स्मृतिशेष: समाजवाद के खांटी पहरुए रामअवधेश सिंह का जाना


बिहार में सामाजिक न्याय की सबसे पुरानी आवाजों में एक रामअवधेश सिंह का सोमवार को निधन हो गया। चिंतक प्रेम कुमार मणि ने उनको अपनी फ़ेसबुक दीवार पर श्रद्धांजलि दी है। एक दिन विलंब से वहां से साभार प्रकाशित।

संपादक

अभी-अभी मनहूस खबर मिली कि प्रखर समाजवादी साथी रामअवधेश सिंह नहीं रहे. आज ही शाम पटना के पारस अस्पताल में उन्होंने आखिरी साँसें ली. बुढ़ापे की बीमारियों के अलावे संभवतः वह कोरोना पाज़ि‍टिव भी पाए गए थे. वह 83 वर्ष के थे.

बिहार के भोजपुर जिले के एक पिछड़े हुए गांव में 18 जून 1937 को जन्मे रामअवधेश सिंह ने राजनीति में अपने बूते जगह बनाई थी. वह 1969 में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में आरा विधानसभा क्षेत्र से चुन कर बिहार विधानसभा आये. 1977 में बिक्रमगंज लोकसभा क्षेत्र से संसद के लिए चुने गए. 1984 का लोकसभा चुनाव बस एक हजार एक सौ वोट से वह हार गए. 1986 में कर्पूरी ठाकुर की पहल पर उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया. 2007 में वह राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य बनाये गए.

भाई राम अवधेश सिंह से मेरी जान-पहचान 1975 में हुई. इमरजेंसी के दिनों में वह छुप कर प्रोफ़ेसर रामबुझावन बाबू के घर कुछ दिनों तक थे. वहीँ परिचय हुआ. 1977 में वह लोकसभा सदस्य हो गए. चौधरी चरण सिंह के निकटवर्ती लोगों में एक थे. बिहार में जब कर्पूरी ठाकुर की सरकार बनी और इस सरकार ने जब कांग्रेस नेता मुंगेरीलाल की अध्यक्षता वाले पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों को लागू किया, तब बिहार की राजनीति में एकबारगी कोहराम मच गया. इस लड़ाई को सड़क पर लड़ने के लिए कोई नहीं था. न लालू प्रसाद, न नीतीश कुमार. रामअवधेश सिंह सड़क पर आये.

रामअवधेश सिंह (June 18, 1937 – July 20, 2020)

मुझे याद है कर्पूरी ठाकुर के समर्थन में जब पहला जुलूस बेली रोड पर निकला तब दो-ढाई सौ से अधिक लोग नहीं थे. फब्तियां और गालियां सुनते हुए यह जुलूस निकला था. रामअवधेश जी चुपचाप निडर भाव से चल रहे थे. उनका निर्श था, किसी भी स्थिति में हमारा हाथ नहीं उठना चाहिए. मैं साक्षी रहा- पूरे जुलूस में कहीं कोई हिंसा नहीं हुई लेकिन अगले रोज आर्यावर्त अख़बार में निकला कि रामअवधेश के नेतृत्व में आर्यावर्त प्रेस पर पथराव किया गया. पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का वह पहला संघर्ष था. धीरे-धीरे बिहार में सामाजिक तनाव का वातावरण बन गया. कर्पूरी ठाकुर अपनी पार्टी में भी कमजोर होने लगे. रामअवधेश सिंह ने आरक्षण की उस राजनीतिक लड़ाई को अपने हाथ में लिया. ‘बदलाव ‘ नाम से एक मासिक पत्रिका निकाली. उसके उद्घाटन-अंक में ही मुझ से लेख लिखवाया.

रामअवधेश सिंह उन नेताओं में थे, जो समाजवादी आंदोलन की कमियों से वाकिफ थे. हम लोग खूब बातें करते. बहसें होती. वह कट्टर लोहियावादी थे. मुझे लोहिया के समाजवादी सोच पर शुरू से शंकाएं थीं. उनके उग्र नेहरू-विरोध से मेरी सहमति कभी नहीं बनी. ये सब हमारे बहस के मुद्दे होते थे. फिर हमारा यह भी कहना था कि जाति-नीति को ऐसा होना चाहिए जिससे यह जाति-विनाश के उद्देश्य तक पहुँच सके. रामअवधेश भाई इससे सहमत थे.

मंडल कमीशन की सिफारिशों के एक हिस्से को जब विश्वनाथ प्रताप सरकार ने लागू करने की घोषणा की, तब रामअवधेश जी राज्यसभा के सदस्य थे. उन्होंने बुलंद आवाज़ में विश्वनाथ प्रताप को इसके लिए शाबाशी और बधाई दी. प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा, जब रामअवधेश बाबू का हमें समर्थन है तब इसका अर्थ है मुझे भारत के सभी दबे-कुचले लोगों का समर्थन प्राप्त है. यह अलग बात है कि रामअवधेश भाई आगे चल कर चंद्रशेखर के समर्थन में खड़े हो गए. इस विषय पर अधिक चर्चा का शायद आज समय नहीं है.

रामअवधेश सिंह की एक बड़ी कामयाबी बिहार के चौकीदारों को सरकारी आदमी बनाना था. वह बिहार प्रदेश चौकीदार दफादार संघ के अध्यक्ष थे. उन्होंने अनवरत संघर्ष कर उन्हें सरकारी कर्मचारी का दर्ज़ा और सरकारी ट्रेज़री से वेतन सुनिश्चित करवाया. इसी तरह अपने इलाके में भूमिहीनों के अनेक संघर्ष में वह शामिल हुए. उनकी पत्रिका ‘बदलाव’ में लेखक राणा प्रताप ने भोजपुर के नक्सलवादी गाँवों पर कई अंकों में एक रपट लिखी थी. यह 1978 की बात होगी.

रामअवधेश भाई ने गरीबों-पिछड़े वर्गों, दलितों और अन्य वंचित तबकों की आवाज को संसद के दोनों सदनों में जोरदार स्तर पर उठाया. वह संकीर्ण सोच के बिलकुल नहीं थे. भोजपुर से रामएकबाल बरसी और रामअवधेश सिंह समाजवाद के दो खांटी पहरुए थे. कुछ वर्ष पूर्व बरसी जी चले गए. आज रामअवधेश भाई नहीं रहे.

ऐसे समय में जब भारत के राजनैतिक जीवन में सामाजिक प्रतिक्रियावाद का जोर लगातार बढ़ रहा है और जातिवादी- धार्मिक-दकियानूसी विचार हावी हो रहे हैं, रामअवधेश भाई का जाना अधिक दुखद है. उनसे अब मिलना नहीं हो सकेगा, यह सोचना ही कष्टप्रद है. लेकिन अब वह नहीं हैं यह सच है और इसे स्वीकारना ही होगा.

उनकी स्मृति को आखिरी प्रणाम. भीगी हुई श्रद्धांजलि.


प्रेम कुमार मणि वरिष्ठ पत्रकार और चिंतक हैं


About प्रेम कुमार मणि

View all posts by प्रेम कुमार मणि →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *