विगत दिनांक 29 जुलाई, 2020 को राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 की कैबिनेट से स्वीकृति के बाद राइट टू एजुकेशन फोरम, बिहार की कोर कमिटी में इस नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति के विभिन्न पहलुओं और बिहार पर उसके पड़ने वाले प्रभाव पर विचार किया गया।
“कोर कमिटी में इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया गया कि तकरीबन तीन दशक बाद घोषित शिक्षा नीति जैसे महत्वपूर्ण विषय को संसद में बिना किसी बहस के इस अभूतपूर्व कोरोना संकट और लॉकडाउन की अवधि में कैबिनेट द्वारा मंजूरी दे दी गई है। किसी भी देश की शिक्षा नीति दरअसल एक दृष्टि–पत्र है जो समाज-निर्माण की प्रक्रिया पर दीर्घकालिक प्रभाव डालनेवाला साबित होता है और जिसे वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील चिंतन के आधार पर देश के नौनिहालों का भविष्य गढ़ने के एक सशक्त दस्तावेज़ के बतौर देखा जाना चाहिए। लेकिन, इतनी अहम नीति को मंजूरी देने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया बताती है कि इसे केवल सरकार और सत्ताधारी दल की ही स्वीकृति प्राप्त हुई है, अन्य राजनीतिक दलों की इस निर्णय-प्रक्रिया में कोई सहभागिता नहीं हुई। इस संदर्भ में पूरी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का पालन न होना सिर्फ आश्चर्य ही नहीं, बल्कि गहन चिंता का विषय है। पूरे दस्तावेज़ में गुणवत्तापूर्ण व समावेशी शिक्षा के लोकव्यापीकरण के इरादे के ठीक उलट कई प्रतिकूल तत्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं।“
कमिटी में इस बात पर भी चर्चा की गई कि अंग्रेजी में 66 और हिन्दी में 108 पृष्ठों का यह दस्तावेज़ शिक्षा नीति की अपेक्षा शिक्षा के प्रस्तावित कार्यक्रमों का दस्तावेज़ अधिक प्रतीत होता है, क्योंकि इसमें दृष्टि की अपेक्षा कार्यान्वयन की प्रक्रियाओं पर अधिक विस्तार से प्रकाश डाला गया है लेकिन उसके लिए भी किसी ठोस रोडमैप की चर्चा नहीं है।
इस नीति पर तीखी प्रतिक्रिया जारी करते हुए राइट टू एजुकेशन फोरम, बिहार के प्रांतीय संयोजक, डॉ. अनिल कुमार राय ने कहा कि 3 से 18 वर्ष तक के बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा के लोकव्यापीकरण की अनुशंसा तो की है, परंतु शिक्षा अधिकार कानून 2009 की परिधि के विस्तार पर रहस्यमय ढंग से चुप्पी साध ली गई है। चूँकि यह शिक्षा नीति बिना कानूनी अधिकार के 3-18 वर्ष के बच्चों की शिक्षा के लोकव्यापीकरण की बात करती है, इसलिए इस संदर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों के लिए आवश्यक दिशा-निर्देश या व्यवस्थागत ढाँचे की भी रूपरेखा देनी चाहिए थी। ऐसा नहीं होने से नीतिगत मान्यता के बावजूद सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर और शारीरिक-मानसिक अक्षमताओं से जूझ रहे करोड़ों बच्चे शिक्षा के दायरे से वंचित रह जाएँगे। साथ ही, उन्होंने चिंता जताते हुए कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 से अपेक्षा थी कि शिक्षा अधिकार कानून संशोधन अधिनियम, 2019 के जरिये शिक्षा अधिकार कानून, 2009 में बदलाव कर खत्म की गई “नो डिटेन्शन पॉलिसी” के बारे में यह पुनर्विचार करेगी लेकिन 8वीं कक्षा तक फेल नहीं करने की इस मूल नीति की अनदेखी और शिक्षा अधिकार कानून के संशोधन पर मुहर लगाते हुए इसने तय कर दिया है कि अब कक्षा 3, 5 और 8 में बच्चे अनुत्तीर्ण किए जाएँगे और वे सस्ते मजदूरी पाने वाले घरेलू काम-धंधों की व्यावसायिक शिक्षा में धकेल दिये जाएँगे।
इस शिक्षा नीति में ऑनलाइन और डिजिटल शिक्षा के द्वारा प्रत्येक बच्चे तक पहुँच बनाने की बात अनेक प्रसंगों में कही गयी है। ऑनलाइन शिक्षा पर ज़ोर देने के साथ ही विद्यालयों के संकुल या परिसर (क्लस्टर) बनाने की बात जिस तरह की गई है, उससे जाहिर होता है कि भारी संख्या में विद्यालय-महाविद्यालय बंद करके दूरस्थ और ऑनलाइन शिक्षा पर ज़ोर दिया जाएगा। इससे एक ओर तो औपचारिक विद्यालयों-महाविद्यालयों का संस्थागत ढाँचा ध्वस्त हो जाएगा और शिक्षा का स्वरूप अनौपचारिक होकर रह जाएगा। शिक्षा का अनौपचारिकरण ज्ञानात्मक उत्पादकता को बुरी तरह प्रभावित करेगा और अंततोगत्वा यह देश की आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था को गहरी ठेस पहुँचायेगा। ऑनलाइन, डिजिटल और दूरस्थ शिक्षा के माध्यमों पर ज़ोर देने और विद्यालयों-महाविद्यालयों की संख्या घटाने से ‘पड़ोस का विद्यालय’ की कोठारी आयोग और समान स्कूल प्रणाली की अनुशंसा और सार्वदेशिक रूप से स्थापित वह प्रगतिशील अवधारणा भी ध्वस्त हो जाएगी जिसे पहले भी अंगीकार नहीं किया जा सका था। इससे आदिवासी, दलित, महादलित, बच्चियों और दिव्यांगों के शिक्षा ग्रहण के अवसर में भारी कमी आएगी और वे शिक्षा की मुख्य धारा में शामिल होने से वंचित रह जाएँगे। यह राष्ट्र के बौद्धिक, आर्थिक और सामाजिक हितों को बुरी तरह प्रभावित करेगा।
इस शिक्षा नीति में पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की वकालत की गई है। इससे जाहिर होता है कि शिक्षा में निजी संस्थाओं के प्रवेश की नीतिगत स्वीकृति दी गई है। इस नीति से दोपरती शिक्षा की व्यवस्था और भी मजबूत होगी और इसका खामियाजा तमाम वंचित और सामाजिक हाशिये पर मौजूद वर्गों को भुगतना होगा जो दोयम दर्जे की शिक्षा प्राप्त कर कम मजदूरी का श्रमिक बनाने के लिए मजबूर कर दिये जाएँगे। यह सामाजिक न्याय के संवैधानिक संकल्प की अनदेखी होगी।
जिस तरह बार-बार भाषा, इतिहास और संस्कृति की दुहाई दी गई है, ‘भारतीय कला और संस्कृति के संवर्धन’ पर ज़ोर दिया गया है, स्थानीयता का यह गौरव-बोध शिक्षा के वैश्विक आदर्शों पर खड़ा नहीं उतरता है और उससे शिक्षा के सांप्रदायीकरण का खतरा दिखाई पड़ता है।
उच्चतर शिक्षा संस्थानों की स्थापना के नाम पर 3000 से कम नामांकन वाले अन्य महाविद्यालय समाप्त हो जाएँगे। इन महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को भी ग्रेडेड स्वायत्तता प्राप्त होगी। स्वायत्तता का अर्थ फीस लेने की स्वतन्त्रता भी है। सरकार धीरे-धीरे इन महाविद्यालयों पर होने वाले खर्च से मुक्ति पा लेगी। महाविद्यालयों की दूरी होने से और फीस की अधिकता होने से कमजोर वर्गों की शिक्षा कठिन हो जाएगी।
शिक्षा समवर्ती सूची में रही है। राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह शोध और नियामक संस्थाओं की स्थापना की बात इस शिक्षा नीति में कही गई है। इससे शोध के उन्हीं विषयों के लिए वित्त उपलब्ध कराया जाएगा, जिन विषयों को केंद्रीय संस्था पसंद करेगी। इससे शोधों के आयाम के संकुचित हो जाने का खतरा है। दूसरी तरफ इससे राज्यों के संघीय अधिकारों का उल्लंघन दिखाई पड़ता है।
बिहार जैसा प्रांत, जो आज भी सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ है, वह ऑनलाइन शिक्षा, दूरस्थ विद्यालय-महाविद्यालय, महंगी फीस, निम्न कक्षाओं में ही फेल करने की व्यवस्था और विभेदीकृत शिक्षा व्यवस्था से बुरी तरह आक्रांत हो जाएगा।
इसलिए राइट टू एजुकेशन फोरम, बिहार इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 पर पुनर्विचार की माँग करता है। संसद में सभी दलों के मतों को समाहित करके फिर से शिक्षा नीति जारी की जाय।
(राइट टू एजुकेशन फोरम, बिहार की कोर कमिटी, जिसमें विजय कुमार सिंह, राजीव रंजन, कपिलेश्वर राम, राकेश कुमार, मीरा दत्ता, मित्ररंजन और अनिल कुमार राय हैं, के द्वारा जारी विज्ञप्ति पर आधारित! कवर तस्वीर फाइल फोटो।)
मित्ररंजन
मीडिया समन्वयक
राइट टू एजुकेशन फोरम
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