भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की मध्यप्रदेश इकाई द्वारा “भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीयकरण” विषय पर एक वेबिनार का आयोजन किया गया। वेबिनार का संयोजन जोशी अधिकारी इंस्टीट्यूट आफ सोशल स्टडीज द्वारा किया गया। वेबिनार में डॉ. अभय शुक्ला (पुणे), राष्ट्रीय सहसंयोजक, जन स्वास्थ्य अभियान ने अपनी बात रखते हुए कहा कि वर्ष 1986-87 में भारत की सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं निजी क्षेत्र की तुलना में ज्यादा थी, और 1000 मरीज में 400 मरीज ही निजी स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ लेते थे। तब से 2020 तक स्थितियां बिल्कुल विपरीत हो गई हैं। अब बमुश्किल 40 फ़ीसदी लोग सार्वजानिक स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाते हैं और शेष 60 फ़ीसदी को निजी क्षेत्र के अस्पतालों की शरण लेना पड़ती है।
डॉ. अभय शुक्ल ने कहा कि स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में भारत दुनिया के कई मुल्कों के मुक़ाबले में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है। भारत में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर शासन द्वारा खर्च 19 अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष किया जाता है जो फिलीपींस, इंडोनेशिया और अफ्रीका जैसे देशों की तुलना में 3 से 4 गुना कम है, वहीं दूसरी ओर समाजवादी देश क्यूबा प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 883 अमेरिकी डॉलर का खर्च अपने नागरिकों के स्वास्थ्य पर करके सबसे ऊंचे स्तर पर है। वर्ष 2019-20 में भारत में रूपये 1765 प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर औसतन खर्च किया जा रहा था, यानि मात्र रूपये 3.50 प्रति व्यक्ति प्रतिदिन का खर्च। उन्होंने कहा कि सरकार ने सरकारी स्वास्थ्य खर्चों में कटौती करने के साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को नीतिगत बढ़ावा दिया। देश के कुछ राज्य तो सिर्फ निजी स्वास्थ्य सेवाओं के हवाले कर दिए गए हैं जिसके चलते सामान्य स्वास्थ्य सेवाएं खुले बाजार की व्यवस्था में लूट का माध्यम बन गई हैं।
स्वास्थ्य सेवाओं पर बढ़ गए लोगों के निजी खर्च का नतीजा ये हुआ है कि देश में प्रतिवर्ष लगभग 5.5 करोड़ लोग गरीबी की खाई में गिरते जा रहे हैं। वर्ष 2005 से 2015 के बीच निजी स्वास्थ्य सेवाओं का व्यापार औसतन तीन गुना बड़ गया। देश के शीर्ष 78 डॉक्टर्स ने एक सर्वे में बताया कि मुनाफाखोरी की चाहत ने निजी संस्थाओं को गैर तार्किक और अनुचित तरीके अपनाने की छूट भी ली जिससे निजी क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाएं बेहद मॅहगी हुई हैं। बहुराष्ट्रीय पूंजी भी इस क्षेत्र में अपनी भागीदारी बड़ाकर देश की जनता को लूटने तेजी से पांव पसार रही हैं। इस तरह सामान्य स्वास्थ्य सेवाएं सरकार द्वारा कारपोरेट घरानों को सौंप दी गईं और चुनी हुई लोकतान्त्रिक सरकारों ने ही देश की जनता को लुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र को दवा, उपकरण और स्वास्थ्य बीमा के माध्यम से देशवासियों को दोनों हाथों से लूटने की आजादी दे दी गई। हाल ही के कोविड महामारी के रोगियों से बड़ी निजी अस्पतालों द्वारा प्रतिदिन का रुपये 1 लाख से 4-5 लाख तक का खर्च वसूला जा रहा है। देश के लगभग सभी प्रदेशों में जिला और विकासखंड स्तर पर मौजूद अस्पताल संसाधन विहीन हैं, पर्याप्त स्टाफ, डॉक्टर्स नहीं हैं, जिससे कोरोना से मरने वालों की संख्या बढ़ रही है। सरकार को निजी क्षेत्रों के अस्पतालों में इलाज की कीमतों पर नियंत्रण के लिए सही तरीका इस्तेमाल करना चाहिए ताकि सभी को जीने के अधिकार से वंचित न किया जा सके। साथ ही सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को सुविधा युक्त बनाने प्रति व्यक्ति का खर्च बढ़ाने चाहिए तो कोरोना महामारी से लड़ा जाना संभव होगा। ताकि उनकी रोजमर्रा की आम स्वास्थ्य से जुड़ी जरूरत पूरी हो सके। इसे मैं राष्ट्रीयकारन नहीं बल्कि सामाजिकीकरण कहना चाहूँगा।
इंडियन डॉक्टर फॉर पीस एंड डेमोक्रेसी (आइडीपीडी) के वरिष्ठ उपाध्यक्ष डॉक्टर अरुण मित्रा (लुधियाना) ने कहा कि स्वास्थ्य और शिक्षा हमारा संवैधानिक अधिकार है जिसे देश प्रत्येक देशवासी को सहजता से उपलब्ध होना चाहिए। देश की सरकार ने आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाएं, जन स्वास्थ्य विभाग बनाने के बजाय मुनाफा कमाने वाली कंपनियों को खुली छूट दे रही हैं। सरकार को देश में विकेन्द्रित स्वास्थ्य सेवाएँ सहज रूप से उपलब्ध कराना चाहिए एवं साथ ही निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण बेहद आवश्यक हो गया है। जैसा कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था जो आज भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए जीवनदायिनी बनकर उभरे हैं, उतना ही महत्वपूर्ण देश के नागरिकों का स्वास्थ्य है। समय की आवश्यकता है कि सभी निजी स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण हो।
उन्होंने बताया कि किस तरह उनके संगठन द्वारा राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं का मुआयना करते हुए पाया गया कि सरकारी नीतियों की खामी के चलते निजी अस्पतालों में एक बहुत बड़े तबके के इलाज ना कर पाने से उन्हें मौत का सामना करना पड़ता है। देश के राजनीतिक दलों द्वारा स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर कोई ध्यान ना देने से देश की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा गई है। स्वास्थ्य सेवा कैसी हो, यह एक राजनीतिक सवाल है और जैसी राजनीति देश पर शासन करेगी, वैसा ही हाल स्वास्थ्य सेवाओं का होगा। उन्होंने यह भी कहा कि स्वास्थ्य का सवाल केवल अस्पतालों और डॉक्टरों से जुड़ा हुआ नहीं है. इसमें बड़ी भूमिका दवा कंपनियों की भी है। आपको हैरत होगी कि उदारीकरण के दौर में सरकारी क्षेत्र की दवा निर्माण करने वाली कम्पनियाँ बंद कर दी गईं। स्वास्थ्य का सवाल बुनियादी रूप से साफ़ पानी मुहैया करने, उचित सीवेज व्यवस्था उपलब्ध कराने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने से जुड़ा है। हमें समाज ऐसा बनाना चाहिए जहाँ लोग अव्वल तो बीमार पड़ें ही नहीं और अगर किसी वजह से कोई बीमार पड़े तो उसे ये फ़िक्र न हो कि पैसे कहाँ से आएंगे या डॉक्टर सही इलाज कर रहा है या लूट रहा है। इसके लिए हम सरकार से आइडीपीडी की ओर से राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग बनाने की मांग करते आ रहे हैं।
डॉक्टर माया वालेचा गुजरात के भरूच में एक सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और समाज के गिरते मानवीय मूल्यों और सामाजिक संबंधों को बेहतर बनाने के लिए काम कर रही हैंं। वेबिनार में अपना वक्तव्य रखते हुए उन्होंने कहा कि आज देश की जो स्थिति है उसके पीछे एक वजह राजनीतिक दलों की राजनीतिक इच्छाशक्ति का बेहद कमजोर होना भी है। कोविड महामारी में देश की गरीब जनता, मेहनत करने वाले श्रमिक केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा उपेक्षित हुए हैं। प्रवासी मजदूरों को हजारों किलोमीटर पैदल चलना पड़ा, परंतु रास्ते में स्वास्थ्य केंद्रों के अभाव के चलते कई को अपनी जान गंंवानीी पड़ी, जिनमें महिलाओं की दुर्गति किसी से छिपी नहीं है। नीति निर्माताओं ने ऐसे हालात में निजी स्वास्थ्य सेवाओं की कोई जवाबदारी तय नहीं की। देश की बहुमत आबादी को सरकार द्वारा प्रदत्त स्वास्थ्य सेवाओं का कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है। कोरोना से बचाव कराने वाले स्वास्थ्यकर्मी, स्वयं की सुरक्षा सामग्री के अभाव में काम करने को मजबूर किए गए सफाईकर्मियों को जान जोखिम में डालकर काम करने को मजबूर किया गया, स्वास्थ् कर्मियों को समय पर उनकी तनख्वाह नहीं मिल पाई जिसके चलते कोरोना मरीज उपेक्षा का शिकार होते रहे, परंतु सरकार उनकी समस्याओं की अनदेखी करती रही है।
वे कहती हैं कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भयावह है जिसे एक चेतनशील राजनीतिक समाधान से बेहतर किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोविड-19 को अपने व्यापारिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने में बिल गेट्स और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, जो दुनिया में वैक्सीन के क्षेत्र में काम करने वाला सबसे बड़ा कॉर्पोरेट है, कोविड की वैक्सीन बनाकर मुनाफे की होड़ में हैं। स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का राष्ट्रीयकरण किये बिना या जिसे सामाजिकीकरण भी कहा जा सकता है, इन सेवाओं को उन्नत नहीं किया जा सकता लेकिन साथ ही राजनीतिक हल की भी बेहद आवश्यकता है।
कार्यक्रम के संयोजक विनीत तिवारी ने कहा कि बेशक स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सवाल राजनीतिक सवाल हैं इसीलिए हम देख सकते हैं कि जहाँ भी सरकारें जनता के लिए फिक्रमंद हैं, वहाँ कोविड 19 का कहर कम टूटा है। क्यूबा और वेनेज़ुएला जैसे देशों की स्वास्थ्य सुविधाएँ दुनिया में श्रेष्ठ मानी जाती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि बिल गेट्स और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन जब अपने बनाये वैक्सीन का प्रयोग करेगी तब भी गरीब एशियाई और अफ़्रीकी देशों की जनता को ही उनके कहर का शिकार होना पड़ेगा। उन्होंने यह कहा कि भारत और अमेरिका में एक स्वास्थ्य सम्बन्धी आपदा का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक स्थित्ति को मजबूत करने और आपदा का डर दिखाकर लोगों से विरोध और प्रतिरोध के सभी तरीकों को छीनने में किया जा रहा है। वरवर राव के सन्दर्भ से उन्होंने कोविड 19 की आड़ में सरकार द्वारा किये जा रहे राजनीतिक दमन को रेखांकित किया और कहा कि राजनीतिक दलों को अनेक मोर्चों पर लड़ना होगा।
मप्र इकाई के पार्टी राज्य सचिव कामरेड अरविंद श्रीवास्तव ने स्वास्थ्य सेवाओं का संज्ञान लेते हुए वक्ताओं के प्रभावशाली वक्तव्य और प्रस्तुति के लिए धन्यवाद दिया और कहा कि स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीयकरण के मसले पर प्रदेश के अन्य संगठनों से बात करने के बाद आंदोलनात्मक कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे और स्वास्थ्यकर्मियों को संगठित करके प्रदेश ही नही बल्कि देश की जनता के सामने इस लड़ाई को मजबूत करने का आह्वान किया जाएगा।
वेबिनार हिंदी में था अतः मध्य प्रदेश के साथ ही दिल्ली, गुजरात, बंगाल, पंजाब एवं अन्य हिंदीभाषी राज्यों के उत्सुक और रुचिवान लोग शरीक हुए और सवाल जवाब का दौर भी हुआ।
रिपोर्ट: राहुल भाईजी