियों का सेकेंड इयर सिंड्रोम’ या ‘इंटर्नस सिंड्रोम’ भी कहा जाता है। मनोचिकित्सा में इसके और भी अनेक नाम तथा अनेक प्रकार हैं। जैसा कि नाम से विदित है, यह बीमारी मेडिकल के विद्यार्थियों को उस समय होती है, जब वे पहली बार विभिन्न प्रकार के घातक रोगों के मरीजों के संपर्क में आते हैं। चूंकि उन्हें इस प्रकार की परिस्थितयों का पूर्व अनुभव नहीं होता है, इसलिए उन्हें लगने लगता है कि वे स्वयं भी उन घातक बीमारियों से ग्रस्त हो गए हैं जिनके बारे में वे पढ़ते रहे हैं और जिसके मरीजों को उन्होंने देखा है। यह सिंड्रोम इतना प्रभावी होता है कि उस बीमारी के वास्तविक शारीरिक लक्षण भी उनमें उभरने लगते हैं।[xiii] यह बीमारी सिर्फ मेडिकल के विद्यार्थियों को ही नहीं होती बल्कि बीमारियों के बारे बहुत अधिक सोचने और चर्चा करने वाले लोगों को भी होती है, जिसे हाइपोकॉन्ड्रिअक्स कहा जाता है। तनाव के इस अतिरेक ने निश्चित रूप से डॉक्टरों तथा मध्यम वर्ग के लोगों के बीच कथित कोविड से होने वाली मौत की संख्या बढ़ाने में भूमिका निभाई।

प्रोटोकॉल में फंसी एक डॉक्‍टर की मौत
डॉक्टर उत्पलजीत बर्मन

लेख के इस दूसरे हिस्से में हम कोविड से हुई चिकित्सकों की मौतों के उन चिकित्सकीय पहलुओं को देखने की कोशिश करेंगे, जो इस प्रसंग में प्राय: चर्चा से बाहर रही हैं। शुरुआत उस चिकित्सक की मौत की खबर से जो भारत में चिकित्सकों की मौत की शुरुआती घटनाओं में से एक है तथा जिसे किंचित नजदीक से जानता हूं।

मैं इन दिनों भारत के पूर्वोत्तर हिस्से में हूं। इस क्षेत्र के सबसे बड़े शहर गुवाहाटी में ”प्रतीक्षा” नामक एक प्रसिद्ध हॉस्पिटल है, जो महिलाओं और बच्चों की बीमारियों के इलाज और अपने संवेदनशील व्यवहार के लिए प्रसिद्ध है। इस हॉस्पिटल में टीम-वर्क पर जोर देने वाले बहुत समर्पित और मेहनती 44 वर्षीय डॉक्टर उत्पलजीत बर्मन वरिष्ठ एनेस्थिसियोलॉजिस्ट के रूप में कार्यरत थे। 22 मार्च, 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लॉकडाउन की घोषणा के बाद से वे भी अपने हॉस्पिटल नहीं जा रहे थे तथा अन्य अनेक चिकित्सकों की तरह कोविड से बचने के लिए आधिकारिक स्रोतों के सुझावों पर अमल कर रहे थे।

22 मार्च को ही भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) द्वारा कोविड के संक्रमण से बचाव के लिए  हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन (एचसीक्यू) नामक दवा प्रोफिलैक्सिस (रोग/संक्रमण से बचाव) के रूप में प्रस्तावित की गई तथा इसे उस प्रोटोकॉल में शामिल किया, जिसका कोविड केयर सेंटरों में कार्यरत सभी स्वाथ्यकर्मियों को पालन करना था। प्रोटोकॉल में कहा गया था कि प्रयोगशालाओं के अध्ययन से इस दवा की प्रभाव-क्षमता साबित हो चुकी है तथा इसकी निर्धारित मात्रा उन सभी लोगों को लेनी होगी, जो कोविड-मरीजों के लिए बनाए गए सेंटरों में कार्यरत हैं। चाहे ये सेंटर उन मरीजों के लिए हों, जिन्हें कोविड होने की पुष्टि हो चुकी है या फिर उन मरीजों के जिसमें उन लोगों को रखा जा रहा हो, जिन्हें संक्रमण होने का संदेह हो। साथ ही, आइसीएमआर ने यह भी कहा कि इसे दवा को कोविड-मरीजों के गैर-संक्रमित, स्वस्थ परिजनों को भी लेना है।[xiv]

आइसीएमआर के निर्देश के अनुसार, सभी संबंधित स्वास्थ्य-केंद्रों में इस प्रोटोकॉल का पालन अनिवार्य हो गया, लेकिन यह सिर्फ उन्हीं केंद्रों तक सीमित नहीं रहा जहां कोविड के मरीज थे, बल्कि इसे कोविड से बचाव के रामबाण की तरह देखा गया और वे चिकित्साकर्मी भी इसका उपयोग करने लगे जो कोविड सेंटरों में कार्यरत नहीं थे क्योंकि प्रोटोकॉल से यह स्पष्ट था कि इससे किसी का भी बचाव हो सकता है।

डॉक्टर बर्मन कोविड सेंटर में कार्यरत नहीं थे, लेकिन उन्हें ऐसे मरीजों के संपर्क में तो आना ही होता था जिन्हें कोविड हो सकता था। कोविड से बचाव और इलाज के भी प्रोटोकॉल तो यही कह रहे थे कि दुनिया के हर आदमी को, यहां तक कि अपने घर के लोगों को भी कोविड के संदिग्ध संक्रमण-कर्ता के रूप में देखा जाए तथा उनसे सामाजिक-शारीरिक दूरी बना कर रखी जाए। लिहाजा, डॉक्टर बर्मन ने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन लेना शुरू किया। निर्धारित प्रोटोकॉल के अनुसार, उन्होंने पहले दिन 400-400 मिलीग्राम की दो डोज ली तथा अगले सात सप्ताह तक उन्हें यह डोज भोजन के साथ लेनी थी। पहली डोज लेने के बाद ही उन्हें असहज लगने लगा। छाती में जकड़न होने लगी, छाती, पीठ, जबड़े और ऊपरी शरीर के अन्य क्षेत्रों में तीखा दर्द महसूस होने लगा, जो कुछ मिनटों तक रहता और चला जाता फिर अचानक वापस आ जाता। बेचैनी के मारे नींद भी नहीं आती थी। इन्हीं बेचैनी भरे क्षणों में उन्होंने अपने मित्रों को एक व्हाट्सएप संदेश भेजा, जिसमें उन्होंने लिखा, “हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन प्रोफिलैक्सिस के रूप में बहुत अच्छा नहीं है। इसमें बहुत सारी गड़बड़ियां हैं। मुझे लगता है कि इसे लेने के बाद मुझे कुछ समस्या हो रही है।”

डॉक्टर बर्मन हाइपरटेंशन के मरीज पहले से ही थे। अगले सप्ताह उन्होंने जैसे ही हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन की अगली डोज ली, उन्हें अपनी सांस रुकती सी लगी, शरीर पसीने से तरबतर हो गया। उनका शरीर हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन को झेल नहीं सका और 29 मार्च, 2020 को उनकी मौत हो गई।[xv]

उन्हें नजदीक से जानने वाले साथी चिकित्सकों और परिजनों ने कहा कि मौत हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन के कारण हुई[xvi], जिसके बाद पूर्वोत्तर भारत के सोशल-मीडिया में यह चर्चा का विषय बन गया। इसके बाद “आधिकारिक स्रोत” सक्रिय हुए और उन्होंने मीडिया को बयान जारी कर दावा किया कि डॉक्टरबर्मन की मौत में हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन की कोई भूमिका नहीं थी। इन “आधिकारिक स्रोतों” ने मीडिया को बताया कि सोशल-मीडिया में डॉक्टर की मौत का कारण हार्ट अटैक बताया जा रहा है जबकि उनकी मौत मायोकारडियल इंफ्रैक्शन (Myocardial infraction) से हुई है। ये बयान पूर्वोत्तर भारत के अखबारों में छपे तथा राष्ट्रीय मीडिया में भी इनकी चर्चा हुई।[xvii] चिकित्साशास्त्र से संबंधित अपने छल को जनता के सामने परोसते समय कथित “आधिकारिक स्रोत” किस प्रकार तकनीकी शब्दावली का सहारा लेते हैं, यह उसका एक नमूना था।

दरअसल, मायोकारडियल इंफ्रैक्शन हार्ट अटैक का ही चिकित्सकीय नाम है। चिकित्सा की भाषा में जिसे मायोकारडियल इंफ्रैक्शन कहा जाता है, उसे बोलचाल में हमेशा से ही हार्ट अटैक कहा जाता रहा है। इस आधिकारिक बयान में जो दावा किया गया, वह कितना हास्यापस्द था, इसका पता इससे लगता है कि डॉक्टर वर्मन का पोस्टमार्टम नहीं करवाया गया था[xviii] बिना पोस्टमार्टम के यह कहना कि मौत हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन लेने से नहीं, बल्कि कथित मायोकारडियल इंफ्रैक्शन से हुई थी, एक सचेत लीपापोती के अलावा कुछ नहीं थी। कोविड के गलत उपचार से मरने वाले लोगों से संबंधित तथ्यों को दबाने-छिपाने की कोशिश के अनेक ऐसे मामले पिछले एक साल में सामने आए हैं।

हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन (एचसीक्यू) नामक दवा मलेरिया के लिए इस्तेमाल की जाती है। कोविड के दौरान  इसका ट्रायल दुनिया के अनेक देशों में चिकित्सकों, स्वास्थकर्मियों व कोविड से संक्रमित लोगों (चाहे उनमें कोविड के लक्षण हो या न हों) पर किया गया, जो आज भी जारी है।

हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन से मरने वालों में डॉक्टर वर्मन अकेले नहीं थे, बल्कि इस दौरान हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन समेत कई दवाओं का ट्रायल चिकित्सकों व अन्य स्वास्थ्यकर्मियों पर नियमों और नैतिकताओं को धता बताते हुए किया गया। भारत समेत दुनिया भर में इसके लिए प्रोटोकॉल विकसित किए गए और चिकित्साकर्मियों को कहा गया कि वे इन दवाओं को अनिवार्य रूप से लें।

चिकित्सकों-स्वास्थ्यकर्मियों के कोविड से मौत की जितनी भी खबरें आईं हैं, उनमें से अधिकांश के सरसरी विश्लेषण से पता लगता है कि वे इन दवाओं के (अनैतिक) ट्रायल का हिस्सा थे। यह दवा अभी भी कोविड का संक्रमण होने पर संक्रमित मरीज तथा उनके परिजनों को दी जा रही है। यह दवा अभी भी भारत में कोविड के मरीज के इलाज के लिए निर्धारित प्रोटोकॉल का सबसे अहम् हिस्सा है।

यह वही दवा है, जिसे अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रंप ने कोविड का रामबाण बताया था। भारत में स्थित कंपनियां इस दवा का दुनिया भर में सबसे अधिक उत्पादन करती हैं। भारत ने कोविड के दौरान इस दवा का निर्यात रोकना चाहा था, लेकिन ट्रंप ने धमकी दी थी कि अगर भारत ने ऐसा किया तो उसे प्रत्युत्तर के लिए तैयार रहना चाहिए। ट्रंप की धमकी के बाद भारत ने इसे अनावश्यक विवाद समझते हुए इसके निर्यात पर से लगी रोक हटा ली थी।[xix]

हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन का विवाद यहीं तक सीमित नहीं था, बल्कि कोविड के दौरान इस दवा को लेकर जिस प्रकार का आरोप-प्रत्यारोप हुआ वह बताता है कि इनसे लाभान्वित होने वाली शक्तियां लोगों की जिंदगियों को महज एक डेटा, एक आंकड़ा समझती हैं।

https://twitter.com/BolsonaroSP/status/1251132537373630469?s=20

ब्राजील में शोधकर्ताओं ने एक शोध में पाया था कि हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन कोविड मरीाजों की मौत की आशंका को बढ़ा रही है तो उन शोधकर्ताओं को जान से मार डालने की धमकियां दी गईं।[xx] दूसरी ओर, फ्रांस के एक बहुत छोटे सैंपल साइज के अध्ययन में कहा गया था कि इस दवा से कोविड के मरीजों को फायदा हो रहा है, तो उसे खूब उछाला गया लेकिन जब शिकागो की कंपनी सर्जिस्फेयर (Surgisphere) ने जब एक बड़े सैंपल साइज के अध्ययन से यह दिखाया कि किस प्रकार हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन कोविड मरीजों की मौत का कारण बन रही है तो उस पर बहुत बड़ा हंगामा खड़ा किया गया और अंतत: शोधकर्ता के शोध-पत्र की मान्यता रद्द कर दी गई।[xxi] इसके लिए लॉबिंग करने में किन शक्तियों की भूमिका थी?

इतना ही नहीं, बाद में और प्रमाण सामने आने पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी माना कि हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन के प्रयोग का कोई फायदा नहीं हो रहा तथा इस ट्रायल को रोक देने के लिए कहा।[xxii] इसके बावजूद भारत समेत अनेक देशों में इसका प्रयोग जारी है। यह ट्रायल क्यों किया जा रहा है? क्या यह दुनिया को बदलने के लिए, ‘ग्रेट रीसेट’ के लिए चिकित्सकों और आम लोगों की बलि देने के किसी निर्मम फैसले के तहत किया जा रहा है? या फिर यह सुपर-कॉरपोरेशनों द्वारा ‘आपदा में अवसर’ की वह खोज है, जो कहती है कि प्यार और व्यापार में सब कुछ जायज है!

क्या इसका कारण इस दवा का भारत में बनना और कथित तौर सस्ता होना है? क्या कोई भारतीय लॉबी इसके पक्ष में काम कर रही है? इससे किस-किस को लाभ है? वे कौन सी शक्तियां हैं जो मौत के इस तांडव को अपनी नीतियों के प्रसार के अवसर के रूप में देख रही हैं?

इस लेख का अंत चलताऊ तरीके से करने के लिए हम कह सकते हैं कि ऐसे अनेक सवाल हैं, जिनके उत्तर तलाशे जाने हैं, लेकिन सच यह है कि ये उत्तर न तो खोजी पत्रकारिता से मिलने वाले हैं, न किसी किसी शोध लेखन से। उत्तर तो हमेशा से मौजूद ही हैं। हम सभी उन उत्तरों को जानते हैं। हम जानते हैं कि वे कौन सी शक्तियां  हैं जो इन उत्तरों को दबा रहीं हैं, बदल रही हैं और हमें ऐसे सवालों में उलझाने की कोशिश कर रही हैं जिसमें हम स्वयं कठघरे में खड़े नजर आएं। वे दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक अमानवीय और घातक होती गईं हैं और हमारे राष्ट्र-राज्यों को तेजी से बौना करती जा रही हैं।

हमें उत्तर तलाशने की नहीं, उत्तर देने की आवश्यकता है। और उन्हें यह करारा जवाब मिलेगा सामूहिक प्रतिरोध से, जिसमें चिकित्सकों की भी भूमिका होगी। देखना यह है कि यह कब शुरू होता है!


स्रोत और संदर्भ:

[i] Narendramodi dot in, “ऐसे लोगों से मिलें जो कोरोनोवायरस से लड़ने के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं”, March 25, 2020

[ii] “12,000 People per Day Could Die from Covid-19 Linked Hunger by End of Year, Potentially More than the Disease, Warns Oxfam.” 2020. Oxfam International. July 9, 2020. https://www.oxfam.org/en/press-releases/12000-people-day-could-die-covid-19-linked-hunger-end-year-potentially-more-disease.

[iii] Solomon, Andrew. 2018. “‘Literature about Medicine May Be All That Can Save Us.’” The Guardian. The Guardian. February 22, 2018. https://www.theguardian.com/books/2016/apr/22/literature-about-medicine-may-be-all-that-can-save-us.

[iv]https://www.dailymail.co.uk/news/article-8393249/Ten-private-doctors-government-official-falsified-500-death-certificates.html

[v] अगर किसी की जांच रिपोर्ट में कोविड की पुष्टि होती है तो उसकी मृत्यु किसी भी कारण से हो, उसे भारत समेत अधिकांश देशों में कोविड से मृतक के रूप में दर्ज किए जाने का निर्देश है। ऐसे मामलों में  सड़क दुर्धटना, कैंसर, किडनी काम करना बंद करना  आदि कुछ ही कारणों से हुई मौत को इसका अपवाद मानने की इजाजत है।

[vi] Letter, Director General Health Services Haryana to All Civil Surgeons, Haryana, Letter : regarding constitution of covid death audit committee (CDAC) for review, Letter Number : 32/3/IDSP 20/2692-2713,May 13, 2020http://haryanahealth.nic.in/Documents/IdspCovid/13-05-2020%20-%20constution%20of%20CDAC.pdf

[vii] प्रमोद रंजन  (2020), “भय की महामारी”, प्रतिमान, वर्ष-8, अंक – 15, जनवरी-जून

[viii] WHO Documents, “History of the development of the ICD” (Not Dated). https://www.who.int/classifications/icd/en/HistoryOfICD.pdf

[ix] Physicians manual On Medical certification Of Cause of death,Office Of The Registrar General,

Ministry Of Home Affairs, Ministry Of Home Affairs, India, September,2012

[x] https://www.who.int/classifications/icd/COVID-19-coding-icd10.pdf?ua=1

[xi] प्रमोद रंजन  (2020), “भय की महामारी”, प्रतिमान, वर्ष-8, अंक – 15, जनवरी-जून

[xii] Barak Bulletin “No private practice for doctors for 2 more months; Assam Health department extends prohibition”, August 09, 2020

[xiii] Mark D. Griffiths,“A Brief Look at Medical Student Syndrome.” n.d. Psychology Today. https://www.psychologytoday.com/us/blog/in-excess/201609/brief-look-medical-student-syndrome.

[xiv] HCQ Recommendation by ICMR,”Recommendation for empiric use of hydroxy-chloroquine for prophylaxis of SARS-CoV-2 infection”, 22 March, 2020.https://www.icmr.gov.in/pdf/covid/techdoc/archive/HCQ_Recommendation_22March_final_MM_V2.pdf. Accessed on February 05, 2021

[xv] The Sentinel, “Assam doctor dies after taking anti-malaria drug to prevent coronavirus”, 30 March, 2020

[xvi] Indian Express, “Coronavirus: Assam doctor who took malaria drug dies of ‘heart attack’”, March 31, 2020

[xvii] North East Now, Assam doctor death not linked to hydroxychloroquine, says official”, March 30, 2020. https://nenow.in/north-east-news/assam/assam-doctor-death-not-linked-to-hydroxychloroquine-says-official.html

[xviii] Arunabh Saikia (2020), “Death of Assam doctor raises questions about malaria drug recommended for Covid-19 health workers”, Scroll dot in,, 02  April, 2020

[xix] BBC, “Hydroxychloroquine: India agrees to release drug after Trump retaliation threat”, April 07, 2020

[xx] Ektorp E. (2020). Death threats after a trial on chloroquine for COVID-19. The Lancet. Infectious diseases, 20(6), 661. https://doi.org/10.1016/S1473-3099(20)30383-2

[xxi] Oransky, Author Ivan. 2020. “A Month after Surgisphere Paper Retraction, Lancet Retracts, Replaces Hydroxychloroquine Editorial.” Retraction Watch. July 10, 2020. https://retractionwatch.com/2020/07/10/a-month-after-surgisphere-paper-retraction-lancet-retracts-replaces-hydroxychloroquine-editorial/.

[xxii] “WHO Discontinues Hydroxychloroquine and Lopinavir/Ritonavir Treatment Arms for COVID-19.” n.d. Www.who.int. https://www.who.int/news/item/04-07-2020-who-discontinues-hydroxychloroquine-and-lopinavir-ritonavir-treatment-arms-for-covid-19.


प्रमोद रंजन असम विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सहायक-प्रोफेसर हैं


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